मुंडम: मौखिक परंपरा का प्रकृति गान

जनजातीय समाज की परंपराओं, गीतों, त्योहारों, भोजन, वस्त्र, जीवनशैली का गंभीरता से अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि उनकी प्रत्येक परंपरा प्रकृति को उसके मूल रूप में अक्षुण्ण रखने का प्रयास है
मुंडम: मौखिक परंपरा का प्रकृति गान
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अपने मानवीय अनुभवों को अगली पीढ़ी तक सहजता से पहुंचाने का सबसे पुराना तरीका है -मौखिक प्रथा। दुनिया में कोई भी ऐसी संस्कृति नहीं है, जहां मौखिक साहित्य, लिखित साहित्य से पहले न आया हो। पुरानी पीढ़ी, बड़े-बुजुर्ग, गुनिया-ओझा, पंडे, अपने आजमाए नुस्खों और निरंतर बढ़ते प्रायोगिक ज्ञान के सागर को नई पीढ़ियों को हस्तांतरित करते रहे हैं। कई बार यही आधुनिक विज्ञान व ज्ञान का अाधार भी होता है। मौखिक परंपरा का ज्ञान—सामाजिक मूल्य और आध्यात्मिक दर्शन, इतिहास, जटिल वैज्ञानिक और पर्यावरणीय ज्ञान का विश्लेषण और संरक्षण के साथ ही आचार-नीति का भी संचारण करता रहा है। पारंपरिक कहानियां जिस तरह हमसे और हमारे इर्द-गिर्द की दुनिया से जुड़ी हैं, वे वास्तव में अथाह हैं।

कहानियां, प्रकृति के प्रति हमारे नजरिए के पुनर्मूल्यांकन के लिए दरवाजे खोलती हैं। अक्सर ये जटिल पर्यावरणीय और दीर्घकालिक मुद्दों से जुड़ी चुनौतियों के बारे में संकेत दे देती हैं। इस मामले में जनजातीय कहावतों ने हमें बहुत कुछ दिया है। इसमें दुनियाभर के ऐसे देसी समूहों का महत्वपूर्ण योगदान है, जो अभी भी झाड़-फूंक और प्रकृति की पूजा में आस्था रखते हैं। उदाहरण के तौर पर, हम पूर्वी हिमालय के लोगों को ले सकते हैं, जो किरांति समूह की भाषा (तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार) बोलते हैं। उनका मौखिक साहित्य पर्यावरण और उसके संरक्षण के प्रति हमारे नजरिए को प्रभावित करता है। जबकि किरांतियों की ज्यादातर पारंपरिक कथाएं विलुप्त हो चुकी हैं, फिर भी वे अपने पारंपरिक कथा-पाठ, विशेषकर पवित्र शिक्षा, मुंडम और इनसे जुड़ी प्रथाओं के साथ आज भी प्रकृति के साथ संतुलन बनाते हुए अपना जीवन बसर कर रहे हैं। मुंडम किरांति जनजाति के ओझाओं द्वारा प्रकृति से जुड़े एक कार्यक्रम या महत्वपूर्ण सामाजिक रस्मों के दौरान गाया जाता है।

हर साल अप्रैल-मई के महीने में करीब 15 दिनों तक मनाए जाने वाले उत्सव उभौली (जिसे सकेला या सकेवा भी कहा जाता है) के दौरान किरांति के सदस्य समुदाय के लोगों से कहते हैं कि मछलियां मत मारो, क्योंकि पवित्र कथाओं में इस दौरान मछली मारना वर्जित किया गया है। यहां यह जानना दिलचस्प है कि इस समय मछलियां अंडे देने के लिए नदी की ऊपरी धारा में आ जाती हैं। उभौली के दौरान ओझा ‘पवित्र मुंडम’ का पाठ करते हैं, जिसमें किरांतियों के उद्गम, समृद्ध परंपराओं, उनके पूर्वजों की कहानी और उनकी प्राकृतिक दुनिया के रीति रिवाजों आदि के बारे में बताया जाता है। इस दौरान नदियों, पहाड़ों, इंद्रधनुष, भूमि और जानवरों की प्रार्थना की जाती है।

मुंडम में एक पवित्र कथा के अनुसार कोईंच जनजाति (जो कि किरांति समूह से ताल्लुक रखते हैं) के एक सदस्य को अनुमति दी जाती है कि वह घर बनाने के लिए एक पेड़ को काट सकता है । इसके बदले में मातृभूमि के प्रति आभार जताने के लिए उसे 10 पेड़ लगाने होंगे। उनका मानना है कि जब एक ओझा/पुजारी अपना शरीर त्याग करता है, तो उनका उच्च ज्ञान दिव्य ऊर्जा के रूप में पौधों के विभिन्न प्रजातियों में प्रवेश कर जाता है। इसी विश्वास के चलते आदिवासी फर्न, बांस और बेंत की कुछ किस्मों की मनमानी कटाई नहीं करते हैं।

