जिस समय दुनिया वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने के लिए ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन फॉर क्लाइमेट चेंज के बैनर तले कॉप-26 में कार्बन बजट पर चर्चा करने में व्यस्त थी, ठीक उसी समय एक अन्य मोर्चे पर एक और महत्वपूर्ण बहस चल रही थी। इस बहस के केंद्र में था कि क्या हम प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग को नियंत्रित कर सकते हैं?
यह बहस उस उपभोग से भी संबंधित थी जिस पर कॉप-26 में चर्चा हो रही थी। कार्बन बजट की तरह प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी विकास और उसके अधिकार का मुद्दा है। जलवायु परिवर्तन की बहस की तरह इस मुद्दे पर भी विकसित और विकासशील व गरीब देशों के बीच गहरा मतभेद देखा गया।
दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के मामले में विकसित देश जुनूनी उपभोक्ता हैं, जबकि विकासशील और गरीब देश सिर्फ जीवित रहने के लिए ही उनका सीमित दोहन करते हैं। इसलिए मूल प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संसाधनों की बहस में इस मौलिक उपयोग को कैसे हासिल किया जाए?
विकास का अधिकार वह धुरी है जिसके इर्द-गिर्द वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने की वैश्विक रणनीतियां बन रही हैं। विकसित देशों ने बहुत पहले समृद्धि का मार्ग प्रशस्त कर लिया है। यह मार्ग बड़े पैमाने पर ग्रीनहाउस गैसों को पर्यावरण में पहुंचाकर हासिल हुआ है। यही ग्रीनहाउस गैसें धरती को गर्म कर रही हैं। विकासशील और गरीब देशों ने अभी विकास पथ पर दौड़ना शुरू किया है, इसलिए उत्सर्जन उनकी जरूरत है।
इस बीच धरती गर्मी सहन करने की क्षमता के करीब पहुंच गई है। विकासशील देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के बावजूद विकास करना जारी रखना चाहते हैं क्योंकि यह बुनियादी मानव अधिकार है। इसलिए विकसित द्वारा उत्सर्जन स्तरों पर अधिक छूट देने की आवश्यकता है।
अब इस सिद्धांत को प्राकृतिक संसाधनों या प्राकृतिक पूंजी जैसे जंगल, भूमि और पानी के उपयोग पर लागू करें। विश्व बैंक ने हाल ही में “द चेंजिंग वेल्थ ऑफ नेशंस 2021” रिपोर्ट जारी की, जिसमें पारंपरिक जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) से परे संपदा के सृजन और वितरण का आवधिक मूल्यांकन किया गया है। इसमें देश की संपदा के रूप में प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं।
यह रिपोर्ट बिल्कुल स्पष्टता से कहती है कि दुनिया में संपत्ति बढ़ रही है लेकिन यह उन देशों में टिकाऊ नहीं होगी जिन्होंने अपनी प्राकृतिक पूंजी को नष्ट कर दिया है। जो देश आय और आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक निर्भर हैं, वे इस बर्बादी के दुष्परिणाम झेलेंगे। मुख्यत: यही देश गरीब और विकासशील देश हैं। यह चिंता का कारण है।
रिपोर्ट कहती है, “निम्न आय वाले देशों के पास बहुत कम अन्य संपदा है। प्राकृतिक संपत्ति जैसे भूमि और पारिस्थितिकी तंत्र उनके लिए महत्वपूर्ण हैं, जो उनकी कुल संपत्ति का लगभग 23 प्रतिशत है। यह सभी आय समूहों के बीच प्राकृतिक पूंजी से आने वाली कुल संपत्ति का उच्चतम अंश है।”
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की तरह गरीब और विकासशील देशों को इन प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की आवश्यकता है, भले ही यह टिकाऊ न हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास आजीविका के लिए यही एकमात्र संसाधन है।
कई अनुमानों ने बताया है कि दुनिया की लगभग आधी आबादी भूमि और जंगलों जैसे संसाधनों से गुजर-बसर करती है। भविष्य में ये संसाधन आजीविका को सुनिश्चित नहीं कर पाएंगे। इस आबादी के पास जीवनयापन के लिए कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।
विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, निम्न व मध्य आय वाले देशों में प्रति व्यक्ति संपदा बढ़ी है। यह मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र के विस्तार व मछली पालन में निवेश जैसे उपायों से हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो संपदा में वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों के अधिक इस्तेमाल का नतीजा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जहां पारिस्थितिकी ही मुख्य अर्थव्यवस्था है, वहां उसके इस्तेमाल के बिना संपन्नता नहीं आ सकती। ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि के लिए उपभोग का बढ़ना चिंता का विषय है और साथ ही धरती की सहने की क्षमता से परे भी।
इस बहस के मद्देनजर आजीविका और समृद्धि के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर गरीब व विकासशील देश पर दबाव डाला जाएगा कि वे अपने उपभोग में कमी लाएं। लेकिन कार्बन उत्सर्जन की तरह प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग में भी बहुत असमानता है। एक अमीर देश का नागरिक एक गरीब देश की तुलना में 30 गुणा अधिक तेल और अन्य संसाधनों का उपभोग करता है।
इतना ही नहीं, अमीर देशों ने बताया है कि उनके यहां प्राकृतिक संपदा का स्तर बहुत ऊंचा है क्योंकि उनका अस्तित्व प्राकृतिक संसाधनों पर उतना निर्भर नहीं है, जितना गरीब देशों का है। उनका यह तर्क एक और बहस को जन्म देना है, जो प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और उस तक पहुंच पर केंद्रित है।