पद्मश्री पाने के बाद क्यों बढ़ गई इन आदिवासियों की आर्थिक बदहाली?

आदिवासी वर्ग को पद्मश्री तो मिल जाता है, लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से इसके बाद उनकी परेशानियां बढ़ जाती हैं
सिमोन उरांव को वर्ष 2016 में पद्मश्री पुरस्कार मिला था। फोटो: मो. असगर खान
सिमोन उरांव को वर्ष 2016 में पद्मश्री पुरस्कार मिला था। फोटो: मो. असगर खान
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लोक गायक और गीतकार मधु मंसूरी हसमुख बीते सप्ताह ही राष्ट्रपति भवन में आयोजित सम्मान समारोह से सम्मानित होकर झारखंड की राजधानी रांची लौटे हैं। लोक गीतों से जरिए समाज में सामाजिक और संस्कृतिक चेतना जगाने के लिए भारत सरकार ने मधु मंसूरी हसमुख को 2020-21 के पद्मश्री से सम्मानित किया है।

रांची मुख्यालय से करीब दस किलोमीटर दूर रातू प्रखंड के सिमलिया गांव में उनका घर है। जब से वह लौटे हैं, तब से ही उनके घर पर मुबारकबाद देने वालों को तांता लगा हुआ है। पद्मश्री को लेकर वो अपनी खुशी जाहिर करते हुए कहते हैं कि घर पर हर आने-जाने वालों को बिना नाश्ता-पानी कराए नहीं जाने दे रहे हैं।

उनके मुताबिक यह सिलसिला अभी लंबा चलेगा, जिसे अपने खर्च से ही उन्हें वाहन करना है। क्या इन वजहों से आपकी आर्थिक परेशानी पहले तुलना में बढ़ेगी? तो इसके जवाब में कहते हैं, उन्हें नहीं पता, लेकिन फिलहाल तो उनका खर्च बढ़ गया है।

मधु मंसूरी हसमुख मुस्लिम समुदाय के पिछड़ी जाति से आते हैं और उनके परिवार की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। झारखंड से जिन दो हस्तियों पद्मश्री 2020-21 से सम्मानित किया गया है, उसमें सरायकेला खरसावां के छऊ गुरू शशधर आचार्य भी शामिल हैं।

खैर, पद्मश्री मिलने के बाद इनका आर्थिक बोझ कितना बढ़ा है या बढ़ेगा, इसका आकलन एक महीने या एक साल में तो नहीं किया जा सकता है, लेकिन बीते पांच साल या उससे भी पूर्व में जिन आदिवासी-दलित को पद्मश्री मिला है उनके उपर आर्थिक बोझ बढ़ गया है। उन्हीं लोगों में पद्मश्री सिमोन उरांव शामिल हैं। 

रांची से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेड़ो बजार है, जहां 88 साल के पद्मश्री सिमोन उरांव, पत्नी विरजिनिया उरांइन (78) और पोती एंजेला (24) के साथ खैपरैल मकान में रहते हैं।

भारत सरकार ने इन्हें 2016 में जल, जंगल के संरक्षण के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया था, लेकिन इस सम्मान के बाद भी सरकार की उदासीनता का शिकार इनका पूरा परिवार रहा। आर्थिक बदहाली के आगे मजबूर होकर इनके बेटों को मजदूरी और पोतियों को दूसरों के यहां झाड़ू-पोछा तक करना पड़ रहा है। 

हालांकि इस आशय के समाचार छपने के बाद जो तब्दीली आई, उसमें सिमोन उरांव को कुछ माह से उम्र के इस पड़ाव में वृद्धा पेंशन मिलनी शुरु हो गई है। जबकि प्रधानमंत्री  आवास योजना के तहत मकान बनने की प्रक्रिया भी शुरू हुई है, लेकिन उनके जीवन में आर्थिक तंगी अब भी बरकाकार है।

वो कहते हैं “हम तो पहले ही आर्थिक तंगी झेल रहे थे, लेकिन जब पद्मश्री दिया उसके बाद से बोझ और बढ़ गया. हमको तो खाली मेडल मिला और प्रशस्ति पत्र। इसके बाद से सब लोग घर आते हैं। बुलावा भी आता है। जहां अपने खर्च पर जाना पड़ता है। कभी उद्घाटन करने, कभी स्कूल-कॉलेज. रोज सब भेंट करने आता है. चार किलो हफ्ता में चीनी खत्म हो जाता है मेरा है.

