प्रवासी पेलिकन की पीड़ा

राजस्थान में बड़ी संख्या में आने वाले पेलिकन को ठेकों के कारण मछलियां नहीं मिल रही हैं
पृथ्वी सिंह राजावत
पृथ्वी सिंह राजावत
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यूरोप व मध्य एशिया के ठंडे प्रदेशों में बर्फबारी शुरू होने के साथ ही शीतकालीन प्रवास पर आने वाले जलीय पक्षियों में सबसे बड़े आकार वाले पेलिकन या हवासील पक्षियों का अस्तित्व मछली ठेकों के कारण खतरे में पड़ गया है। अधिक खुराक व मछली पर ही निर्भरता के चलते इन प्रवासी परिंदों को मछली पालन से जुड़े लोग जलस्रोतों पर टिकने ही नहीं देते जिससे ये पक्षी करीब चार माह तक एक तालाब से दूसरे तालाब भटकने को मजबूर हैं। राजस्थान के आधे से ज्यादा जिलों में शीतकालीन प्रवास पर हजारों की तादाद में आने वाला यह सुंदर प्रवासी मेहमान मत्स्य पालन के व्यापक स्तर पर प्रसार से पीड़ित है। यदि शीघ्र ही इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए तो हो सकता है साइबेरियन क्रेन की तरह यह भी भारत से मुख मोड़ ले।

इस पक्षी की दुनिया में 8 प्रजातियां हैं जिनमें से रोजी पेलिकन या व्हाइट पेलिकन तथा डालमेशियन प्रजाति के पेलिकन राजस्थान के दक्षिणी व पूर्वी भाग में हर साल बड़ी संख्या में आते हैं। यह एक वजनदार व बड़े आकार का उड़ने वाला पक्षी है। नर पक्षी का वजन 9 से 15 किलोग्राम तक होता है तथा एक दिन में 5 से 7 किलो तक मछली खा लेता है। इतना वजन होने के बावजूद यह मजबूत तेज उड़ने वाला पक्षी है। ये पक्षी मुख्यता साइबेरिया और पूर्वी यूरोप से भोजन की तलाश और प्रजनन के लिए तब भारत आते हैं, जब वहां बर्फ पड़ने लगती है और इनका वहां रहना मुश्किल हो जाता है। शीत ऋतु की दस्तक के साथ ही इस पक्षी का भारत में आना आरंभ हो जाता है। ये पक्षी 3,000 किलोमीटर से अधिक दूरी तय कर कलात्मक आकार में उड़ते हुए प्रवास के लिए हमारे यहां आते हैं।

खतरों का सिलसिला

इन पक्षियों की चोंच लंबी होती है और चोंच का निचला हिस्सा थैलीनुमा होता है। इसका प्रयोग ये पक्षी मछली को पकड़ने के लिए करते हैं। ये चोंच को खोलकर पानी में डूबाकर रखते हैं जिससे चोंच की इस थैली में पानी भर जाता है और पानी के साथ मछलियां भी आ जाती हैं। जब गर्दन पानी से बाहर निकालकर इस थैली को सिकोड़ते हैं तो इससे पानी बाहर आ आता है और ये मछली को निगल जाता है।

अपने झिल्लीदार पंजों की वजह से यह पक्षी तैरते हुए ही पानी की सतह से उड़ान भर सकते हैं। इन पक्षियों की नाक नहीं होती। ये अपनी चोंच से ही सांस लेते हैं। नर पक्षी मादा से आकार और वजन में बड़ा होता है। हवासील के प्रजनन का समय फरवरी से अप्रैल तक होता है तथा ये आमतौर पर पानी के किनारे मिट्टी व तिनके आदि एकत्रित कर बड़ा घोंसला बनाते हैं। इनके एक ही जगह पर काफी संख्या में घोंसले होते हैं। मादा दो से तीन अंडे देती है। नर व मादा मिलकर चूजों को पालते हैं। प्रजनन के समय नर पक्षी के चेहरे का रंग गुलाबी व मादा का रंग नारंगी जैसा होता है। ये पक्षी मीठे पानी व साफ पर्यावरण में ही रहना पसंद करते हैं तथा प्रदूषित व खारे पानी की झीलों से दूर चले जाते हैं। जमीन में घोंसले होने से इसके अंडों व चूजों को कुछ शिकारी जानवर जैसे लोमड़ी व गीदड़ आदि खा जाते हैं। कई बार झीलों में तैरते हुए पक्षी मगरमच्छों का भी शिकार बन जाते हैं। मछली ठेकों के चलते पेलिकन किसी एक जलाशय पर ठहर नहीं पा रहे और उनका घोंसला नहीं बन रहा।

