इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरमेंट एंड डेवलपमेंट (आईआईईडी) ने अपनी रिसर्च रिपोर्ट में खुलासा किया है कि जलवायु परिवर्तन ग्रामीण भारत में किसानों की आत्महत्या में वृद्धि का कारण बन रहा है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक औसत से कम बारिश और उसके कारण पैदा हुई सूखे की स्थिति का सीधा संबंध किसानों की आत्महत्या में वृद्धि से है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2021 के दौरान भारत में आत्महत्या करने वालों में 15.08 फीसदी किसान थे।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2014 से 2015 और 2020-21 के बीच विशेष रूप से पांच राज्यों में जहां आत्महत्या की दर काफी ज्यादा वहां आत्महत्या और जलवायु से जुड़े कारकों का अध्ययन किया है। इन राज्यों में छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तेलंगाना शामिल थे। रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक इस अवधि के दौरान सामान्य से कम बारिश किसानों की आत्महत्या में वृद्धि से जुड़ी थी।
रिसर्च के मुताबिक जब साल में होने वाली बारिश सामान्य से पांच फीसदी कम-ज्यादा हुई तो आत्महत्या से मरने वाले किसानों की औसत संख्या 810 थी। वहीं रिग्रेशन मॉडल की मदद से विश्लेषण करने से पता चला है कि यदि बारिश में 25 फीसदी की कमी आती है तो एक वर्ष में आत्महत्या से मरने वाले किसानों की संख्या बढ़कर 1,188 हो जाएगी।
शोधकर्ताओं के मुताबिक जलवायु में आते बदलावों से न केवल सूखे की आवृत्ति बढ़ गई है, साथ ही इसका विस्तार नए क्षेत्रों में भी हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक सूखा 1998 से 2017 के बीच भारत के सकल घरेलू उत्पाद में दो से पांच फीसदी की कमी के लिए जिम्मेवार था।
छत्तीसगढ़ के तीन चौथाई से अधिक और महाराष्ट्र के करीब दो तिहाई हिस्से को ऐसे क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया, जहां सूखा पड़ने की आशंका बहुत ज्यादा है। इसी तरह मध्यप्रदेश के करीब 44 फीसदी हिस्से पर सूखे का खतरा है। वहीं यदि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो देश के करीब दो-तिहाई हिस्से पर सूखे का खतरा मंडरा रहा है।
इस बारे में आईआईईडी की प्रमुख शोधकर्ता रितु भारद्वाज ने बताया कि, "जलवायु अराजकता पहले ही आ चुकी है और कई देश इसके प्रभावों को पहले ही महसूस कर रहे हैं।" हालांकि अपनी आय के साथ जलवायु पर बहुत अधिक निर्भर होने के कारण, किसान इस संकट की अग्रिम पंक्ति में हैं। जलवायु परिवर्तन किसानी को किसानों के लिए अत्यंत जोखिम भरा, संभावित रूप से खतरनाक और घाटे में चलने वाला प्रयास बना रहा है, जो उनके आत्महत्या के जोखिम को बढ़ा रहा है।"
इस पहले भी शोधकर्ता इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि सूखा और बाढ़ भारत में किसानों की आत्महत्या का कारण बन रहे हैं। रिसर्च में उन कई कारकों पर प्रकाश डाला गया है जो किसानों को जोखिम में डाल रहे हैं। विशेष तौर पर उन ग्रामीण क्षेत्रों में जहां किसानों की आय कम है वहां यह किसानों की आत्महत्या का कारण बन रहे हैं।
मनरेगा बचा सकती है किसानों की जान
आईआईईडी विश्लेषण के मुताबिक जब भारत के महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम के तहत किसानों को रोजगार और मजदूरी मिल रही थी तो उनकी आत्महत्या की दर भी कम थी।
रिपोर्ट के अनुसार जब मनरेगा सामाजिक सुरक्षा योजना में कार्य दिवसों की संख्या पांच करोड़ से बढ़कर 15 करोड़ हो गई, तो आत्महत्या से मरने वाले किसानों की संख्या भी प्रति वर्ष 1,800 से घटकर 398 हो गई थी। गौरतलब है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के रोजगार और मजदूरी की गारंटी देती है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक फसल या बाजार की विफलता, कपास जैसी नकदी फसलों पर निर्भरता, सीमित बचत, नशीली दवाओं और शराब की लत, गरीबी और शिक्षा के आभाव का अर्थ है कि लोगों को संकट के समय सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के बारे में सीमित जागरूकता है और जिनका पता भी है उनका लाभ लेने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ता है।
महंगा कर्ज भी इस समस्या को बढ़ा रहा है। किसान अपनी फसलों के लिए कर्ज लेते हैं। लेकिन सही स्रोतों तक पहुंच और सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी का आभाव उन्हें महंगी दर पर अनौपचारिक स्रोतों से कर्ज लेने की ओर धकेलता है। ऊपर से यदि मौसम की मार से फसलें बर्बाद हो जाएं तो बच्चों का पेट और उस कर्ज की भरपाई कैसे होगी यह चिंता उन्हें खाए जाती है।
लेकिन किसानों द्वारा की जा रही यह आत्महत्या रोकी जा सकती हैं, शोधकर्ताओं ने इसके लिए कई सुझाव दिए हैं। इसमें सबसे पहले सरकारों को उन सार्वजनिक कार्यक्रमों सहित सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर विचार करने की जरूरत है जो जलवायु और आर्थिक संकटों के दौरान किसानों के लिए नकद या खाद्य सुरक्षा प्रदान कर सकें। वहीं दीर्घकालिक समय में इन समस्याओं से उबरने के लिए संपत्ति बना सकते हैं जो इस तरह के मानवीय संकट में उन्हें सुरक्षा प्रदान कर सकती है।
ऐसे में जलवायु परिवर्तन के कारण किसानों को उत्पादन और बाजार के बढ़ते जोखिमों का प्रबंधन करने के लिए समर्थन की आवश्यकता है। वे ज्यादातर कीमतों में उतार-चढ़ाव के रूप में बाजार के जोखिमों के संपर्क में आते हैं, जिसकी जानकारी उनके पास नहीं होती।
जब वे अपनी फसल की योजना बना रहे होते हैं या अपनी फसल के लिए जरूरी इनपुट खरीदने के लिए ऋण लेते हैं तो ऐसे में उनके पास वस्तुओं के आगे तय होने वाले मूल्यों की जानकारी होनी चाहिए। नीति निर्माताओं को भी नीतियां बनाते समय जलवायु परिवर्तन और उसके किसानों पर पड़ते असर को भी ध्यान में रखना होगा।
इसी तरह जलवायु संकट के संपर्क में आने वाले किसानों के लिए बीमा उससे बचने और प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। साथ ही मानसिक स्वास्थ्य पर भी विशेष रूप से ध्यान रखने की जरूरत है, जो उन्हें इस तरह के दुखद कदम उठाने से रोक सकता है।
हर रोज 29 आत्महत्याएं
एनसीआरबी के आंकड़ों को देखें तो 2020 में देश में खेती-किसानी से जुड़े 10,677 लोगों ने तंग होकर आत्महत्या कर ली थी। मतलब कि हर दिन कृषि से जुड़े 29 लोग आत्महत्या कर रहे हैं।