जब मुर्मू ने समझा था आदिवासियों का मर्म

आदिवासियों की जमीन से जुड़े कानूनों को कमजोर करने के दौर में द्रौपदी मुर्मू इस वंचित समुदाय की संरक्षक के तौर पर उभरी हैं
चित्रण: तारिक अजीज / सीएसई
चित्रण: तारिक अजीज / सीएसई
Published on

झारखंड की राज्यपाल रह चुकीं द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया है। इसके बाद उनका राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय माना जा रहा है। मुर्मू आदिवासी समुदाय से हैं और राज्यपाल रहते उन्होंने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया था। उस समय डाउन टू अर्थ ने उनसे बातचीत की थी। आज हम उनसे बातचीत और उस घटनाक्रम पर प्रकाशित रिपोर्ट को  जस का तस दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं। -  

झारखंड में आदिवासियों समुदायों और सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो रही है। पत्थरगड़ी की घटनाएं इस टकराव के केंद्र में हैं। जानकारों का कहना है कि सरकार की नजर आदिवासियों की पुश्तैनी जमीनों पर है। यही वजह है कि सरकार ने सीएनटी और एसपीटी कानून में संशोधन की कोशिशें कीं ताकि जमीन लेने की प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके लेकिन सरकार की इन कोशिशों को तब झटका लगा जब राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने इन विवादित बिलों को लौटा दिया। आदिवासी समूहों से व्यापक बातचीत के बाद मुर्मू ने यह फैसला लिया था। बहरहाल बिलों में संशोधन तो ठंडे बस्ते में चला गया है लेकिन आदिवासियों के मन में तमाम तरह की शंकाएं घर कर रही है। डाउन टू अर्थ ने पिछले साल अगस्त में सरकार की आदिवासी विरोधी कोशिशों को उजागर किया था और राज्यपाल मुर्मू से इस संबंध में बात की थी। 

द्रौपदी मुर्मू झारखंड में निर्वाचित सरकार से ज्यादा खबरों में हैं। इसकी वजह सिर्फ उनका पहली आदिवासी महिला राज्यपाल होना नहीं बल्कि राज्य में तेजी से बदल रही परिस्थितियां हैं, जिनसे मुख्यमंत्री रघुवर दास का राज्य के आदिवासी समुदायों से सीधा टकराव हो रहा है। 


मुर्मू की तरफ सबका ध्यान उस वक्त गया जब सरकार ने पिछले साल नवंबर में दो बिल भेजे। शताब्दी पुराने छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटी) और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (एसपीटी) में संसोधन कर राज्यपाल से स्वीकृति मांगी गई थी। बिलों में प्रस्तावित संशोधनों में बिना मालिकाना हक बदले आदिवासियों को जमीन के व्यावयासिक इस्तेमाल का अधिकार देने की बात की गई है। संशोधनों में उन क्षेत्रों का भी जिक्र था जिसके लिए सरकार आदिवासियों से लीज पर जमीन ले सकती है। संशोधनों के प्रस्ताव के साथ ही इसका विरोध होने लगा। करीब 8 महीने तक बिल का विरोध जारी रहा। इसी बीच मुर्मू ने बिल का विरोध करने वालों से बात शुरू की। उन्होंने हाल में डाउन टू अर्थ को दिए साक्षात्कार में स्वीकार किया कि वह झारखंड और राज्य के बाहर के विभिन्न समूहों और लोगों से 192 बैठकें कर चुकी हैं। जून के अंत में उन्होंने दोनों विवादास्पद बिल लौटे दिए। सत्ता के गलियारों में उनके इस कदम से हलचल मच गई। सरकार पर भी दबाव बना कि वह संशोधनों पर फिर से विचार करे। आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने के उनके इस कदम का लोग स्वागत कर रहे हैं।

जब यह सब हो रहा था, ठीक उसी वक्त राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के रूप में उनका नाम उछलने पर राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चा होने लगी। हालांकि बाद में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में बिहार के पूर्व गवर्नर रामनाथ कोविंद का चयन किया गया, फिर भी मुर्मू ने ध्यान खींचा। अखबारों और टीवी चैनलों पर उनके बारे में काफी बातें हुईं।