कोईंच मुंडम की एक और कहानी शिकार को लेकर नीतिगत चिंता को प्रदर्शित करती है। वैसे उनकी परंपरा में ऐसे जानवरों को मारना प्रतिबंधित किया गया है, जो गर्भ से हो। साथ ही वे शिकार के दौरान घायल हुए जानवरों के लिए माफी भी मांगते हैं। आदिवासी ‘साही’ को अपनी देवमाता मानते हैं- एक और कहानी के अनुसार, वह कोईंच प्रमुख को स्तनपान कराती है। यही वजह है कि आदिवासियों द्वारा साही का शिकार कभी-कभी ही किया जाता है।

तमिलनाडु के नीलगिरी में रहने वाले पनियर आदिवासी, जो कि भारत की सबसे प्राचीन जनजाति मानी जाती है, भी प्रकृति की पूजा करते थे। आदिवासियों के अंतिम जीवित ओझा अमाली बताते हैं कि कैसे उनके लोग कभी शेरों को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। पनियर महापुरुषों के अनुसार, शेर जंगलों के अभिभावक होते हैं। इस जानवर के प्रति अपना सम्मान जताने के लिए पनियर समुदाय के लोग शेरों द्वारा किए गए शिकार के अवशेष को ग्रहण करते हैं। आमली आगे बताते हैं कि काली मिर्च के पेड़ उनकी प्रकृति पूजा प्रथा के मूल में है।

लोग काली मिर्च के बागान के बीच से नहीं गुजरते हैं, नहीं तो ये पेड़ उनके सपने में आएंगे और उनसे पूछेंगे कि तुम बाग में क्यों आए थे? यदि कोई पनियर आदिवासी पवित्र बागान में चला जाता है, तो उसे क्षमा याचना के तौर पर कुछ न कुछ अवश्य चढ़ाना पड़ता है। पारंपरिक कहानियों के कथ्य और पर्यावरणीय सामग्री विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग होते हैं। लेकिन इनमे से प्रत्येक कहानियों को सुनने के बाद जो मूल्य उत्पन्न होते हैं, वह शिक्षा का आधुनिक तंत्र प्रदान नहीं कर सकता है।

लेपचा जनजाति की कहानी कहने की परंपरा ज्ञान व संदेश की दृष्टि से अद्वितीय और अनुकरणीय है। शायद, यह एकमात्र ऐसी जनजाति है, जो पहाड़ों को अर्धमानव, येती के रूप में पूजते हैं। लेपचा की कहानियांे में पर्यावरणीय ज्ञान कूट-कूट कर भरा है। इनमें जटिल सामाजिक मुद्दों का समाधान भी प्रकृति के तत्वों का उपयोग करके किया जाता है। कुछ कहानियों में पिस्सू और जूं को पति और पत्नी बताया गया है। कुछ आख्यान, गीत के रूप में संपूर्ण हिमालय के आकार लेने की शुरुआती कहानियों को चित्रित करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ कहानियां एक मधुर गीत से शुरू होती हैं, कहती हैं- “यह कहानी उस वक्त की है, जब कंचनजंगा एक कस्तूरी मृग के दांत के समान छोटा था।”

यह हमारे लिए एक चेतावनी है कि जब तक हम लोगों में इन परंपराओं को पुनर्जीवित करने और आधुनिक मानसिकता के साथ इनमें बदलाव की प्रक्रिया की समझ विकसित हो, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। वर्तमान में, अधिकांश परंपराएं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। इनके लुप्त होने का मतलब है इनकी परख और अनुभवों के वृहद् भंडार का पूरी तरह से खात्मा हो जाना। यह नुकसान और भी गंभीर हो सकता है, यदि हम समय रहते यह न विचार करने लग जाएं कि ज्यादातर संस्कृतियों का दस्तावेजीकरण नहीं हो पाया है। दूसरा गंभीर क्षेत्र एक महत्वपूर्ण चुनौती हमारे सामने रखता है, वह है विशिष्ट सांस्कृतिक भाषा की क्षति, जिसमे पारंपरिक कहानियां कही गई हैं। जैसा कि शोधकर्ता बताते हैं कि हर घंटे दो भाषाओं की मौत हो रही है, हमारे हाथ में जो काम है, वह काफी बड़ा है, और वास्तव में हम यह जंग हार चुके हैं।
सलिल मुखिया, एकास्टिक ट्रडिशंस (प्राचीन कथाओं के वाचन परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए एक पहल) के सह-संस्थापक हैं।

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