पहाड़ों में वन्य जीवों के कारण खत्म होती खेती को बचाने के लिए यहां के कुछ युवाओं ने एक अभिनव प्रयास शुरू किया है और इसे नाम दिया है ‘बीज बम’। इस प्रयास को पूरे पर्वतीय क्षेत्र में लोगों की आदतों में शामिल करके इसे एक आंदोलन का रूप देने की तैयारी में जुटे ये युवा फिलहाल आगामी 25 से 31 जुलाई तक पूरे उत्तराखंड और कुछ अन्य राज्यों में कई जगहों पर ‘बीज बम सप्ताह‘ मनाने की तैयारी में जुटे हुए हैं। हिमालयन पर्यावरण जड़ी-बूटी एग्रो संस्थान (जाड़ी) के बैनर तले फिलहाल 40 युवा इस अभियान में सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं, जबकि राज्यभर में 500 से ज्यादा अन्य लोग अभियान में सहयोग कर रहे हैं। अब तक यह प्रयास पूरी तरह से सफल रहा है।
बीज बम अभियान के प्रणेता द्वारिका प्रसाद सेमवाल कहते हैं कि यह कोई नई खोज नहीं है। जापान और मिश्र जैसे देशों में यह तकनीकी सीड बॉल के नाम से सदियों पहले से परंपरागत रूप से चलती रही है। इसे बीज बम नाम इसलिए दिया गया है ताकि इस तरह के अटपटे नाम से लोग आकर्षित हों और इस बारे में जानने का प्रयास करें। यह नामकरण अपने उद्देश्य में पूरी तरह से सफल रहा है। द्वारिका सेमवाल कहते हैं कि यह एक शून्य बजट अभियान है। इसमें मिट्टी और गोबर को पानी के साथ मिलाकर एक गोला बना दिया है और स्थानीय जलवायु और मौसम के अनुसार उस गोले में कुछ बीज डाल दिये जाते हैं। इस बम को जंगल में कहीं भी अनुकूल स्थान पर छोड़ दिया जाता है। वे कहते हैं कि इस अभियान की शुरुआत उन्होंने उत्तरकाशी जिले के कमद से की थी। पहला ही प्रयास सफल रहा। यहां कद्दू आदि बेल वाली सब्जियों के बीजों का इस्तेमाल किया गया था। कुछ समय बाद बेलें उगी और खूब फैली। हालांकि फलने से पहले ही जानवरों ने इनके फूल खा लिये फिर भी कम से कम एक दिन का आहार तो उन्हें जरूर मिला। वे कहते हैं कि बड़ी संख्या में ऐसा किया जाए तो वन्य जीवों को फूल खाने की नौबत नहीं आएगी।
सेमवाल के अनुसार कृषि वैज्ञानिक फसलों को वन्य जीवों से बचाने के लिए ऐसी फसलें उगाने की सलाह देते हैं, जिन्हें वन्य जीव न खाते हों या फिर इलेक्ट्रिक फेंसिंग करने की सलाह देते हैं। लेकिन, जंगलों में खाद्य श्रृंखला तैयार की जाए तो परंपरागत फसलों को भी वन्य जीवों से बचाया जा सकता है। वे बीज बम में अल्पकालीन और दीर्घकालीन दोनों तरह के बीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं। अल्पकालीन बीजों में कद्दू, मटर, लौकी, मक्का जैसी मौसमी सब्जियों और अनाजों के बीज शामिल हैं, जो एक या दो महीने में खाने के लिए तैयार हो जाते हैं। दीर्घकालीन बीजों में स्थानीय जलवायु के अनुसार आम, आड़ू, शहतूत, सेब, नाशपाती आदि के बीज शामिल किये जा रहे हैं।
द्वारिका सेमवाल के अनुसार अब तक वे 100 से ज्यादा जगहों पर यह प्रयोग कर चुके हैं और कुछ जगहों को छोड़कर सभी जगह प्रयोग सफल रहा है। हालांकि कई जगह यह भी देखा गया कि अंकुर फूटते ही बंदर आदि जानवर उन्हें खा जाते हैं, लेकिन जब यह लोगों की आदत में शुमार हो जाएगा और बड़े पैमाने पर ऐसा होने लगेगा तो वन्य जीवों को अंकुर खाने की जरूरत नहीं होगी। वे कहते हैं पिछले कई सालों से सरकारी विभाग और सैकड़ों एनजीओ वृक्षारोपण कर रहे हैं, लेकिन यदि वृक्षारोपण अभियान 5 प्रतिशत भी सफल होते तो आज देशभर में घने जंगल होते, इस स्थिति को देखते हुए बिना किसी बजट वाला बीज बम अभियान सबसे ज्यादा कारगर साबित हो सकता है।
रुद्रप्रयाग जिले में मशरूम उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाली रंजना रावत इस अभियान से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। वे कहती हैं कि शुरुआती दौर में हमारा लक्ष्य बंदर, लंगूर और सूअर जैसे वन्य जीव हैं, जो पहाड़ों में खेती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। इन जानवरों को जंगलों में ही मौसमी सब्जियां आदि मिल जाएं तो वे रिहायशी इलाकों में नहीं आएंगे। दीर्घकाल के लिए भालू, गुलदार और टाइगर जैसे हिंसक जानवर भी हमारा लक्ष्य हैं। रंजना के अनुसार जंगलों में बड़े पैमाने पर हरी शाक-सब्जियां होंगी तो हिरन आदि शाकाहारी जीव बढ़ेंगे और इस तरह से गुलदार और टाइगर जैसे वन्य जीवों को रिहायशों में आने की जरूरत नहीं पड़ेेगी। चमोली में बीज बम अभियान के कार्यकर्ता जगदम्बा मैठाणी कहते हैं कि कुछ लोग यह भी सवाल उठाते हैं कि खेतों में होने वाले फल-सब्जियां जंगलों में कैसे हो सकते हैं। वे कहते हैं मौसम सब्जियां जंगलों में उगाने का प्रयास सफल हो चुका है और कई जगहों पर फलदार पेड़ भी उगने लगे हैं। जगदम्बा कहते हैं इस तरह की आशंका बेमानी है, दरअसल हम आज जिन फलों और अनाजों को खेतों मेें उगाते हैं वे जंगलों से ही हमारे खेतों में आये हैं।
शुरुआती प्रयासों से संतुष्ट युवाओं की यह टीम अब बीज बम अभियान सप्ताह मनाने की तैयारियों में जुटी है। यह सप्ताह उत्तराखंड के कई जिलों के साथ की उन राज्यों में भी मनाया जा रहा है, जहां इन टीम के सदस्यों के संपर्क वाले लोग रह रहे हैं। अभियान में महिलाओं और स्कूली बच्चों को खासतौर से जोड़ा जा रहा है। 300 से ज्यादा ग्राम पंचायतों और करीब 200 स्कूलों ने अब तक इस अभियान में शामिल होने की संस्तुति दे दी है।