मिट्टी आर्थिक और सामाजिक विकास में केंद्रीय भूमिका निभाती है। यह इंसान, पशु और वानस्पतिक जीवन के बने रहने के लिए अनाज, चारा, रेशा और अक्षय ऊर्जा की आपूर्ति सुनिश्चित करती है। इसलिए, समय-समय पर इसकी देखभाल की जरूरत होती है। खेती लायक जमीन को बढ़ाना मुश्किल है, इसलिए मौजूदा कृषि क्षेत्र पर ही उत्पादन का दबाव है।
ज्यादा अनाज उगाने की हमारी कोशिश में मिट्टी का इस हद तक दुरुपयोग हुआ है कि अब यह हमारी सेहत को प्रभावित करने लगा है। मिट्टी की गुणवत्ता विभिन्न भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाओं का नतीजा है। बहुत ज्यादा खेती, अत्यधिक दोहन जैविक और अजैविक स्रोतों से सीमित क्षतिपूर्ति के कारण मिट्टी की गुणवत्ता क्षीण हुई है। मिट्टी की गुणवत्ता में लगातार गिरावट को अक्सर उपज की स्थिरता या कमी के एक कारण के रूप में देखा जाता है।
2016 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की ओर से बनाया गया राष्ट्रीय डेटाबेस दिखाता है कि 12.07 करोड़ हेक्टेयर जमीन या भारत की कुल सिंचित और असिंचित भूमि का 36.7 फीसदी जमीन विभिन्न तरह की डिग्रेडेशन (भूमि ह्रास) की शिकार है। इसमें से 8.3 करोड़ हेक्टेयर (68.4 फीसदी) जमीन पानी से होने वाले कटाव की वजह से कमजोर हो रही है, जो मिट्टी को कमजोर करने वाली वजहों में सबसे बड़ी है। पानी का कटाव मिट्टी में जैविक कार्बन के नुकसान, पोषण असंतुलन, मिट्टी के ठोस होने, मिट्टी की जैव-विविधता घटने और भारी तत्वों व कीटनाशकों की मिलावट के रूप में सामने आता है।
नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी (एनएएएस) के अनुसार, हमारे देश में मिट्टी के नुकसान की सालाना दर 15.35 टन प्रति हेक्टेयर है, जो 53.7 से 84 लाख टन पोषक तत्वों का नुकसान करती है। मिट्टी के नुकसान का तत्काल पड़ने वाला दूसरा असर फसल उत्पादकता में गिरावट है। कटाव वाली मिट्टी से जलाशयों में गाद जमा होती है और जलाशय की क्षमता घटती है, जिसके सालाना 1 से 2 फीसदी होने का आकलन है। यह आगे इसके कमान क्षेत्रों में सिंचाई को प्रभावित करता है।
एनएएएस के मुताबिक, भारत में पानी से होने वाले मृदा अपरदन से वर्षा आधारित प्रमुख फसलों में सालाना 1.34 करोड़ टन कम उत्पादन होता है, जो 205.32 अरब रुपए का नुकसान करता है। कुल जमीन में से 8.8 लाख हेक्टेयर जमीन स्थायी तौर पर पानी में डूबी रहती है और वर्षा आधारित मिट्टी में लगभग 1.25 करोड़ हेक्टेयर हिस्सा खरीफ में होने वाले अस्थायी जलभराव से परती रह जाती है। जलभराव, जो खारापन पैदा करके मिट्टी को नुकसान पहुंचाता है और इसके चलते भारत में सालाना 12 से 60 लाख टन अनाज का नुकसान होता है। इसके अलावा भारत में उपजाऊ मिट्टी का बड़ा हिस्सा गैर-कृषि कार्यों के लिए इस्तेमाल किए जाने से भी प्रभावित हुआ है।
रसायनों से होने वाला नुकसान
रसायनों से मिट्टी की सेहत को होने वाले नुकसान का पैमाना खारापन (क्षारीयता), अम्लीयता, रसायनों के कारण मिट्टी में आने वाली विषाक्तता और पोषक व जैविक तत्वों में गिरावट और अन्य पोषण संबंधी मुद्दों पर आधारित है। खारेपन से प्रभावित 67.4 लाख हेक्टेयर मिट्टी में 37.9 लाख हेक्टेयर में सोडियम की उच्च मात्रा (9.5 से ज्यादा पीएच मान) और 30 लाख हेक्टेयर खारेपन से प्रभावित मिट्टी शामिल है। पीएच मान के आधार पर देश का एक बड़ा हिस्सा औसत रूप से क्षारीय है।
उत्तर भारत के कुछ हिस्सों जैसे हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर (अविभाजित), पश्चिमी उत्तराखंड और पूर्व भारत जैसे ओडिशा, झारखंड, पूर्वी उत्तर और पश्चिमी तट प्रायद्वीप उच्च या औसत रूप से अम्लीय हैं। लगभग 1.1 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन बहुत कम उत्पादकता के साथ अत्यधिक मृदा अम्लीयता (5.5 से कम पीएच मान) से प्रभावित है (अनुपात बहुत ज्यादा क्रमश: 27.7:6.1:1 और 31.4:8.0:1 है)। यहां तक कि खादों की खपत भारत के 42 फीसदी जिलों में ही केंद्रित है। देश के कुल 525 जिलों में से 292 जिलों में ही कुल खादों के 85 फीसदी हिस्से की खपत होती है।
फसलों के बीच खादों के इस्तेमाल में भारी अंतर है। आलू, गन्ना, कपास, गेहूं और धान में क्रमश: 347.2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, 239.3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, 192.6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, 176.7 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और 165.2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर खादों का इस्तेमाल थोड़ा ज्यादा है। यहां तक कि इन फसलों में नाइट्रोजन वाली खादों का इस्तेमाल सबसे अधिक है। यूरिया का अत्यधिक इस्तेमाल मिट्टी को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। 2014-15 में देश में कुल इस्तेमाल होने वाली 48.5 करोड़ टन खाद में यूरिया का हिस्सा 30.6 करोड़ टन था।
