राई नृत्य के घुंघरुओं की खनक जब कानों में पड़ती है तो खुद-ब-खुद पैर थिरकने लगते हैं। ऐसी नृत्य कला में निपुण बेड़िया जनजाति के गांवों में जाएं तो कानों में आज भी आवाज आती है “क” से कबूतर और “ख” से खरगोश... तो दूसरे कान में ऐसी आवाज आती है, जिसे यहां लिखना संभव नहीं। ऐसे सामंती परिवेश और अपराधिक जनजाति अधिनियम के अंतर्गत अधिसूचित बेड़िया समुदाय के बीच 19 साल पहले एक ऐसा शख्स आकर बस गया जो इनकी नजरों में बाहरी था। लेकिन समय के साथ बेड़िया समुदाय की संस्कृति में वह इस कदर रच-बस गया कि समुदाय ने उसे अपना मान लिया। इस शख्स ने समुदाय द्वारा दी गई मड़ई को ही अपना बसेरा बना लिया। उसने सदियों से चली आ रही बेड़िया परंपरा को आत्मसात करते हुए उनके अंधेरे और गुमनामी भरे जीवन में उजाला करने की एक अदद कोशिश शुरू की। इसकी शुरूआत समुदाय के बच्चों को पढ़ाने से की। बाद में बच्चों को मुख्यधारा के सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाकर उनकी एक पहचान सुनिश्चित करने की कोशिश अब तक जारी रखे हुए हैं। अपने इस सफर में उन्हें कई बार जान से मारने की धमकी मिली। कई बार हमले भी हुए हैं, लेकिन “एकला चलो” के अपने अटल विश्वास के दम पर उनके कदम अब तक नहीं लड़खड़ाए हैं। यह शख्स पिछले 32 सालों से पहले दिल्ली फिर वाराणसी, राजस्थान और अब मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में बेड़िया समुदाय के बीच रहकर ही उनकी डगर को आसान बनाने की कोशिश में जुटा है। अनिल अश्विनी शर्मा ने अजीत सिंह से उनके अब तक के संघर्ष के बारे में बातचीत की
आपने देश के कई बड़े शहरों के सेक्स वर्करों के बच्चों के साथ काम किया लेकिन पिछले दो दशक से आपने बेड़िया समुदाय को ही क्यों चुना?
देखिए, यह एक ऐसा समुदाय है जिसके साथ हमारे या आप जैसे लोग उठना-बैठना तो दूर इनके साथ बातचीत करना भी गवारा नहीं समझते। यह एक बहिष्कृत समुदाय है जिसे कोई भी स्वीकार नहीं करता है। हर कोई इनसे दूर भागता है। ऐसे में इनकी आने वाली पीढ़ी कम से कम इस अभिशप्त जीवन से मुक्त हो इसीलिए मैं इनके साथ हूं और जीवन पर्यंत रहूंगा।
बेड़िया समुदाय के साथ आप लगभग बीस सालों से रहे हैं, इतने सालों में आपने क्या परिवर्तन देखा? सबसे बड़ा परिवर्तन तो यही है कि परिवारों में आने वाली पीढ़ी को इस गंदगी से निकालने की चाह पैदा हुई है। उनके मन में भी अब यह आस जगी है कि आने वाले सालों में हमारे बच्चे भी सामान्य बच्चों की तरह ही जीवन गुजार सकेंगे।
बेड़िया जनजाति की पहचान राई नृत्य से है, इतनी समृद्ध कला में पारंगत होने के बावजूद इन्हें समाज क्यों नहीं स्वीकारता?
स्वीकारता है तो बस अपने उपयोग भर के लिए, उसके बाद वह इन्हें दुत्कार देता है या कहें कि समाज इन्हें एक वस्तु की तरह “यूज एंड थ्रो” के रूप में ही स्वीकारता है। लेकिन वास्तविकता ये है कि राई शब्द राधिका से आया है। राधिका के नृत्य से राई नृत्य बना, जिसमेें केवल राधा ही कृष्ण को रिझाने के लिए नृत्य करती हैं। चूंकि यह नृत्य मशाल की रोशनी में होता था और मशाल को बुझने न देने के लिए इसमें राई डाली जाती थी इसीलिए बाद के समय में यह राई नृत्य कहलाया। यह नृत्य कई बार 20-22 घंटे तक चलता रहता है।
आपकी नजर में बेड़िया जनजाति का अब तक सबसे स्याह पक्ष क्या है?
समृद्ध परम्पराओं और रीति रिवाजों को अपने में समेटे बेड़िया जनजाति के सिक्के का दूसरा पहलू बेहद दुखद है। राई नृत्य से जुड़े ये कलाकार आज बदहाली का शिकार हैं। इनमें से बहुत से लोग ऐसे हैं जो आज भी वैश्यावृति के चंगुल से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। इनके आसपास का सामाजिक ताना-बाना इस प्रकार कदर बुना गया है कि उन्हें इससे निकलने में सालों लग जाते हैं।
आपको इस बेड़िया समुदाय का सबसे सकारात्मक पक्ष क्या लगा, जिससे समाज के दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें?