करीब एक दशक पूर्व तक राजस्थान के गिने-चुने जलाशयों पर ही मछली पालन होता था लेकिन अब ज्यादातर जलस्रोतों पर मछली ठेका होने लगा है। राजस्थान में बड़ी संख्या में जल निकाय जैसे नदियां, तालाब, झीलें और बांध उपलब्ध हैं तथा ताजे पानी के साथ-साथ नमकीन जल संसाधन भी हैं।

राज्य में मत्स्य पालन के लिए वर्तमान में 15,838 जलाशयों का मछली ठेकों के लिए प्रयोग किया जाने लगा है जो 4,23,765 हेक्टेयर क्षेत्रफल को कवर करते हैं। इनमें लगभग 77 प्रतिशत जलाशय अजमेर, उदयपुर और कोटा संभागों में ही मौजूद हैं। भीलवाड़ा, श्रीगंगानगर, बांसवाड़ा, चित्तौड़गढ़, टोंक, अजमेर और उदयपुर में जिलों में ही 25,000 हेक्टेयर जल क्षेत्र मछली पालन के काम आने लगा है जो कुल संसाधन क्षेत्र का 67 प्रतिशत है। बूंदी जैसे छोटे जिले में ही 300 जलाशयों पर मछली पालन होने लगा है जिससे पेलिकन के लिए समस्या खड़ी हो गई है।

दूसरे पक्षी भी संकट में

जलाशयों पर अवैध अतिक्रमण व पेटा-काश्त से भारतीय सारस की संख्या भी लगातार कम हो रही है। उत्तर भारत सदियों से इस पक्षी की शरणस्थली रहा है, लेकिन पिछले एक दशक में जल स्रोतों पर अवैध अतिक्रमण, जलाशयों में अवैध पैटा-काश्त व कमजोर मॉनसून के चलते इस पक्षी की सरहद हिमालय के आसपास व विशेषकर उत्तर प्रदेश तक सिमटकर रह गई है। मछली के ठेके सारस पक्षियों पर भी प्रतिकूल असर डाल रहे हैं। इसके अलावा इंडियन स्कीमर (पनचिरा, कैंची चोंच अथवा पंछीड़ा) की स्थिति भी बेहद खराब है। यह अपनी काली टोपी और गहरी नारंगी रंग की चोंच से आसानी से पहचाना जा सकता है।

पनचिरा को शांत और स्वच्छ जल वाले जलाशय पसंद हैं और टिटहरी की तरह यह पक्षी खुली बालू में अंडे देता है। इंडियन स्कीमर की संख्या अब मुख्य रूप से भारत और पाकिस्तान के भीतर है और लगभग 5 हजार पक्षी ही बचे होने का अनुमान है। इसे नदियों एवं बड़ी झीलों में मानवीय दखल और प्रदूषण व अशांति से खतरा है। राजस्थान का राज्य पक्षी गोडावण भी देखते ही देखते लुप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। पश्चिमी राजस्थान में व गुजरात के कुछ भाग में इसकी संख्या 500 से भी कम रह गई है। काफी बजट खर्च करने के बावजूद इसकी घटती संख्या चिंता का विषय है।

पेलिकन सहित अन्य प्रवासी परिंदों को बचाने के लिए हर जिले में कम से कम एक वेटलैंड को मछली ठेके से मुक्त रखकर उसको पक्षियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। वेटलैंड अधिनियम 2010 के प्रावधानों का भी प्रभावी क्रियान्वित होना भी आवश्यक है। साथ ही उच्चतम न्यायालय के निर्णय अनुसार, तालाबों व प्रमुख वेटलैंड में कृषि कार्य और गैर वानिकी गतिविधियों पर प्रभावी रोक लगानी चाहिए। जैव-विविधता अधिनियम 2003 का प्रभावी कार्यान्वयन भी जरूरी है।

(लेखक वन्यजीव संरक्षक रहे हैं)

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