झारखंड की राजनीति और पर्यावरणविदों के बीच उनके बारे में सबसे ज्यादा बातें हो रही हैं। बिल से उनकी असहमति बीजेपी विधायकों के लिए भी राहत लेकर आया क्योंकि जिस पैमाने पर विरोध हो रहा था, उसे देखते हुए उन्हें डर था कि अगले चुनाव में यह उनके लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। मुर्मू का मानना था कि संशोधनों पर फिर से विचार होना चाहिए। राज्य सरकार को उम्मीद नहीं थी कि वह बिल से असहमति जताएंगी। लेकिन मुर्मू का यह कदम दो कारणों से उम्मीद के मुताबिक है।

पहला है उनका मूल। वह आदिवासी होने के नाते विरोध के कारणों को आसानी से समझ सकती हैं जिसने राज्य को हिलाकर रख दिया। दूसरा कारण है उन संगठनों की संख्या जिन्होंने इस मुद्दे पर मुर्मू से मुलाकात कर संसोधनों पर रोक लगाने की मांग की।

रांची के लेखक बिनोद कुमार के अनुसार, राज्य में आदिवासी आबादी कम हो रही है। 1901 में राज्य की कुल आबादी में 55 से 60 प्रतिशत हिस्सेदारी आदिवासियों की थी। अब यह सिर्फ 26 प्रतिशत रह गई है। आदिवासियों का घटता प्रतिशत बताता है कि झारखंड में आदिवासी पहचान खतरे में है। ऐसे माहौल में रघुवर दास ने झारखंड इन्वेस्टर्स समिट में निवेशकों को लुभाने के लिए कानून में संशोधन किए। मुख्यमंत्री के इस कदम ने शांति से जीवनयापन कर रहे लोगों के मन में संदेह पैदा कर दिया। कुमार का कहना है कि संशोधन सिर्फ प्राइवेट कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किए गए हैं।  

पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का कहना है कि अगर बीजेपी ने बिल में परिवर्तन खासकर सीएनटी एक्ट की धारा 49 में बदलाव की कोशिश की तो फिर से विरोध शुरू होगा।

“जमीन चली गई तो आदिवासी जिंदा नहीं बचेंगे”
आदिवासियों के मुद्दों पर डाउन टू अर्थ ने द्रौपदी मुर्मू से रांची स्थित उनके आधिकारिक आवास पर बात की

आदिवासियों की हितों की रक्षा के लिए झारखंड को अलग राज्य बनाया गया था। क्या आपको लगता है कि ऐसा हुआ है?
झारखंड को बने 17 साल हो गए हैं। इन सालों में राज्य अस्थिर सरकारों का गवाह बना है, इस वजह से ज्यादा कुछ नहीं हो पाया। शुरू में सरकारी विभागों के पास कोई नीति नहीं थी। वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद कल्याणकारी और कृषि से संबंधित नीतियां बनाई गईं हैं। वर्तमान सरकार जो चाहती थी उसका 60 प्रतिशत लक्ष्य हासिल कर लिया गया है। राज्य का समग्र विकास और आदिवासियों का विकास सरकार की प्राथमिकता है। आदिवासियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा एजेंडे में शामिल और इस पर सरकार गंभीरता से काम कर रही है।
 
आप झारखंड की पहली आदिवासी राज्यपाल हैं। आपसे लोगों की उम्मीदें हैं। क्या ये उम्मीदें आपको ज्यादा लगती हैं? क्या आपको लगता है कि आदिवासी अन्य राज्यपालों की तुलना में आपसे ज्यादा सहज हैं?
मैं पूर्व राज्यपालों के बारे में कुछ नहीं कहूंगी। झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है। राज्यपाल बनने के बाद से मैंने लोगों की समस्याएं जानने की कोशिशें की हैं। साथ ही यह पता लगाया है कि किन कारणों से राज्य सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा है। मैं सभी समुदायों से मिलने की कोशिश करती हूं। मैंने नाबालिगों, मजदूरों और आधिकारियों की समस्याएं जानने की कोशिश की है। राज्यपाल सरकार को सुझाव दे सकता है। अब उच्च शिक्षा, विश्वविद्यालय की समस्याओं से संबंधित मामले कोर्ट जा रहे हैं। करीब 5537 मामलों का निपटाया हुआ है। पहले ऐसी व्यवस्था नहीं थी। अब यह बनाई गई है। स्कूलों और कॉलेजों में रिक्त पदों को भरा जा रहा है। राज्यपाल का पद संवैधानिक है और इसकी सीमाएं भी हैं। फिर भी स्वास्थ्य और शिक्षा से जुडे मामलों में लोगों से मिलना व समुदायों से मिलकर उनकी शिकायतें सुनना मेरी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। जब भी मुझे पता चलता है कि कहीं समस्या है तो मैं राज्य सरकार को सचेत करती हूं। राज्य सरकार से अब तक मुझे पूर्ण सहयोग मिला है।
 
