जहां पेड़ों ने मनाई दीवाली
अमेरिका में अक्तूबर के महीने में ऐसा लगता है जैसे बड़े बड़े पेड़ और वृक्ष दीवाली मना रहे हों! सितम्बर से पेड़ों के पत्ते अपना रंग बदलने लगते हैं। लेखकों, कवियों ने "फॉल" अथवा इस रंगबिरंगे पतझड़ पर बहुत सी टिपण्णियां की हैं। किसी पेड़ पर पत्ते धीरे धीरे लाल होते हैं, तो उसी जगह एक प्रजाति के छोटे पेड़ पूरी तरह लाल हो जाते हैं मानो जैसे पेड़ पूरा फूलों से लद गया हो। ऊंचे बड़े पेड़ धीरे धीरे हलके भूरे, पीले, लाल, होने लगते हैं।
कितनी ही बार ऐसा प्रतीत हुआ मानों दिल्ली की गुलमोहर और अमलतास से लदी सड़कों पर पहुँच गयी हूँ। हर तरफ रंग-बिरंगे पेड़ - कोई पीला, तो कोई पूरा लाल! बीच में हरे पाइन के लम्बे पेड़ जो अभी भी हरे हैं। कवि रोबर्ट फ्रॉस्ट एवं अन्य हिंदी, अंग्रेजी भाषी कवि एवं साहित्यकारों ने पश्चिमी देशों में पतझड़ पर प्रेरणादायक कवितायेँ लिखी हैं और प्रकृति को एक कैनवास के रूप में पेश किया है। भारत में मैंने मार्च के माह में पलाश और सेमल से भरे पेड़ देखे हैं।
लेकिन यहाँ तो पत्ते ही फूल बने हुए हैं! पत्ते झड़ते तो ऐसा प्रतीत होता जैसे किसी ने पत्तों का कालीन बिछा रखा हो। शायद हिमालय या कश्मीर में इतने रंग फैल जाते हों ? लेकिन जिस प्रकार के विभिन्न रंग खासतौर पर न जाने कितने ही तरह के लाल रंग मुझे यहाँ देखने को मिले ऐसे रंग मैंने पहले कभी नहीं देखे!
मैं अगस्त के महीने में अमेरिका आयी। यहाँ पर सब सूना-सूना ही लगा था पहले। न दिल्ली जैसी रौनक, भीड़-भाड़, न ऑटो रिक्शा की वह सवारी।आते ही ग्रोसरी स्टोर्स के चक्कर लगने लगे। दूर तक फैले हुए सुपरमार्केट्स में मैं 'सोशल इंटरेक्शन' ढूंढने का प्रयास करती।
अभी तक बस पॉलिटिकल इकॉनमी में 'वालमार्ट' और 'वेग्मंस' के बारे में पढ़ते आये थे। यहाँ आकर देखा की असल मायने में 'असेम्ब्ली लाइन प्रोडक्शन' क्या होती है? सुपरमार्केट्स में एक ही तरह के प्रोडक्ट्स। आप जब भी जायेंगे आपको ठीक उसी जगह चीज़ें मिलेंगी, जैसे पिछली बार मिली थी।आपको पता होगा की आपको कहाँ जाना है।हर बार आप एक रोबोट की तरह महसूस करेंगे शायद। मैंने तो किया।
दिल्ली में ऑफिस से लौटते हुए मैं सब्ज़ी वाले भैया, नारियल पानी वाले भैया, और फल बेचती आंटी से बात चीत करते हुए, खरीददारी करते हुए लौटती थी। वे भी अपने ठेले भी ठीक उसी जगह लगाते थे, लेकिन हर बार उनके ठेले पर अलग-अलग मौसमी फल सब्ज़ी मिल जाया करतीं। आते-जाते उनसे बातचीत करती थी। पूछती थी की क्या चल रहा है ? चुनाव में क्या होने वाला है ? और बताओ आंटी। कल ज़रा ताज़े लंगड़ा आम लेती आना। और भैया को कहना कुंदरू ला दें।
लेकिन यहां पर अगर यदि आपको कुछ नहीं मिल रहा है, तो आप इंतजार करिये उसके आने का। ज़्यादा बातचीत या विचार विमर्श का न तो किसी के पास समय है और न ही संवेदना। सवाल जवाब करने का किसी के पास समय नहीं ! आप काउंटर पर बैठे प्रोफेशनल से न तो 'बार्गेन' कर सकते हैं न कोई 'नेगोसिएशन'। बस बिल दीजिये और आगे बढ़िए।
हाँ! छोटे किसानों के बाज़ारों में आपको बातचीत मिलेगी! यहाँ किसान अपने उगाए फल एवं सब्ज़ी, फूल, घर पर बनाये जैम, अचार, घर पर बने बिस्कुट एवं अन्य खाद्य पदार्थ बेचते हैं जहाँ फिर भी कुछ बार्गेनिंग की जा सकती है। पूछा जा सकता है कि गेंदे के फूल कहाँ उगाते हैं आप अमेरिका में? मन ही मन वापस भारत के खेतों में लौटा जा सकता है, जहाँ मैं 'फील्ड-वर्क' करती थी।