सिमोन उरांव बताते हैं कि उन्होंने पद्मश्री लेने से मना कर दिया था। उनका तर्क था कि पद्मश्री से पेट नहीं भरेगा। फिर उन्हें इसे लेने के लिए समझाया गया तब जाकर वो मानें। सिमोन उरांव को जल पुरूष की उपाधि दी गई है। उन्होंने पर्यावरण को बचाने में पांच दशक से भी अधिक समय लगा दिया है। इनपर कई डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनी है और रिसर्च करने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं। फिलहाल वो जड़ी-बूटी से लोगों का उपचार करके अपना परिवार चला रहे हैं.

इसी तरह रांची के चुटिया में रहने वाले 72 साल के झारखंडी लोक गायक और नर्तक मुकुंद नायक को कला के क्षेत्र में 2017 में पद्मश्री मिला चुका है। वह कहते हैं, “पद्मश्री मिलने के बाद सरकारी, गैरसरकारी निमंत्रण खूब बढ़ा है। लोग निमंत्रण तो भेज देते हैं, लेकिन कैसे जाएंगे, पहुंचेंगे, कैसे खाएंगे, कैसे लौटेंगे, घर की स्थिति क्या है, इस पर कोई बात नहीं करता। पद्मश्री देते वक्त दिल्ली आने-जाने, खाने और वहां ठहरने का खर्च दिया गया था, लेकिन उसके बाद कुछ नहीं मिला।

कुछ सरकारी कार्यक्रमों के निमंत्रण को छोड़ दें तो अधिकतर कार्यक्रम में अपना खर्च करके ही जाना पड़ता है। सम्मान मिलना चाहिए, लेकिन सम्मान के अनुरूप सरकार के तरफ से को आर्थिक सहयोग की व्यवस्था भी होनी चाहिए।”

पूर्वी सिंहभूम जिले के चाकुलिया प्रखंड की रहने वाली 40 वर्षीय जमुना टुडू को देश-दुनिया में भर में लोग लेडी टार्जन के नाम से जानते हैं। ये बीस साल से जंगलों के संरक्षण और जंगल माफिया से बचाने में लगी हुई हैं। इन्हें जंगलों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था, लेकिन यह कहती हैं कि सस्मान तो मिला पर सहयोग नहीं मिलता है।

जमुना टुडू बताती हैं, “ज्यादातर कार्यक्रम में हमें अपना ही खर्चा लगाकर ही जाना पड़ता है. पद्मश्री मिला है तो जाना पड़ेगा ही कार्यक्रम में। नाम, सम्मान मिल जाता है लेकिन सरकार की तरफ से कोई सहयोग नहीं मिलता है।

रांची से लगा बंगाल का पुरूलिया जिला है। इस जिले के बाघमुंडी थाना में चोड़दा गांव है जहां के रहने वाले गंभीर सिंह मुंडा को कला के क्षेत्र में 1981 में पद्मश्री सम्मान मिला था। इनके बारे में मुकुंद नायक का कहना है कि वो पैसे पैसे को मोहताज थे और पैसे अभाव ही उनका सही से इलाज नहीं हो पाया, जिससे उनकी मौत हो गई। 61 वर्षीय उनके बेटा कार्तिक सिंह मुंडा कहते हैं, “हमारे पिता की आंख खराब हो गई थी। उसका इलाज के लिए भी पैसा नहीं था। उनको वृद्धपेंशन तक नहीं मिलता था। पैसे के अभाव में इलाज नहीं हो पाया.” गंभीर सिंह मुंडा आदिवासी समुदाय से आते थें, जिनका 72 साल की उम्र में निधन हो गया।

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