गुजरात के खिसारी गांव में भरी दुपहरी में छह युवकों का समूह सड़क किनारे मरी पड़ी गाय के पास खड़ा था। समूह में शामिल मनोभाई वीरजीभाई मालादिया ने बताया, “पिछली रात एक शेर ने इसे मार दिया था। असल में उसने दो को मारा था और एक को खा लिया था। आज रात वह इसे लेने आएगा।” जब उनसे पूछा गया कि इसे किसी ने क्यों नहीं हटाया तो मालादिया का जवाब था, “2016 में उना में चार युवकों की पिटाई के बाद गांव में मरे जानवरों की खाल उतारने वाले एकमात्र परिवार ने यह काम छोड़ दिया है।” उना की इस घटना के बाद पूरे गुजरात के दलितों ने मवेशियों की खाल उतारने से इनकार कर िदया और दलित आंदोलन ने जोर पकड़ लिया।
खिसारी गांव की सीमा दक्षिण पूर्वी गुजरात स्थित गीर राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव अभ्यारण्य की 16 फॉरेस्ट रेंज में एक दालखानिया रेंज से लगी हुई है। 12 सितंबर से 1 अक्टूबर के बीच मरने वाले 23 एशियाई शेरों का यह निवास स्थान था। क्या इस साल शेरों की मौतों और ग्रामीणों के बीच कोई संबंध है?
10 अक्टूबर की शाम इस रिपोर्टर ने अपनी आंखों से दालखानिया रेंज के पास एक सूखी नदी में गाय की लाश देखी थी। एक कुत्ता मरी उसे खा रहा था। खिसारी गांव के सरपंच हिम्मतभाई नारायणभाई बताते हैं, “गांव में कोई भी शख्स मरी गाय के व्यापार से नहीं जुड़ा है, इसलिए हमने वन विभाग से इसे हटाने को कहा। विभाग भी शेरों की मौत के बाद शवों को नहीं निपटा रहा है। इसलिए हम मरी हुई गाय को गांव के बाहर फेंक रहे हैं।”
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की जांच बताती है कि 23 में 21 शेर कैनाइन डिस्टेंपर नामक बीमारी से पीड़ित थे। बेहद संक्रामक और हवा से फैलने वाली यह बीमारी कैनाइन डिस्टेंपर वायरस (सीडीवी) के कारण होती है (देखें, घाव करें गंभीर)। यह बीमारी कुत्तों से मवेशियों और जलस्रोतों तक पहुंचती है और फिर शेरों को अपनी जद में ले लेती है। क्या शेरों की मौत की वजह सीडीवी से संक्रमित पशु हो सकते हैं जो वन अधिकारियों अथवा ग्रामीणों द्वारा शेरों को परोसे गए हों? जब डाउन टू अर्थ ने जूनागढ़ के मुख्य वन्यजीव संरक्षक डीटी वासवदा से संपर्क किया तो उन्होंने साफ कहा कि विभाग मरे हुए जानवर शेरों को कभी नहीं परोसता। उन्होंने बताया, “हम अपने रेस्क्यू सेंटर में मौजूद शेरों को ही भोजन खिलाते हैं और उनके लिए मांस जूनागढ़ के सक्करबाग चिड़ियाघर से आता है।” हालांकि ऐसे बहुत से संकेत हैं जो बताते हैं कि शेर मरे हुए जानवरों के जरिए सीडीवी के संपर्क में आए होंगे।
सितंबर महीने के मध्य में गीर के वन अधिकारियों को दालखानिया रेंज में एक मरी हुई भैंस मिली थी जो किलनी (टिक्स) से पीड़ित थी। सीडीवी के अलावा आईसीएमआर की जांच यह भी बताती है कि मरे हुए शेरों में छह शेर बेबसियोसिस से पीड़ित थे। यह बीमारी बेबसिया परजीवी से होती है। किलनी बेबसिया पैरासाइट के संवाहक के तौर पर जाने जाते हैं। अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के लायन रिसर्च सेंटर के निदेशक क्रेग पैकर बताते हैं, “सूखे के वक्त बेबसिया परजीवी प्रे जानवरों के माध्यम से शेरों तक पहुंचता है। सीडीवी प्रतिरोधी तंत्र को कमजोर बना देता है। अगर शेर बेबसिया संक्रमण के वक्त वायरस के संपर्क में आता है तो वह किलनी से पैदा हुए परजीवी द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है।”
