साल दर साल उत्तराखंड में बढ़ती वनाग्नि की घटनाओं और इससे होने वाले नुकसान को कम करने के लिए सरकारी स्तर पर हर वर्ष फायर सीजन शुरू होने से पहले वन विभाग और राज्य सरकार की ओर से कई तरह की योजनाओं का दावा किया जाता है, लेकिन वनाग्नि की घटनाओं और इससे होने वाले नुकसान के आंकड़ों को देखें तो इन योजनाओं और इन दावों का कोई खास फायदा होता नजर नहीं आता है। ऐसे में अल्मोड़ा जिले के शीतलाखेत में कुछ लोगों ने जंगलों में लगने वाली आग की घटनाओं को कम करने के लिए एक नया तरीका ईजाद किया है।
इसे शीतलाखेत मॉडल नाम दिया गया है। इस मॉडल से प्रेरित होकर अल्मोड़ा के जिला प्रशासन ने हर वर्ष एक अप्रैल को ओण दिवस मनाने की घोषणा की है और पिछले तीन सालों से अल्मोड़ा में ओण दिवस मनाया जा रहा है। राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी शीतलाखेत मॉडल को पूरे राज्य में लागू करने की बात कही थी, हालांकि तमाम सरकारी घोषणाओं के तरह की उनकी यह घोषणा भी अब तक हवा-हवाई ही साबित हुई है।
शीतलाखेत मॉडल ओण जलाने पर आधारित है। पर्वतीय इलाकों में खरीफ की फसलों के लिए खेत तैयार करते समय खेतों, बंजर भूमि, खेत की मेड़ में, दीवारों में उग आई झाड़ियों, खरपतवारों को काटकर, सुखाकर जलाया जाता है। इसे प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में ओण, आड़ा या केड़ा जलाना कहा जाता है। माना जाता है कि जंगलों में लगने वाली आग की 90 प्रतिशत घटनाएं ओण या आड़ा जलाने के कारण होती हैं। शीतलाखेत मॉडल दरअसल पर्वतीय ग्रामीण समाज में अतीत से चली आ रही ओण जलाने की परंपरा को समयबद्ध, व्यवस्थित और सुरक्षित बनाने का मॉडल है।
शीतलाखेत मॉडल को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले स्याही देवी विकास मंच, शीतलाखेत के संयोजक गजेन्द्र पाठक कहते हैं कि वह काफी समय से महसूस कर रहे थे कि कोसी, गगास, रामगंगा और सुयाल जैसी गैर हिमानी नदियों के कैचमेंट एरिया में साल दर साल जंगलों में आग लग रही है और इसी रफ्तार से इन नदियों के साथ ही इस क्षेत्र के प्राकृृृृतिक जलस्रोतों, धारों और गाड-गदेरों का पानी भी कम होता जा रहा है। उन्होंने क्षेत्र में काम करने वाले जंगल के दोस्त, प्लस अप्रोच फाउंडेशन और ग्रामोद्योग विकास संस्थान जैसे संगठनों से संपर्क किया और इन नदियों के कैचमेंट क्षेत्र में आग लगने की घटनाओं को रोकने के लिए प्रयास करने का प्रस्ताव रखा।
गजेन्द्र पाठक के अनुसार आमतौर पर ओण उस दौरान जलाये जाते हैं, जब गर्मियों का मौसम शुरू हो जाता है। यह वह मौसम होता है, जब जंगलों में चीड़ के पत्ते यानी पिरुल गिरने लगता है और तेज हवाएं चलती हैं। तेज हवाओं के बीच ओण जलाते समय आग की कोई चिंगारी उड़कर आसपास के जंगल तक पहुंच जाती है और वहां सूखी पिरुल तुरंत आग पकड़ लेती है। ऐसे में ओण जलाने की परंपरा को व्यवस्थित करने की योजना बनाई गई।
