हिमाचल प्रदेश में जंगलों को बढ़ाने के लिए दशकों से चलाए जा रहे वृक्षारोपण कार्यक्रमों से न तो वहां के जंगलों में कोई खास इजाफा हुआ है, न ही इनका फायदा वहां रहने वाले आम लोगों तक पहुंचा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर इन महंगे वृक्षारोपण में कहां चूक रह गई है। इस पर 13 सितम्बर 2021 को अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में एक शोध प्रकाशित हुआ है, जिसमें इन वृक्षारोपण परियोजनाओं की पोल खोल दी है।
इसमें कोई शक नहीं की वृक्षारोपण बहुत मायने रखता है, इससे न केवल जंगलों में इजाफा होता है साथ ही जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी यह अहम भूमिका निभाता है। यही वजह है कि दुनिया भर के देश अपने वातावरण को कार्बन मुक्त करने और स्थानीय लोगों की जीविका के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कर रहे हैं।
2015 तक जारी आंकड़ों से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर करीब 28 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर नए जंगल तैयार किए गए हैं। इसमें से 1.2 करोड़ हेक्टेयर जंगल भारत में हैं। व्यापक स्तर पर वृक्षारोपण की अपील के बावजूद कई शोधकर्ता इनके नकारात्मक प्रभावों को लेकर भी चिंतित हैं, जिसका व्यापक असर वहां के स्थानीय लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है।
शोधकर्ताओं ने आगाह किया है कि वृक्षारोपण को वन बहाली के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। उनके अनुसार देशों को अलग-अलग पारिस्थितिक तंत्र में अलग-अलग बहाली रणनीतियों पर विचार करना चाहिए।
इसे समझने के लिए हिमाचल के कांगड़ा में किया गया यह शोध दिखाता है कि एक तरफ जहां वृक्षारोपण से वहां मौजूद जंगलों में कोई इजाफा नहीं हुआ है। साथ ही उस क्षेत्र में जिस तरह बड़ी पत्ती वाले वृक्षों में कमी आई है, वो वहां के स्थानीय लोगों के लिए एक बड़ी समस्या है क्योंकि वो लोग इन्हें जलावन और पशुओं के लिए उपयोग करते हैं।
लेकिन इनके स्थान पर वहां नुकीली पत्ती वाले पेड़ों को लगाया जा रहा है जो स्थानीय लोगों की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों से पता चला है कि इन बड़ी पत्ती वाले वृक्षों में करीब 10 फीसदी की कमी आई है।
पैरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए देश बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण पर जोर दे रहे हैं , इसके चलते बड़े स्तर पर क्षेत्रों को वृक्षारोपण के लिए अलग रखा गया है। भारत ने भी अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए वृक्षारोपण पर जोर देने की योजना बनाई है। 2030 तक भारत की योजना भी अपने जंगलों में इतना विस्तार करने की है जिससे वो करीब 250 से 300 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से सोख सकें।
हालांकि यह शोध दर्शाता है कि वृक्षारोपण पर दशकों के महंगे निवेश के बाद भी इस बात के कोई सबूत नहीं मिले हैं कि इन परियोजनाओं से उत्तर भारत में कार्बन को खत्म करने में कोई खास फायदा मिला है। न ही इनसे स्थानीय लोगों की जीविका को ही लाभ पहुंचा है।
सिर्फ वृक्षारोपण से नहीं होगा फायदा
आखिर क्या वजह है कि इन महंगी परियोजनाओं के बावजूद न ही जंगलों में इजाफा हुआ है और न ही स्थानीय लोगों को इन पेड़ों से फायदा पहुंच रहा है। इस बारे में शोध से पता चला है कि इसके पीछे कई वजहें हो सकती हैं पहला तो यह परियोजनाएं उन स्थानों पर शुरू की गई हैं जहां बड़े पैमाने पर खेती और पशुपालन किया जा रहा है ऐसे में वहां वृक्षारोपण के लिए सीमित क्षेत्र ही उपलब्ध है।
नतीजन अधिकांश वृक्षारोपण उन स्थानों पर हो रहा है जहां पहले से ही कुछ जंगल मौजूद है, जिससे संभावित पुनर्विकास की सम्भावना घट जाती है। वहीं कृषि भूमि पर दोबारा जंगलों में बदलना सामजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक कारणों के चलते कोई बेहतर विकल्प नहीं है। ऐसे में यदि नीति निर्माताओं को वृक्षारोपण की मदद से जंगलों को बहाल करना है तो सबसे पहले उन मुद्दों पर ध्यान देना होगा जिससे इन जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है, इसमें सामाजिक और पर्यावरण सम्बन्धी सभी कारणों पर ध्यान देने की जरुरत है।
वहीं दूसरी तरफ वन अधिकारी जंगलों की वजह से लम्बे समय तक मिलने वाले सामाजिक और पर्यावरण सम्बन्धी लाभों को बनाए रखने की जगह वृक्षारोपण के लक्ष्यों को प्राप्त करने पर कहीं ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।
भले ही कार्बन को वातावरण से सोखने का वृक्षारोपण एक सीधा तरीका लग सकता है, लेकिन सही योजनाओं के आभाव में इनसे वो लाभ नहीं मिल रहा जो मिलना चाहिए। ऐसे में इस शोध ने पूरे देश में जलवायु परिवर्तन से निपटने और स्थानीय लोगों की मदद के लिए चलाई जा रही वृक्षारोपण परियोजनाओं की सफलता पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।