नारायणभाई बताते हैं कि हालांकि गीर सूखे का सामना नहीं कर रहा है लेकिन इस साल असामान्य बारिश हुई है और हाल के दिनों में पानी की कमी देखी गई है। भारतीय पुलिस सेवा से सेवानिवृत अधिकारी आरडी झाला बताते हैं, “दालखानिया रेंज में स्थित जाब गांव में एक गोशाला है जहां बीमार पशुओं की देखभाल की जाती है। इसे चलाने वाले जानवरों को चरने के लिए उस क्षेत्र में खुला घूमने देते हैं जहां शेर मरे मिले थे। आशंका है कि इन बीमार पशुओं से सीडीवी शेरों तक पहुंचा होगा।”
शेर भी इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि गीर के आसपास के गांवों में मवेशी आसानी से मिल जाते हैं। महाराज कृष्णकुमार सिंहजी भावनगर यूनिवर्सिटी में जूलॉजी के सहायक प्रोफेसर चितरंजन दवे के अनुसार, “शेरों का 80 प्रतिशत भोजन मवेशी होते हैं। इन्हें मारना आसान होता है और इनमें मांस भी ज्यादा होता है।” वह बताते हैं, “शेरों के एक झुंड में 10 सदस्य ज्यादा से ज्यादा हो सकते हैं और इनके लिए हिरण का शिकार पर्याप्त नहीं होता। हिरण से करीब 100 किलो मांस निकलता है जबकि भैंस या गाय से 200 से 300 किलो मांस मिल जाता है।”
घाव करें गंभीर केनिन डिस्टेंपर वायरस बेहद संक्रामक विषाणु हैं जो विभिन्न प्रजाति के जीवों को बीमार करता है |
दालखानिया रेंज में शेरों की बहुलता का मवेशियों से सीधा संबंध है। जिस समूह के शेर मरे हैं, उसमें 26 सदस्य थे। झाला बताते हैं, “एक समूह के लिए यह बहुत बड़ी संख्या है। इससे पता चलता है कि इस एक इलाके में शेरों को पर्याप्त मात्रा में भोजन मिल रहा है। यहां शेरनी पांच या छह शावकों को जन्म देती है। जबकि आमतौर पर शेरनी दो से तीन शावकों को ही जन्म देती है।” दरअसल दालखानिया रेंज में अवैध पर्यटन के चलते शेरों को पर्याप्त भोजन मिलता है। निजी टूरिस्ट ऑपरेटर गीर के आसपास के गांवों में लॉयन शो अथवा शेरों की प्रदर्शनी आयोजित करते हैं। राजकोट स्थित गैर लाभकारी संगठन एशियाटिक लॉयन कंजरवेशन सोसाइटी से जुड़े कमलेश आधिया बताते हैं, “कोई भी रेंज में जा सकता है और बछड़ा खरीद सकता है। ग्रामीण यह सुनिश्चित करते हैं कि पर्यटक बछड़े को मारते हुए शेर को देख सके।” इसकी लागत करीब 5,000 रुपए आती है। यह वैध तरीके से दालखानिया में रेंज में 200 रुपए की टिकट से कहीं अधिक है लेकिन इससे शेर को एक्शन में देखा जाता है। इस लॉयन शो से भी शेर मवेशियों के संपर्क में आते हैं जो सीडीवी से संक्रमित हो सकते हैं।
जून में स्थानीय टीवी न्यूज चैनल संदेश के स्टिंग ऑपरेशन में लॉयन शो का खुलासा किया था। वीडियो में एक प्राइवेट गाइड यह कहता हुआ सुना जा सकता था कि शो वन विभाग की अनुमति से हो रहा है। स्टिंग के बाद राज्य सरकार ने जांच के आदेश दिए थे लेकिन जांच के नतीजे अब तक सामने नहीं आए हैं। अमरेली जिले के खिसारी गांव में रहने वाले सेवानिवृत पुलिस स्टेशन इंचार्ज काबावत भाई बताते हैं, “राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटन गतिविधियां केवल सासन रेंज में ही स्वीकृत है लेकिन अवैध पर्यटन अन्य रेंज में फल फूल रहा है।” अमरेली उन तीन जिलों में एक है जिसमें गीर राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव अभ्यारण्य फैला हुआ है। अन्य दो जिले सोमनाथ और जूनागढ़ हैं। नाम गुप्त रखने की शर्त पर एक वन अधिकारी ने बताया कि अगर कोई लॉयन शो करता हुआ पकड़ा जाता है तो 25,000 रुपए का जुर्माना है लेकिन फिर भी लोग इसे जारी रखते हैं।