इसके लिए शीतलाखेत के आसपास के 40 गांवों के लोगों से संपर्क किया गया और उन्हें इस मुहिम से जोड़ा गया। इसमें करना सिर्फ इतना था कि खेतों की दीवारों, मुंडेरों और आसपास की बंजर जमीन में उगी झाड़ियों को सर्दियों के मौसम में ही काट देना था और 31 मार्च से पहले-पहले जला देना था। वह कहते हैं कि अप्रैल से एक तरफ जहां गर्मी अचानक बढ़ जाती है, वहीं दूसरी तरफ चीड़ की पत्तियां गिरने लगती हैं और तेज हवाएं चलने का दौर भी शुरू हो जाता है। 31 मार्च तक ओण जलाने का काम खत्म करने के बाद 1 अप्रैल को ओण दिवस मनाने की परंपरा शुरू की गई। यह परंपरा 2022 में शुरू की गई थी। गजेन्द्र पाठक के अनुसार 40 गांवों के लोग पिछले दो वर्षों से न सिर्फ 31 मार्च से पहले ओण जलाने का काम पूरा कर रहे हैं, बल्कि 1 अप्रैल को ओण दिवस भी पूरे क्षेत्र में मनाया जा रहा है।
ग्रामीणों की इस पहल से प्रभावित होकर पिछले वर्ष यानी 2023 में अल्मोड़ा की डीएम वंदना सिंह ने पूरे जिले में हर साल 1 अप्रैल को ओण दिवस मनाने की घोषणा की। हालांकि वर्तमान वर्ष में चुनाव होने के कारण सरकारी स्तर पर यह आयोजन नहीं किया जा रहा है, लेकिन इस मॉडल से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार तीसरे वर्ष ओण दिवस मनाने की तैयारियां की गई हैं।
शीतलाखेत मॉडल से जुड़े गिरीश चन्द्र शर्मा कहते हैं कि यदि हमें वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों के अच्छे भविष्य के लिए जल स्त्रोतों, जैवविविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करनी है तो वनाग्नि को रोकने के प्रयास करने की जरूरत है।
शीतलाखेत मॉडल के एक अन्य सदस्य आरडी जोशी कहते हैं कि आमतौर पर वन विभाग जो प्रयास करता है, वे आग लगने के बाद के हैं, पहले आग लगने से रोकने के नहीं। ओण जलाने की परंपरा को समयबद्ध और व्यवस्थित करना आग लगने से पहले का एक बेहतर उपाय है।
वे कहते हैं कि ग्राम सभा मटीला सूरी में दो वर्ष पहले 1 अप्रैल को प्रथम ओण दिवस का आयोजन किया गया। इसके अच्छे परिणाम सामने आये हैं। ओण दिवस जंगलों को आग से सुरक्षित रखने का निरोधात्मक विचार है। इसमें सभी ग्राम वासियों से अनुरोध किया गया है कि वे प्रत्येक वर्ष ओण जलाने का काम 31 मार्च से पहले पूरी कर लें। इससे अप्रैल, मई और जून के महीनों में गर्मी, पिरुल की अधिकता और तेज हवाओं के कारण जंगल आग लगने की संभावनाओं को काफी कम किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि मौसम में आ रहे बदलाव के कारण उत्तराखंड के जंगलों में आग की घटनाओं में अनियमितता बढ़ रही है। बेशक साल 2023 में फायर सीजन में कुछ-कुछ दिनों के अंतराल में होने वाली बारिश के कारण वनाग्नि की केवल 773 घटनाएं हुई। इनसे 933.55 हेक्टेअर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ, लेकिन साल 2022 में स्थित काफी खराब रही। आग की 2186 घटनाओं में 3,425 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभवित हुआ। साल 2021 में 2,823 घटनाओं में 3,944 हेक्टेअर वन क्षेत्र जल गया। 2020 में बहुत कम सिर्फ 135 घटनाओं में 172 हेक्टेअर वन क्षेत्र जल गया। लेकिन 2019 का साल दुर्भाग्यपूर्ण रहा। इस आग 2,158 घटनाओं में 2,981 हेक्टेअर में फैले जंगल जल गए।