अधिकतर बेड़िया जनजाति के आदमी किसी विशेष कार्य में संलग्न नहीं होते तथा आय के लिए वे घर की स्त्रियों पर निर्भर रहते हैं। एक प्रकार से देखा जाए तो बेड़िया समुदाय के लोगों के घर के पालन-पोषण का जिम्मा उस घर की अविवाहित स्त्रियों के कंधों पर रहता है। यही मुख्य कारण है कि आज के समाज में जहां कन्या भ्रूण हत्या एक मुख्य समस्या बनी हुए है, वहीं इस समुदाय में लड़की के जन्म को एक त्योहार की तरह मनाया जाता है। यह इस समुदाय का ऐसा उजला पक्ष है जिसे समाज का अन्य तबका बखूबी सीख ले सकता है।
क्या सरकार ने इनके पुनर्वास के लिए कोई योजना तैयार नहीं की है?
तैयार की है लेकिन जैसे अन्य योजनाएं कागजों पर ही बनती और बिगड़ती हैं, उसी प्रकार से इनके लिए बनी पुर्नवास योजनाओं का हश्र भी हुआ। सबसे बड़ी बात तो है कि इस समुदाय को कोई सरकारी योजना नहीं चाहिए बल्कि इनकी चाहत है कि समाज का उनके प्रति नजरिया बदले। तभी तो ये समुदाय सिर उठाकर चल पाएंगे। अब भी यह समुदाय समाज के साथ-साथ सरकारी उदासीनता का शिकार बना हुआ है।
मध्य प्रदेश सरकार ने इस समुदाय के लिए जमीनों का भी आबंटन किया है, क्या इसके बाद भी इनका पुनर्वास नहीं हो पा रहा है?
देखिए, इस समुदाय का इतिहास खगालेंगे तो आप पाएंगे कि इस समुदाय का कृषि से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है। यही कारण है कि यह समुदाय सरकारी जमीन का ठीक से उपयोग नहीं कर पाता। दूसरा, इनको दी गई जमीन भी उनके घरों से मीलों दूर है।
बेड़िया समुदाय के उत्थान के लिए सरकारी कोशिशों को आप किस नजर से देखते हैं?
देखिए, इस मामले में सरकार के दो मुंह हैं। राज्य की भूमिका पर गौर किया जाए तो वह जहां एक तरफ वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं जगह एड्स जैसे प्रोग्राम चलाकर, घर-घर में कंडोम बांट रहा है। यानि कायदे से देखा जाए तो राज्य उन्हें संरक्षण देता हुआ प्रतीत होता है। दोनों भूमिकाएं एक दूसरे के खिलाफ प्रतीत होती हैं।
बेड़िया समुदाय के साथ कई संगठन सालों से काम कर रहे हैं। इसके बाद भी इनके विकास पर प्रश्न चिन्ह क्यों लगा हुआ है?
कुल मिलाकर बेड़िया समुदाय की यौनिकता समाज और राष्ट्र के विरोधाभासी दबाव का शिकार बनती है। जहां एक तरफ राष्ट्र व राज्य समुदाय की यौनिकता को अपनी यौनिक अर्थव्यवस्था के तहत बचाए रखना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ मुख्य धारा के समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आग्रहों को खारिज भी नहीं करना चाहता। कायदे से देखा जाए तो इनके साथ काम करने वाले संगठन अपने सामुदायिक कार्यों में बेड़िया समुदाय के साथ सांस्कृतिक राजनीति की एजेंट दिखाई देते हैं।
सरकारी या निजी स्कूलों में जब बेड़िया समुदाय के बच्चे जाते हैं तो क्या वे भेदभाव के शिकार होते हैं?
हां, लेकिन मेरी कोशिशों से धीरे-धीरे अब ये स्कूल बेड़िया बच्चों को स्वीकारने लगे हैं और उनके साथ बतौर इंसान व्यवहार कर रहे हैं। हां यह बात सही है कि जब मैं यहां आया था तो इसी भेदभाव के कारण बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल छोड़ देते थे। अब इनका अनुपात काफी कम हो गया है।
क्या आपको लगता है कि इस समुदाय के बच्चों की शिक्षा देकर ही काम पूरा हो गया?
जी नहीं। असली काम तो होता है इनके पीछे बने गैरकानूनी गठजोड़ों को तोड़ना। शिक्षा तो इस दिशा में उठाया गया एक छोटा-सा कदम है। मैं इतने सालों से काम करने के बावजूद कह सकता हूं कि अभी केवल पचास फीसदी ही काम मैं कर पाया हूं।