आसपास के गांवों में शेरों के आने की एक वजह यह भी है कि उनकी आबादी बढ़ी है। गीर राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव अभ्यारण्य 1,412 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है। यह क्षे़त्र पूरी तरह संरक्षित है (भारत में चार तरह के संरक्षित क्षे़त्र होते हैं- राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य, कंजरवेशन रिजर्व और कम्यूनिटी रिजर्व)। लेकिन शेर 22,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में पाए जाते हैं जिसे एशियाटिक लॉयन लैंडस्कैप (एएलएल) कहते हैं। 2015 में जारी गुजरात सरकार की 14वीं लॉयन पॉपुलेशन एस्टीमेशन रिपोर्ट के अनुसार, एएलएल में शेरों की आबादी 27 प्रतिशत बढ़ी है। 2010 में 411 शेर थे जो 2015 में बढ़कर 523 हो गए। लेकिन यह वृद्धि एकतरफा है। दरअसल संरक्षित क्षेत्र में शेरों की आबादी 6 प्रतिशत (337 से 356) बढ़ी, वहीं दूसरी तरफ बाहरी क्षेत्र में उनकी संख्या अप्रत्याशित रूप से 126 प्रतिशत (74 से 167) बढ़ गई। मुंबई स्थित वन्यजीव विज्ञानी मीना वेंकटरमन ने डाउन टू अर्थ को बताया, “एक नर शेर को 85 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र की जरूरत होती है जबकि मादा की आवश्यकता 35 वर्ग किलोमीटर की होती है। ऐसे में अगर वर्तमान में हुई मौतों को ध्यान में रखा जाए तब भी गीर में करीब 500 शेर मौजूद हैं।”
कर्मचारियों की भारी कमी
एक तरफ जहां शेरों की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ वन विभाग में कर्मचारियों की कमी होती जा रही है। इस कारण देखभाल, संरक्षण और वनों का प्रबंधन प्रभावित हो रहा है। वन विभाग की वार्षिक रिपोर्ट 2016-17 के अनुसार, राज्य में 542 रेंज फॉरेस्ट ऑफिसर (आरएफओ) के पद हैं। इनमें केवल 51 प्रतिशत पद भरे गए हैं, वहीं 3,736 गार्ड की रिक्तियों में 70 प्रतिशत ही भरे हैं। इसी वित्त वर्ष में 90 आरएफओ या तो सेवानिवृत हो गए या उन्होंने परीक्षा पास करने और उप वन संरक्षक (डीएफसी) के पद पर पदोन्नति के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली। एक वन अधिकारी ने नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर बताया, “2014 से दालखानिया में नियुक्त आरएफओ या तो प्रोबेशन पर हैं या उन्होंने इस रेंज का अतिरिक्त प्रभार ले रखा है। जो लोग यहां नियुक्त हुए हैं वे भी कार्यालय में पढ़ाई करते हैं ताकि विभागीय परीक्षा देकर पदोन्नत हो सकें।”