वैसे ही अकेलेपन की अमेरिका में कोई सीमा नहीं। इस बीच तीज त्यौहार आ जाएं तो सोने पर सुहागा हो जाता है प्रवासियों के लिए। आते ही यहाँ जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, दुर्गा पूजा एवं दिवाली पड़ी। न तो यहाँ पर जन्माष्टमी की झांकियां देख सकती थी और न ही दुर्गा पूजा के पंडाल। जिसने मुंबई में पढ़ाई की हो उसके दिलो-दिमाग में गणपति पूजन, गणपति के दौरान सड़कों के महोत्सव, उनका रोमांच मन में बस सा जाता है।
लेकिन मरता क्या न करता है? यहीं पर अपने-अपने हिसाब से त्यौहार मना लिए जाते हैं। सूट, साड़ी पहन ली जाती है। बिंदी लगा ली जाती है। मेहँदी का टैटू बना लिया जाता है, पकवान तैयार कर लिए जाते हैं। अपने भारतीय होने का एहसास जबरन महसूस करा लिया जाता है।
बीते दिन दिवाली और दुर्गा पूजा पर घर के मायने ही बदल गए। 'ग्लोबलाइसेशन' अथवा वैश्वीकरण का शुक्र है जो दुनिया में कहीं भी हों - 'अमेज़न' या इंडियन स्टोर्स में आपको हल्दी, हींग, जीरा, राजमा, मेथी, अगरबत्ती मिल जाती है। पिछले तीन महीनों में खाना बनाते हुए मैं हमेशा अपनी माँ की रसोई में पहुँच जाती थी।
इलाइची और केसर की सुगंध मुझे मां के हाथ की बानी खीर की याद दिलाती। हींग और जीरे की महक से मैं मेथी की दाल खाने को ललचाती। अजवाइन और तेल की महक दिवाली पर पूरियों की स्मृतियों को जीवंत करती।
और फिर दाल चीनी, बड़ी इलाइची, टमाटर और घी की महक मेरे सामने खिचड़ी और अचार की वो घर की स्टील की प्लेट सामने ला दिया करती !
सच है कि प्रवासी अपने खान-पान से ही अपनी संस्कृति, उसके अपनत्व को और गहराई से महसूस करते हैं। यह तो मेरा सौभाग्य है की भारतीय खाना विश्व भर में प्रसिद्ध है। समोसा ले लीजिये, या जलेबी। चाय ले लीजिये और हल्दी दूध भी - जो आजकल कुछ संस्कृति विनियोग के उदाहरण बन गए हैं। वैश्वीकरण की वजह से प्रवासी होने का एहसास होता भी है और नहीं भी।
दिवाली आयी! इस बार दिवाली और पश्चिमी त्यौहार हेलोवीन साथ पड़े।
हमने कुछ दिए जलाये जो भारतीय स्टोर्स पर मिल गए। चावल, हल्दी और यहाँ के देसी फूलों से रंगोली भी बना ली। खाना बना लिया और मसालों की सुगंध से फिर से भारत के चक्कर लगा आयी।
लेकिन बाहर पेड़ों को देखा तो लगा जैसे वो मेरे मन की उधेड़बुन को समझ गए हों?
उनके लाल-पीले भूरे पत्तों को देख लगा की दिवाली की सारी रौशनी उन्हीं में समां गयी हो?
ऐसा लगा जैसे वे मुझसे कह रहे हों तो क्या हुआ कि तुम आनंदलोक के मेले में नहीं जा पायी? या चितरंजन पार्क की चकाचौंध नहीं देख पायी? या धनतेरस के ट्रैफिक में नहीं फँसी? हम हैं न! अपने लाल, पीले रंगों से तुम्हारी पुरानी रंगोलियों को जगाने के लिए।
जो लाइट्स तुम इस बार नहीं लगा पायीं वह हमने तुम्हारे सामने अपनी डालों पर लाकर सुसज्जित कर दीं।
दिवाली चाहे वहां हो, या यहां हो, वो आकाश जिनमें ये रंग बिखरते हैं वह तो एक ही है न!
यह लाल-पीले पत्ते दीयों की तरह ही तो हैं! जो अमावस की रात पर आशा के दीपों की तरह प्रज्ज्वलित होते हैं। पत्तों के बिछे यह कालीन रंगोलियों की तरह ही तो हैं। वही अमलतास के फूल, वही गेंदा, और वही गुलमोहर।
यह पीले हरे पत्तों की बेल उसी तोरन, उसी बंधनवार की तरह है जो तुम गेंदे और अशोक के पत्तों से बुनकर बनाया करती थीं!
और वह बच्चे जो हैलोवीन पर घर-घर जाकर टॉफ़ी-केक बटोर रहे हैं, वो तुम्हारी अपनी कॉलोनी के बच्चों की तरह ही तो हैं जो चाव से कंजकों पर पूरी, हलवा, चने खाने आया करते हैं। जिनको दिवाली पर तुम काजू कतली और लड्डू बाँट दिया करती हो। तो क्या हुआ की इस साल मिठाई और बर्फी की जगह तुम्हारे पास बांटने को पीनट बटर की टॉफ़ी है?
इन सब के बीच पूजन का समय हो चला। घर के मसालों की महक आने लगी।
अँधेरा घिर आया और पेड़ों ने विदाई ले ली!
और इस तरह पेड़ों ने इस साल मना ली दिवाली!
शुभ दीपावली!