कृषि की स्थायी संसदीय समिति की 54वीं रिपोर्ट (2017-18) कहती है कि देश में खादों के इस्तेमाल में असंतुलन के पीछे यूरिया के पक्ष में झुकी हुई सब्सिडी नीति और अन्य खादों की ऊंची कीमतें है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि देश में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, सल्फर, जिंक, बोरान, मॉलिब्डेनम, आयरन, मैग्नीज और तांबे के लिए पोषक तत्वों की कमी क्रमश: 89 फीसदी, 80 फीसदी, 50 फीसदी, 41 फीसदी, 49 फीसदी, 33 फीसदी, 13 फीसदी, 12 फीसदी, 5 फीसदी और 3 फीसदी है। रिपोर्ट में कहा गया कि देश में रासायनिक खादों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल को तार्किक बनाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है, ताकि उपजाऊपन बहाल किया जा सके।
सरकार की पहल
मृदा स्वास्थ्य कार्ड (एसएचसी) योजना का उद्देश्य खादों के इस्तेमाल को नियमित बनाना और कम से कम करना है। इस योजना को 2015 में राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन के तहत 568 करोड़ रुपए के बजट प्रस्ताव के साथ शुरू किया गया था। 2019 के अंत तक सरकार 23.5 करोड़ मृदा स्वास्थ्य कार्ड बांट चुकी है। किसानों के खेतों की मिट्टी की जांच करने के बाद उन्हें कार्ड जारी किया जाता है। इसमें जरूरी पोषक तत्वों की मात्रा के बारे में सुझाव दिए होते हैं और किसानों को पोषक तत्वों की कमी के आधार पर खादों का इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित किया जाता है।
राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद एक सरकारी संस्था है जो उत्पादकता पर शोध करती है। इस संस्था ने फरवरी 2016 में एक आकलन किया और पाया कि एसएचसी के सुझाव के आधार पर खादों का इस्तेमाल करने से देश में खादों के इस्तेमाल में 8-10 फीसदी गिरावट आई है और उपज 5-6 फीसदी बढ़ी है। हालांकि, इन्हें लागू किए जाने के पांच साल बाद जमीन पर एसएचसी का कोई असर दिखाई नहीं देता है और खादों का इस्तेमाल भी लगातार बढ़ रहा है।
सरकारी एजेंसियों की ओर जांच के लिए मिट्टी के नमूने की विधि वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि जांच वाले क्षेत्रों की ग्रिड ठीक नहीं है। वर्षा आधारित क्षेत्र में एक नमूना 10 हेक्टेयर, जबकि सिंचित क्षेत्र में 2.5 हेक्टेयर है। भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल में प्रधान वैज्ञानिक, प्रदीप डे कहते हैं, “यह मिट्टी की प्रकृति का अति-साधारणीकरण है। भारत में भू-जोत बहुत छोटी और बिखरी हुई है।”
मिट्टी की बनावट बहुत से कारकों, जैसे एक साल में उगाई गई फसलों के प्रकार और यहां तक कि किसानों की माली हालत पर निर्भर करती है। अगर किसान के खेत से मिट्टी का नमूना नहीं लिया गया है तो वह एसएचसी की सलाह से सहमत नहीं होते हैं। बड़े पैमाने पर मृदा के ऐसे कमजोर होने के मामले में “यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन टू कॉम्बेट डेजर्टीफिकेशन” की 2019 में नई दिल्ली में हुई बैठक में भारत ने 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर जमीन को दोबारा बहाल करने का वादा किया है। यह कब होगा, यह आने वाला वक्त ही बता पाएगा।
मिट्टी का उपजाऊपन घटना वैश्विक चिंता है। दुनिया की एक तिहाई मिट्टी पहले ही कमजोर हो चुकी है और आईपीसीसी का आकलन है कि अगर कुछ नहीं किया गया तो 2050 तक यह 90 फीसदी तक पहुंच सकता है। यहां तक कि औसत रूप से कमजोर हो चुकी मिट्टी 30 फीसदी कम अनाज पैदा करती है और स्वस्थ मिट्टी के मुकाबले केवल आधा पानी ही रोक पाती है। 2050 तक हमें 60 फीसदी ज्यादा अनाज पैदा करने की जरूरत होगी, जबकि दुनिया की आधी आबादी सूखे जैसे स्थितियों में हो सकती है। अगर कोई प्रयास नहीं किया गया तो इंसान और वन्यजीवों के बीच सिर्फ टकराव ही बढ़ेगा, जो इस साल आई महामारी का मूल कारण है।
मिट्टी की सेहत में सुधार भविष्य में सुरक्षित खाद्यान्न आपूर्ति, पानी पर दबाव घटाने और जलवायु परिवर्तन को बेअसर करने में मदद करते हुए इस टकराव को टालने में बहुत अधिक सहायक होगा। तीनों व्यापक जैव मंडल- मिट्टी, समुद्र और वायुमंडल में अकेली मिट्टी है, जिसमें हमारे पास मौजूदा उपलब्ध तकनीकी की मदद से सुधार करने के लिए संघर्ष करने का अवसर है। मिट्टी को सुधारने की आवश्यकता मुश्किल से एक मौलिक विचार है। फिर भी वैश्विक पैमाने पर प्रगति दुखद रूप से धीमी रही है।