फील्ड स्टाफ भी कहता है कि काम की स्थितियां बहुत मुश्किल हैं और वेतन पर समय पर नहीं मिलता। अमरेली जिले के वन मजदूर मंडल के प्रमुख भावगर गराजगर गोसांई कहते हैं, “मुझे तीन महीने से वेतन नहीं मिला है। हालांकि हमें स्थायी कर दिया गया है लेकिन विभाग कहता है कि जो लोग 15 साल से सेवा में हैं वही आवास और स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाओं का लाभ ले सकते हैं। अमरेली जिले में 750 मजदूर रोजामदार समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो वन विभाग के साथ काम करते हैं लेकिन उनमें से महज 10 लोगों को ही ये सुविधाएं मिलती हैं।” गीर के रोजामदार समुदाय के लोग वर्षों से लॉयन ट्रैकर की भूमिका निभाते आए हैं। वे बीमार और घायल शेरों की देखभाल करते हैं और वन विभाग के अधिकारियों की रोजमर्रा के कामों में मदद करते हैं। सभी जगह करीब 1500 रोजामदार हैं। गोसांई कहते हैं, “हमने अल्टीमेटम दे दिया है और अगर 15 दिनों में कुछ नहीं हुआ तो हम हड़ताल पर बैठ जाएंगे।”
सुरक्षा गायब
वन विभाग के पास उस सवालों के कोई जवाब नहीं हैं जो एएलएल में व्याप्त हैं। डाउन टू अर्थ ने 8 और 9 अक्टूबर को दालखानिया रेंज के वन कार्यालय का दौरा किया। कार्यालय देखने में एकदम सुनसान था और आरएफओ विभागीय प्रशिक्षण पर गए थे। एक रेंज जहां 23 शेर मर गए हों वहां गतिविधियां नजर आनी चाहिए। जसाधर रेंज का रेस्क्यू सेंटर गीर के आठ रेस्क्यू सेंटरों में एक है। सीडीवी से पीड़ित 23 शेरों में 13 को यहां इलाज के लिए लाया गया था। यहां आगंतुकों से मिलने से मना कर दिया गया। 10 अक्टूबर को जब डाउन टू अर्थ यहां पहुंचा तो यहां तैनात स्टाफ ने कहा, “सर यहां नहीं हैं।” गीर के तीन डिवीजनों में एक धारी डिवीजन के उप वन संरक्षक (डीएफसी) पी पुरुषोत्तम ने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया। उन्होंने 11 अक्टूबर को कहा, “मैं तुम्हें कुछ नहीं बता सकता, रेंज के आसपास स्थित राजस्व गांवों के बारे में भी नहीं क्योंकि सूचना मरे हुए शेरों से संबंधित है।”
गीर का मामला सुर्खियों में आने के बाद अधिकारी मीडिया से बात करने से कतरा रहे हैं। उन पर यह दबाव भी है कि वे शेरों को मरने से रोकने के लिए कदम उठाएं। 22 सितंबर से 1 अक्टूबर के बीच उन्होंने राष्ट्रीय स्तर की जांच टीमों को गीर प्राधिकरण की ओर से किए गए उपायों की जांच के लिए आमंत्रित किया था। इन टीमों दिल्ली के चिड़ियाघर, बरेली के इंडियन वेटेरिनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट, जूनागढ़ स्थित कॉलेज ऑफ वेटिरिनरी साइंस एंड एनिमल हस्बंडरी और गांधीनगर स्थित बायोटेक केयर सेंटर के सदस्यों के अलावा अन्य लोग शामिल थे।
विभाग ने सीडीवी से संभावित संक्रमित 30 शेरों भी को अलग कर दिया, 600 वन रक्षकों और स्वयंसेवकों की 140 टीमें बनाईं ताकि बीमार शेरों को पता लगाने के लिए जंगल को छाना जा सके। साथ ही साथ टीकाकरण के लिए सीडीवी एंटीवायरस, पोलिवेलेंट के 300 शॉट्स अमेरिका से खरीदे और क्षेत्र के सभी कुत्तों और पशुओं का टीकाकरण शुरू कर दिया। यह क्षेत्र एशियाटिक शेरों का एकमात्र प्राकृतिक आवास है फिर भी सरकार को अमेरिका से टीके मंगवाने पड़ रहे हैं। इन तमाम उपायों से यह स्पष्ट नहीं होता कि आखिर विभाग अब तक सीडीवी के प्रति उदासीन क्यों था। ऐसा तब है जब भारत और विश्व में इस बात के प्रमाण मिल चुके थे कि यह वायरस किस हद तक पशुओं को नुकसान पहुंचा सकता है। 1991-94 में सीडीवी ने तंजानिया के सेरेनगेटी नेशनल पार्क में 1,000 शेरों का मार दिया था। यह शेरों की करीब 30 प्रतिशत आबादी थी (देखें साक्षात्कार)। 1992 में सीडीवी अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित वाइल्डलाइफ वेस्टेशन में 17 शेरों, तेंदुओं, चीतों, बाघ और जगुआर की मौत की वजह बना था। गीर में भी 2007 में एक शेर पेस्ट देस पेटिट्स (पीपीआर) वायरस के संक्रमण से मर गया था। यह वायरस सामान्यत: गोट प्लेग के नाम से जाना जाता है।
दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संस्था वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के मुख्य पशुचिकित्सक एनवीके अशरफ बताते हैं, “भले ही गोट प्लेग और सीडीवी एक न हों लेकिन वे एक ही समूह मोरबिल्लीवायरस से हैं। इस वायरस समूह में सबसे खतरनाक विषाणु होते हैं जो सभी प्रजातियों को प्रभावित करते हैं। मनुष्यों को खसरा मोरबिल्लीवायरस संक्रमित करता है जबकि भेड़ और बकरियों में इसकी वजह पीपीआर मोरबिल्लीवायरस बनता है। व्हेल और डोल्फिन को सेटासिएन मोरबिल्लीवायरस प्रभावित करता है। दूसरे मोरबिल्लीवायरस के एंटीजेन (टॉक्सिन) के उपयोग से पशुओं में किसी मोरबिल्लीवायरस की प्रतिरक्षा जानी जा सकती है। उदाहरण के लिए मनुष्यों के मोरबिल्लीवायरस में न्यूक्लियर प्रोटीन सीडीवी के मुकाबले 65 प्रतिशत होता है।
अगर किसी शेर के शरीर में पीपीआर वायरस है तो सीडीवी को विकसित होने में अधिक समय नहीं लगेगा। गुजरात सरकार द्वारा इटावा सफारी पार्क को दिए गए शेर 2016 में सीडीवी से मर गए थे। इस तरह की घटनाओं को गीर प्रशासन को सतर्क हो जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जूनागढ़ में वन्यजीव के मुख्य वन संरक्षक डीटी वासवदा ने डाउन टू अर्थ को बताया कि सीडीवी के प्रत्याशित प्रकोप से गीर दूर रहा है। आखिर मृत शेरों को सीडीवी की जांच के लिए क्यों नहीं भेजा गया? यह सवाल पूछने पर अधिकारी कुछ नहीं बोलते।
वासवदा के अनुसार, पहला शेर 12 सितंबर को मरा था। लेकिन विभाग ने जांच के लिए नमूने 24 सितंबर को भेजे। नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक वन अधिकारी बताते हैं कि अगस्त के मध्य से सभी जानते थे कि शेरों की मौत सीडीवी से हुई है। उन्होंने डाउन टू अर्थ को 15 अगस्त को धारी डीसीएफ द्वारा सभी आरएफओ को जारी पत्र व्यवहार की प्रति भी दिखाई। इसमें कहा गया था कि उन शेरों का पता लगाया जाए जिन्हें सांस लेने में दिक्कत है, जिनके नाक और मुंह से स्रवण हो रहा है, जिन्हें भूख नहीं लगती और जो झुंड में पीछे रह जा रहे हैं। जब डाउन टू अर्थ संवाददाता ने वासवदा से इस पत्र व्यवहार के बारे में पूछा तो उन्होंने ऐसी जानकारी होने से इनकार कर दिया।।
“शेर सीडीवी के प्रति अधिक संवेदनशील” तंजानिया का नेशनल पार्क शेरों का मक्का है लेकिन यह त्रासदी से भी गुजरा है। 1994 में सीडीवी की चपेट में आकर 3,000 में से 1,000 शेर मारे जा चुके हैं। यह अब भी इस त्रासदी से उबर रहा है। हालांकि चार सालों में शेरों की संख्या बढ़ी है। सेरेनगेटी की त्रासदी गीर के लिए सबक है जो सितंबर में ऐसी ही परिस्थितियों से गुजरा है। अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा में लॉयन रिसर्च सेंटर के निदेशक क्रेग पैकर उस टीम में शामिल थे जिसने सेरेनगेटी अभ्यारण्य में सीडीवी के फैलाव को रोकने की दिशा में काम किया था। उन्होंने इस मामले में रजत घई से बातचीत की सेरेनगेटी में संक्रमण को कैसे नियंत्रित किया गया? |