मध्यप्रदेश में सूने खड़े पलाश के पेड़। फोटो: मनीष चंद्र मिश्र
मध्यप्रदेश में सूने खड़े पलाश के पेड़। फोटो: मनीष चंद्र मिश्र

इस बार क्यों नहीं खिला मध्यप्रदेश का राज्य पुष्प पलाश?

होली बीत गई, लेकिन मध्यप्रदेश में पलाश के पेड़ सूने रह गए, जो सामान्यतः मार्च के महीने में होली से कुछ दिन पहले ही पलाश के रंगीन फूलों से लद जाते थे
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ऋतुराज वसंत के स्वागत में मध्यप्रदेश के जंगल इस साल तैयार नहीं दिख रहे हैं। जो जंगल होली के समय रंग-बिरंगे फूलों से लदे होते थे, सूने पड़े हैं। जंगल में खिलने वाले सेमल और पलाश के फूल कहीं नजर नहीं आ रहे। बदले मौसम का सबसे अधिक असर पलाश के फूलों पर हुआ है। मध्यप्रदेश का राज्य पुष्प अमूमन होली के समय अपने शबाब पर होता था, लेकिन इसबार सतपुरा से लेकर विंध्यांचल के जंगल तक सूने दिख रहे हैं। विशेषज्ञ इसकी वजह असामान्य मौसम को मान रहे हैं और इसे गंभीर जलवायु परिवर्तन का संकेत भी बता रहे हैं।

वरिष्ठ मौसम विज्ञानी और मौसम विज्ञान केंद्र भोपाल के पूर्व डायरेक्टर डॉ. डीपी दुबे ने डाउन टू अर्थ के साथ बातचीत में बताया कि इस वर्ष फूलों को खिलने लायक गर्मी नहीं मिल पा रही है। पश्चिमी विक्षोभ की वजह से मौसम में अब भी ठंडक है और अब जाकर गर्मी शुरू हुई है। फुलों को खिलने के लिए हल्की गर्मी चाहिए। डॉ. दुबे के मुताबिक इसकी दो वजह हो सकती है, पहली असामान्य मौसम की घटना और दूसरी जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम का असामान्य होना।

पूर्व वन अधिकारी और पर्यावरणविद् डॉ. सुदेश वाघमारे कहते हैं कि फूल न आने की वजह हवा और मिट्टी में नमी का मौजूद होना है। उन्होंने बताया कि वन विभाग में रहते उन्होंने एक परिक्षण किया था जिसमें पलाश के वृक्ष को वर्षभर पानी देते रहे थे। उस वर्ष उस पेड़ में देरी से फूल खिले थे। डॉ. वाघमारे मानते हैं कि पिछले वर्ष मध्यप्रदेश में सामान्य से अधिक बारिश हुआ जिस वजह से धरती में नमी है। पलाश के खिलने लायक माहौल गर्मी बढ़ने के साथ तैयार होगा।  

पलाश में अमूमन फरवरी के अंत तक फूल आते हैं और जून तक इसके बीज तैयार हो जाते हैं। होली के समय इन फूलों को चुनकर इससे प्राकृतिक रंग बनाया जाता है। पलाश के फूल चुनकर आदिवासी बाजार में बेजते हैं। इसके अलावा फूलों की डाल पर लाह नामक पदार्थ भी इकट्ठा होता है जिसकी बाजार में कीमत 300 से 400 रुपए किलो हो। इसका उपयोग गहने बनाने और दवा उद्योग में होता है।

पलाश के फूल को हिंदी और अंग्रेजी साहित्य में कवियों ने जंगल के आग की संज्ञा दी है। इस मौसम सूर्ख लाल, केसरिया और सफेद रंग के ये फूल पूरे जंगल में आग की तरह फैल जाते हैं। विभिन्न भाषाओं में पलाश को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इसे हिंदी में टेसू, केसू, ढाक या पलाश, गुजराती में खाखरी या केसुदो, पंजाबी में केशु, बांग्ला में पलाश या पोलाशी, तमिल में परसु या पिलासू, उड़िया में पोरासू, मलयालम में मुरक्कच्यूम या पलसु, तेलुगु में मोदूगु, मणिपुरी में पांगोंग, मराठी में पलस और संस्कृत में किंशुक नाम से जाना जाता है। 

पूरे देश में पलाश के फूलों पर असर

पूरे देश में इस फूल के खिलने में असमानता देखी जा रही है। उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र ने दो साल पहले इस फूल पर बदलते मौसम के असर को एक शोध कर जाना था। शोध में सामने आया कि पिछले पांच वर्षों में पहाड़ के जंगलों में बुरांश, पलाश और किलमोड़ा में समय से पहले फूल आ रहे हैं। पलाश (ढाक या टिशू) के पेड़ों पर फूल फरवरी-मार्च में खिलते थे, लेकिन अब जनवरी में ही पलाश के पेड़ फूलों से लदे नजर आने लगे हैं। इस शोध में पलाश के अस्तित्व पर संकट को लेकर कई खतरनाक परिणाम सामने आए। शोध के मुताबिक साल 2015 से 2017 में जिन पेड़ों पर समय से पहले फूल आए, उन पर इनके बीज में बीजाणु नहीं बन पा रहे हैं। इससे इन प्रजातियों में बीज से नए पौधे पनपने की क्षमता खत्म हो रही है। यही क्रम चलता रहा तो ये प्रजाति विलुप्त भी हो सकती है।

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