दो साल पहले यूपी के नोएडा से नौकरी छोड़ खेेती-किसानी के लिए उत्तराखंड में अपने गांव लौटे सुधीर सुंदरियाल ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी सबसे बड़ी चुनौती साबित होंगे। पौड़ी जिले के डबरा गांव में आजकल वे अपनी खेती को जंगली सुअरों से बचाने में जुटे हैं। करीब 40 नाली जमीन के चारों तरफ बांस की बाड़ लगा चुके हैं और खेतों के चारों ओर पत्थरों पर सफेदी कराने जैसे तरीके आजमा रहे हैं। यह उत्तराखंड में पैदा एक नए संकट की देन है। सुधीर के मुतािबक, “इस इलाके में पहले कभी इतने जंगली सुअर नहीं रहे। इनके डर से लोगों ने दूरदराज खेतों में जाना छोड़ दिया है। पहले जंगली सुअर सिर्फ खेती को नुकसान पहुंचाते थे, लेकिन अब यह घर-आंगन तक पहुंचने लगे हैं। दिन में बंदर और रात में जंगली सुअरों ने किसानों की कमर तोड़ दी है।”
उत्तराखंड में आप किसी भी किसान से बात कीजिए, आमतौर पर इसी तरह की बातें सुनने को मिलेंगी। यही वजह है कि गत फरवरी में राज्य सरकार के आग्रह पर केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने उत्तराखंड में जंगली सुअरों को नाशक जीव घोिषत कर वन क्षेत्रों के बाहर इन्हें मारने की छूट दे दी है। लेकिन क्या वाकई राज्य में जंगली सुअरों की तादाद अचानक बढ़ी है? इस सवाल का जवाब न तो राज्य सरकार के पास है और न ही वन्यजीव विशेषज्ञ पुख्ता तौर पर कुछ कहने की स्थिति में हैं। सुधीर जैसे बहुत-से लोगों का दावा है कि जंगली सुअरों की आबादी और इनका आतंक बहुत हाल के वर्षों में बहुत बढ़ा है। हालांकि, पूर्व मुख्य वन संरक्षक श्रीकांत चंदोला जैसे लोग भी हैं जो बताते हैं कि पहाड़ में जंगली सुअर पहले भी रहे हैं, जिनसे बचने के लिए लोग गांव व खेतों के चारों ओर बड़ी-बड़ी दीवारें बनवाते थे। पहाड़ में कई जगह आज भी ऐसी दीवारें मौजूद हैं। उत्तराखंड सरकार भी जंगली सुअरों से बचाव के लिए कई जगह इस तरह की घेराबंदी करवा रही है। चंदोला कहते हैं, “जंगली सुअर जैसे ताकतवर जानवर को मारना आम लोगों के बूते की बात नहीं है। यह रात के समय आता है और फिर पहाड़ में कितने लोगों के पास लाइसेंसी बंदूकें हैं?” उत्तराखंड की दुर्गम परिस्थिितयों को देखते हुए बाड़बंदी जैसे उपाय भी कितने कारगर साबित होंगे, कहना मुश्किल है। लेकिन इस समस्या ने मानव-वन्यजीव संघर्ष से निपटने की सरकारी उपायों पर सवालिया निशान जरूर लगा दिए हैं।
जंगली सुअर को नाशक जीव घाेषित करने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो पता चला कि उत्तराखंड सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा या सर्वे नहीं है, जिससे साबित हो सके कि राज्य में जंगली सुअरों की तादाद बहुत बढ़ी है। राज्य के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक डीवीएस खाती ने डाउन टू अर्थ को बताया कि अब जंगली सुअरों की आबादी का पता लगाया जा रहा है। वर्ष 2014 की टाइगर गणना में जंगली सुअर शामिल नहीं थे। मगर वन विभाग को बड़ी संख्या में जंगली सुअर द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाने की शिकायतें मिली हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2005 और 2008 में हुई वन्यजीव गणना में राज्य में जंगली सुअरों की तादाद 32613 से बढ़कर 34914 होने की पुिष्ट होती है। लेिकन इसके बाद की जानकारी नहीं है। पहाड़ में जंगली सुअरों के आतंक की सबसे ज्यादा मार यहां के सामािजक-आिर्थक जीवन की धुरी यानी महिलाओं पर पड़ रही है। अल्मोडा जिले में महिला एकता परिषद से जुड़ी 70 गांवों की महिलाओं ने ऐलान किया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वे उसी उम्मीदवार को वोट देंगी, जो उन्हें जंगली जानवरों से बचाने का भरोसा दिलाएगा। इस मुद्दे पर जगह-जगह पदयात्राएं निकाली जा रही हैं। संस्था की सचिव मधुबाला कांडपाल कहती हैं कि उनके बुजुर्गों ने कभी इतने जंगली सुअर और ऐसे हिंसक बंदर नहीं देखे थे। घर से निकलना मुश्किल हो गया है। लोग गांव और खेती छोड़कर पलायन को मजबूर हैं। जंगली सुअरों की वजह से वे कई खेतों में फसलें नहीं ले पा रही हैं। मडुवा, आलू, गहत, बाजरा, गेहूं जैसी फसलों को बहुत नुकसान पहुंच रहा है।