आपने हाल ही में टेनेंसी से जुडे दो बिल लौटाए हैं और स्पष्टीकरण मांगा कि इनसे आदिवासियों को फायदा कैसे होगा। क्या आपको नहीं लगता कि इन कानूनों के बाद भी आदिवासी हितों की उपेक्षा की गई है और उनकी जमीनें हथियाई जा रही हैं।
सरकार को कानूनों में लोगों के हित का खयाल रखना होगा। मैंने विशेषज्ञों से बात की और पूरे बिल को पढ़ा है। मुझे लगा कि इस पर पुनर्विचार की जरूरत है। इन बिल पर 192 राजनीतिक और गैर राजनीतिक बैठकें की गई हैं। बहुत से बाहरी लोगों ने भी इस सिलसिले में मुझसे मुलाकात की। ये बिल राज्य सरकार को 192 ज्ञापनों के साथ लौटाए गए। ये ज्ञापन बिल के विरोध में मिले थे। मैंने सरकार से कहा कि इन ज्ञापनों के प्रकाश में संशोधनों पर फिर से विचार किया जाए।
 
आप जमीन के साथ आदिवासियों के पैतृक संबंध को कैसे परिभाषित करेंगी?
विकास के लिए तीन चीजों की जरूरत होती है। वह हैं शिक्षा, धन और ताकत। शिक्षा और धन के मामले में आदिवासी मजबूत नहीं हैं। जमीन ही उनकी ताकत है। वे सोचते हैं कि जब तक जमीन उनके पास है, वे काम और गुजर बसर कर लेंगे। अगर जमीन चली गई तो वे जीवित नहीं रहेंगे। वे जमीन को भगवान मानते हैं। वे झूठ नहीं बोलते और न ही बहस करते हैं, इस कारण वे व्यापार भी नहीं कर सकते। वे शांति चाहने वाले और सच्चे लोग हैं। शताब्दियों से ये आदिवासी जमीन, जंगल, नदी से गहराई से जुड़े हैं। ये उनकी जिंदगी में शामिल हैं। उन्हें अपने पारिस्थितिक तंत्र से वंचित करना अपराध है। विकास के एजेंडे में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती। आदिवासी समूहों से उनकी जमीन से अलग नहीं करना चाहिए।
 
आजादी के 70 साल हो गए हैं। जब भी विकास की बात जाती है तो आदिवासी हिचकते हैं। आपकी नजर में इसका क्या उपाय है?
आदिवासियों ने अब तक विकास को नहीं चखा है। देशभर में केवल 7 प्रतिशत आदिवासियों ने ही शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति की है। राज्य और केंद्र सरकार को आदिवासियों के शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान के लिए फिर से गहन चिंतन मनन करना होगा। मुझे दृढ विश्वास है कि अच्छी शिक्षा समाज में बदलाव ला सकती है। इसीलिए, मैं सरकार की तरफ से आदिवासियों को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य पर जोर से देने से प्रभावित हूं।

मध्यप्रदेश में बैगा जनजाति को रहने के अधिकार दिए गए हैं, क्या यह झारखंड में भी संभव है?
2006 के वन कानून के अनुसार, आदिवासियों को पट्टा और इंदिरा आवास योजना के तहत घर दिए जाते हैं। सरकार उनसे सीधे वन उत्पाद खरीद सकती है। महुआ और केंदू के संकलन की उन्हें अनुमति दी जानी चाहिए। सरकार एक व्यक्ति को केवल 5 किलो महुआ रखने की इजाजत देती है, मैं इसे सही नहीं मानती। यह उनकी आय का साधन बन सकता है। मैं एजेंडे का नियमित मूल्यांकन करती हूं। 50000 आदिवासी परिवारों को वनाधिकार कानून के तहत जमीन पट्टे पर दी गई है। इसी तरह 200 समुदायों को झारखंड में पट्टा दिया गया है।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in