बेतहाशा बढ़ती खेती 90 प्रतिशत से अधिक जंगलों के काटे जाने के लिए जिम्मेवार है: अध्ययन

अध्ययन में खुलासा किया है कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में 90 से 99 प्रतिशत जंगलों के काटे जाने के पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि जिम्मेदार होती है।
बेतहाशा बढ़ती खेती 90 प्रतिशत से अधिक जंगलों के काटे जाने के लिए जिम्मेवार है: अध्ययन
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एक नए अध्ययन में खुलासा किया है कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में 90 से 99 प्रतिशत जंगलों के काटे जाने के पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि जिम्मेदार होती है। जबकि इसके केवल आधे से दो-तिहाई बिना पेड़ों वाली भूमि का खेती के लिए विस्तार हो रहा है।

यह अध्ययन दुनिया के कई प्रमुख जंगल विशेषज्ञों के सहयोग से किया गया है। यह जंगलों के काटे जाने और खेती के बीच जटिल संबंधों का एक नया संकलन प्रदान करता है। जंगलों के नुकसान को कम करने के लिए किए जा रहे वर्तमान प्रयासों के संबंध में अपने सुझाव सामने रखता है।

अध्ययनकर्ता ने बताया कि उपलब्ध आंकड़ों की समीक्षा के बाद, नए अध्ययन से पता चलता है कि कृषि की वजह से उष्णकटिबंधीय जंगलों के काटे जाने की मात्रा 80 प्रतिशत से अधिक है, जो पिछले एक दशक में दर्ज सबसे अधिक है।

कॉप 26 में वनों पर ग्लासगो घोषणा के बाद और इस वर्ष के अंत में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन (कॉप 15) से पहले यह मुद्दा एक महत्वपूर्ण समय पर सामने आया है। यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है कि जंगलों के काटे जाने से निपटने के तत्काल प्रयासों के आधार पर उनका मूल्यांकन किया जा सकता है।

स्वीडन के चल्मर्स यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के प्रमुख अध्ययनकर्ता फ्लोरेंस पेंड्रिल कहते हैं कि हमारी समीक्षा स्पष्ट करती है कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में 90 से 99 प्रतिशत जंगल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि की वजह से काटे जाते हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि जगलों का काटा जाना तुलनात्मक रूप से छोटा 45 से 65 प्रतिशत के बीच का हिस्सा है। बिना पेड़ों वाली भूमि पर वास्तविक कृषि उत्पादन का विस्तार हो रहा है। यह खोज जंगलों को काटे जाने को कम करने और सतत ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के लिए प्रभावी उपायों को अपनाने का पक्षधर है।

अब यह बात जग जाहिर हो चुकी है कि कृषि उष्णकटिबंधीय जंगलों के काटे जाने की मुख्य वजह है। हालांकि, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कितने जंगल कृषि भूमि में परिवर्तित हो गए हैं, इसके पिछले अनुमान काफी अलग-अलग हैं 2011 से  2015 के बीच यह 43 से 96 लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष था।

अध्ययन के निष्कर्ष इस सीमा को 64 से 88 लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष तक सीमित कर देते हैं जो संख्याओं में अनिश्चितता की बात करता है।

अध्ययन से स्पष्ट है कि गहन रूप से उत्पादन करने वाली कृषि भूमि से जुड़े अधिकांश जंगलों की कटाई के लिए मुट्ठी भर वस्तुएं जिम्मेदार हैं, जिनमें से आधे से अधिक अकेले चरागाह, सोया और ताड़ के तेल से जुड़ी हैं। 

स्टॉकहोम पर्यावरण संस्थान के डॉ टोबी गार्डनर ने कहा कि जंगलों को काटे जाने से निपटने के लिए इलाके आधारित पहल महत्वपूर्ण हो सकती है। उपभोक्ता बाजारों में जंगलों के काटे जाने से जुड़ी वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंधित लगाने के लिए नए उपाय करना इसमें शामिल है। इन उपायों में दुनिया के विभिन्न देशों के बीच बातचीत कर जंगलों को काटे जाने से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर स्वैच्छिक प्रयास महत्वपूर्ण हो सकते हैं।

डॉ. गार्डनर ने कहा कि अध्ययन से पता चलता है, उत्पादक देशों में जंगल और भूमि उपयोग संबंधी नियमों को सख्त बनाना किसी भी नीति प्रतिक्रिया का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। आपूर्ति श्रृंखला और मांग पक्ष उपायों को इस तरह से डिजाइन किया जाना चाहिए जो अप्रत्यक्ष तरीकों से भी निपट जाए।

जो कृषि जंगलों की कटाई से जुड़ी हुई है उन्हें सतत ग्रामीण विकास में सुधार लाने की जरूरत है, अन्यथा कई जगहों पर जंगलों की कटाई की दर बहुत अधिक हो सकती हैं।

अध्ययन के निष्कर्ष उत्पादक और उपभोक्ता बाजारों और सरकारों के बीच वास्तविक साझेदारी को चलाने में मदद करने के लिए विशिष्ट वस्तुओं और खतरों के प्रबंधन पर गौर करने की ओर इशारा करते हैं। इसमें प्रोत्साहन आधारित उपायों को शामिल करने की आवश्यकता है जो स्थायी कृषि को आर्थिक रूप से आकर्षक बनाते हैं। 

अंत में अध्ययन तीन महत्वपूर्ण कमियों पर प्रकाश डालता है जहां जंगलों के काटे जाने को कम करने के लिए बेहतर प्रयासों के लिए एक मजबूत साक्ष्य की आवश्यकता होती है।

पहला यह है कि दुनिया भर में जंगलों के काटे जाने और अस्थायी रूप से सुसंगत आंकड़ों के बिना सही रुझानों तक नहीं पहुंचा जा सकता है। दूसरा यह है कि पाम तेल और सोया को छोड़कर, हमारे पास विशिष्ट वस्तुओं की बढ़ती मांग को लेकर आंकड़ों की कमी है।

तीसरा यह है कि हम वास्तव में उष्णकटिबंधीय शुष्क जंगलों और अफ्रीका में जंगलों के बारे में तुलनात्मक रूप से बहुत कम जानते हैं।

प्रो. पर्सन ने कहा की समस्या को देखते हुए सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि इनमें से प्रत्येक साक्ष्य की कमी सबसे प्रभावी तरीके से वनों की कटाई को कम करने की हमारी क्षमता के लिए महत्वपूर्ण अवरोध पैदा करता है।

इन जानकारी की कमियों और शेष अनिश्चितताओं के बावजूद, अध्ययन इस बात पर जोर देता है कि जंगलों को काटे जाने और अन्य पारिस्थितिक तंत्रों के बदलने को प्रभावी ढंग से रोकने और स्थायी ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के लिए प्रयासों में एक तत्काल बदलाव की आवश्यकता है।

वनों पर ग्लासगो घोषणा ने जलवायु और जैव विविधता के नुकसान का संयुक्त रूप से संज्ञान लेने और जंगलों को काटे जाने से निपटने और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने के लिए नए लक्ष्य स्थापित किए हैं।

अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि यह सबसे अच्छा यह है कि हम अलग-अलग देशों को देखना शुरू करें और नीति निर्माता इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्राथमिकता दें। यह अध्ययन साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

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