भारत के प्रथम जुरासिक वैज्ञानिक बीरबल साहनी

भारत में जब भी पुरा-वनस्पति विज्ञान की बात होती है तो प्रो. बीरबल साहनी का नाम सबसे पहले लिया जाता है। उन्होंने दुनिया के वैज्ञानिकों का परिचय भारत की अद्भुत वनस्पतियों से कराया।
Credit: Wikipedia
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जीवन की विकास यात्रा से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल और लाखों-करोड़ों वर्ष पुरानी वनस्पतियों की संरचना एवं उनकी विकास यात्रा को समझने के लिए अतीत के झरोखे में झांकना पड़ता है। इस तरह अनछुए रहस्यों का वैज्ञानिक रीति से किया गया उद्घाटन सचमुच चमत्कृत कर देता है। ऐसे अध्ययनों में पुरा-वनस्पति विज्ञान की भूमिका बेहद अहम मानी जाती है। भारत में जब भी पुरा-वनस्पति विज्ञान की बात होती है तो प्रो. बीरबल साहनी का नाम सबसे पहले लिया जाता है। बीरबल साहनी को भारतीय पुरा-वनस्पति विज्ञान यानी इंडियन पैलियोबॉटनी का जनक माना जाता है।

प्रो. साहनी ने भारत में पौधों की उत्पत्ति तथा पौधों के जीवाश्म पर महत्त्वपूर्ण शोध किए। पौधों के जीवाश्म पर उनके शोध मुख्य रूप से जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर आधारित थे। उनके योगदान का क्षेत्र इतना विस्तृत था कि भारत में पुरा-वनस्पति विज्ञान का कोई भी पहलू उनसे अछूता नहीं रहा है।

आधुनिक विज्ञान की जमीन पर खड़े होकर पुरा-वनस्पति विज्ञानी जब ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जुड़े खुलासे करते हैं तो कोई भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकता। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर राजमहल की पहाड़ियों से मिले जीवाश्मों के अध्ययन और जीवन की विकास यात्रा से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं।

प्रो. साहनी ने पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों का परिचय भारत की अद्भुत वनस्पतियों से कराया। इन्होंने वनस्पति विज्ञान पर पुस्तकें लिखी हैं और इनके अनेक प्रबंध संसार के भिन्न भिन्न वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं।

बीरबल साहनी का अनुसंधान जीवाश्म (फॉसिल) पौधों पर सबसे अधिक है। उन्होंने जुरासिक काल के पेड़-पौधों का विस्तार से अध्ययन किया है। उन्होंने एक फॉसिल 'पेंटोज़ाइली' की खोज की, जो वर्तमान झारखंड में स्थित राजमहल की पहाड़ियों में मिला था। यह स्थान प्राचीन वनस्पतियों के जीवाश्मों का भंडार है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने भी राजमहल की पहाड़ियों को 'भूवैज्ञानिक विरासत स्थल' का दर्जा दिया है। वहां उन्होंने पौधों की कुछ नई प्रजातियो की खोज की। इनमें होमोजाइलों राजमहलिंस, राज महाल्या पाराडोरा और विलियम सोनिया शिवारडायना इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। उनके कुछ आविष्कारों से प्राचीन पौधों और आधुनिक पौधों के बीच विकासक्रम को समझने में काफी मदद मिलती है।

प्रो. साहनी की पुरातत्व विज्ञान में भी गहरी रुचि थी और इस क्षेत्र में उनके कई शोधपत्र प्रकाशित हुए हैं। भू-विज्ञान का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया था। उन्होंने दक्कन उद्भेदन (दक्कन ट्रैप) और हिमालय के उच्चावचन जैसे विषयों को भी विस्तार से समझाया है। प्राचीन भारत में सिक्कों की ढलाई की तकनीक पर उनके शोध कार्य ने भारत में पुरातात्विक अनुसंधान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

प्रो. साहनी ने हड़प्पा, मोहनजोदड़ो एवं सिन्धु घाटी सभ्यता के बारे में अनेक निष्कर्ष निकाले। एक बार रोहतक के टीले के एक भाग पर हथौड़ा मारा और उससे प्राप्त अवशेष से अध्ययन करके बता दिया कि, जो जाति पहले वहां रहती थी, वह विशेष प्रकार के सिक्कों को ढालना जानती थी। उन्होने वे सांचे भी प्राप्त किए, जिससे वह जाति सिक्के ढालती थी। साहनी ने चीन, रोम, उत्तरी अफ्रीका में भी सिक्के ढालने की प्राचीन तकनीक का अध्ययन किया।

बीरबल साहनी के मन में विज्ञान के बीज बचपन से ही अंकुरित हो गए थे। उनके पिता रुचिराम साहनी ने पंजाब में विज्ञान के प्रसार में अग्रणी भूमिका निभायी थी। इस प्रकार बीरबल साहनी को अपने पिता के रूप में नव-प्रवर्तक, उत्साही शिक्षाविद और एक समर्पित समाजसेवक जैसे व्यक्तिव का सानिध्य प्राप्त हुआ।

लाहौर से आरंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद बीरबल साहनी उच्च शिक्षा के लिए कैम्ब्रिज चले गए। वहां उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन किया। जीवाश्म वनस्पतियों पर अनुसंधान के लिए वर्ष 1919 में उन्हें लंदन विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ साइंस यानी डीएससी की उपाधि प्रदान की गई।

बीरबल ने अपनी पढ़ाई के दौरान भी हिमालयी वनस्पतियों का अच्छा-खासा संग्रहण कर लिया था। उन्होंने हिमालय की कई अध्ययन यात्राएं कीं । पढ़ाई पूरी करने के बाद भी इन वनस्पतियों के अन्वेषण में अन्य चीजों की परवाह किए बिना जुटे रहे। उनकी ये यात्राएं काफी रोचक थीं। उन्होंने ऊंचे और टेढ़े-मेंढ़े रास्तों की परवाह किए बिना बुरान दर्रा, रोहतांग दर्रा, विश्लाव दर्रा सहित अनेक स्थानों की यात्राएं कीं। उनके ऐसे दौरे काफी लंबे होते थे। इसके चलते उनके पास अनोखी हिमालयी वनस्पतियों का संग्रह हो गया था।

साहनी के कार्यों के महत्व को देखते हुए वर्ष 1936 में उन्हें लंदन की रॉयल सोसाइटी का सदस्य चुना गया। उनके द्वारा लखनऊ में जिस संस्थान की नींव रखी गई थी, उसे आज हम बीरबल साहनी पुरा-वनस्पति विज्ञान संस्थान के नाम से जानते हैं। इस संस्थान का उद्घाटन भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वर्ष 1949 में किया था। 

बीरबल साहनी ने वनस्पति विज्ञान पर अनेक पुस्तकें लिखीं। उनके अनेक शोध पत्र विभिन्न वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित हुए। डॉ. साहनी केवल वैज्ञानिक ही नहीं थे, बल्कि वह चित्रकला और संगीत के भी प्रेमी थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने उनके सम्मान में 'बीरबल साहनी पदक' की स्थापना की है, जो भारत के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को दिया जाता है। उनके छात्रों ने अनेक नए पौधों का नाम साहनी के नाम पर रखा है ताकि प्रो. बीरबल साहनी उन जीव-अवशेषों की तरह हमेशा याद किए जाते रहें, जिन्हें खोजने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया था।

(इंडिया साइंस वायर)

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