हालांकि, 86 फीसदी पर्वतीय और 65 फीसदी वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष कोई नई बात नहीं है। लेकिन जंगली सुअर इस संघर्ष में एक नया आयाम हैं, जिनके कारण इंसान, जानवर, खेतीबाड़ी असुरक्षित है। राज्य सरकार और राजनैतिक दलों को भी इस मामले के तूल पकड़ने का आभास होने लगा है। पिछले दिनों उत्तराखंड सरकार ने जंगली जानवरों के हमले में मृत्यु होने पर मुआवजे की रकम तीन से बढ़ाकर छह लाख रुपये करने जैसे कई बड़े ऐलान िकए है। लेिकन जानवरों को मारने की छूट और पीड़ितों का मुआवजा बढ़ाने के बीच कई सवाल अनसुलझे रह गए हैं।
देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के वैज्ञानिक बिवास पांडव का कहना है कि उत्तराखंड में जंगली सुअरों के बारे में गंभीर अध्ययन की जरूरत है। यह दुनिया में सर्वाधिक विस्तृत रूप से पाए जाने वाले जानवरों में से एक है। बिवास मानते हैं कि पहाड़ में पहले भी जंगली सुअर पाए जाते थे। हो सकता है कि कुछ क्षेत्रों में आजकल ये ज्यादा दिखाई देने लगे हों। ऐसा वन क्षेत्रों में बढ़ती गतिवििधयों के कारण भी संभव है। लेकिन फिलहाल कहना मुश्किल है कि राज्य में जंगली सुअरों की तादाद बढ़ी है अथवा नहीं!
वैसे यूरोप में जलवायु परिवर्तन के चलते जंगली सुअरों की आबादी बढ़ने के प्रमाण मिले हैं। वियना की यूनिवर्सिटी ऑफ वेटरनरी मेिडसिन के वैज्ञानिकों ने पाया कि सर्दियों में ठंड कम पड़ने के बाद जंगली सुअरों की तादाद तेजी से बढ़ी है। पिछले साल प्लोस वन जर्नल में प्रकािशत इस शोध में यूरोप के 12 देशों में जंगली सुअरों की आबादी में वृद्धि की तुलना तापमान के आंकड़ों से की गई है। शोध के मुताबिक, हल्की ठंड वाली सर्दियों के बाद जंगली सुअरों की तादाद तेजी से बढ़ी है। अधिक ठंड में शरीर को ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती है और प्रजनन के लिए कम ऊर्जा बचती है। अिधक ठंड में बहुत से नवजात सुअर मर भी जाते हैें जबकि हल्की ठंड में ज्यादा बच्चे जीवित रहते हैं। जैसे-जैसे सर्दियां कम ठंडी हो रही हैं, वैसे-वैसे जंगली सुअरों की तादाद बढ़ती जा रही है।
फ्रेंड्स ऑफ हिमालय संस्था से जुड़े प्रेम बहुखंडी बताते हैं कि गत अगस्त में पौड़ी जिले के नौगाऊं में उनकी एक रिश्तेदार को जंगली सुअर ने हमला कर मार दिया था। जबकि उस इलाके में पहले कभी जंगली सुअरों का इतना आंतक नहीं रहा। बहुखंडी भी जंगली सुअरों की बढ़ती तादाद को जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखते हैं। उनका कहना है कि इनका असर पूरी जैव-विविधता पर पड़ रहा है। जंगली सुअरों के डर से किसानों ने कई तरह की दालें और मोटे अनाज उगाना बंद कर दिया है। खेती का पैटर्न बदलने रहा है।
जीबी पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवारनमेंट एंड सस्टेनेबल डेवलमेंट के वैज्ञानिक आरसी सुंदरियाल भी मानते हैं कि उत्तराखंड में जंगली सुअर बहुत बड़ी समस्या बन चुके हैं। वह कहते हैं, “उनका पूरा बचपन पहाड़ में बीता लेकिन उन्होंने पहले कभी जंगली इतने सुअर न देखे, न सुने।” सुंदरियाल के अनुसार, गीदड़ और लोमड़ी की घटती संख्या के कारण भी जंगली सुअरों की तादाद बढ़ सकती है। ऐसे जानवर सुअर के बच्चों को खा जाते थे, जिससे इनकी आबादी पर अंकुश रहता था। लेकिन अब गीदड़ और लोमड़ियां बहुत कम बची हैं।
इस बात से डब्ल्यूआईआई के वैज्ञानिक बिवास पांडव भी सहमत हैं कि जंगली सुअरों की तादाद अचानक बहुत अधिक बढ़ती या घटती है। लेकिन अभी इस मुद्दे को समझने में समय लगेगा। तब तक उत्तराखंड की महिलाओं और किसानों का यह संघर्ष जारी रहेगा, जिसका उपाय न तो बंदूक की गोली है और न ही सरकारी मुआवजा।
(सितंबर 2017 में डाउन टू अर्थ पत्रिका में प्रकाशित)