मध्य भारत में गिद्ध संरक्षण: चुनौतियां और अवसर
गिद्ध हमारे पारिस्थिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण भाग हैं। शिकारी पक्षियों की श्रेणी में आने वाला यह पक्षी मृत अवशेषों को खाने वाला एक मुर्दाखोर पक्षी है, जो आमतौर पर मरे हुए जानवरों और उनके सड़े गले अवशेषों को खा कर पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखते हैं, और कई तरह की खतरनाक संक्रामक बीमारियों को फैलने से रोकते हैं। इसलिए गिद्धों को प्रकृति का सफाईकर्मी भी कहा जाता है।
वर्ष 1990 के पहले एशियाई महाद्वीप में लाखों की संख्या में गिद्ध पाए जाते थे, परन्तु 90 के दशक के बाद इनकी संख्या में अचानक काफी गिरावट दर्ज की गयी, और कभी बहुतायत में पाए जाने वाला यह पक्षी पशु चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली एक दर्दनिवारक दवा डाइक्लोफिनाक सोडियम के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण कुछ हजारों में सिमट कर रह गया।
भारत में वर्ष 2006 में इस दवा के पशु चिकित्सा में इस्तेमाल पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, यह प्रतिबन्ध गिद्धों की गिरती संख्या को रोकने में काफी कारगर रहा। परन्तु तब तक इनकी संख्या में लगभग 95 से 99 प्रतिशत तक गिरावट आ चुकी थी।
जुलाई 2024 में ‘अमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन’ जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार भारत में गिद्धों की गिरती संख्या के कारण वर्ष 2000 से 2005 के बीच हर वर्ष लगभग आधा मिलियन लोगों की जानें गयी हैं, और तकरीबन $70 बिलियन के आसपास का आर्थिक नुकसान हुआ है। यह इस बात का प्रमाण है की गिद्धों का होना मनुष्य के अस्तितव के लिए कितना जरुरी है।
गिद्धों का महत्व और उन पर संकट:
प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने में गिद्धों का विशेष योगदान है, गिद्ध खाद्य श्रृंखला में सर्वोच्च स्थान पर हैं, ये मृत प्राणियों के अवशेषों को खाकर पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखते हैं एवं अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्यों की सहायता कर उन्हें कई तरह की गंभीर एवं संक्रामक बीमारियों से बचाते हैं।
अलग-अलग संस्कृति एवं धर्मो में भी गिद्धों का एक अपना महत्व है। नेपाल और तिब्बत में रहने वाले लामा अपने प्रियजनों के शवों को गिद्धों को खाने के लिए छोड़ देते है, तो पारसी समुदाय के लोग भी अपने प्रियजनों के गुजर जाने के बाद उनके शवों को गिद्धों के लिए ''टावर ऑफ़ साइलेंस'' समर्पित कर देते हैं। हिन्दू धर्म में भी जटायु के रूप में गिद्धों को पूजा जाता है, जटायु जिसने सीता की खोज में राम की सहायता की थी।
90 के दशक का दौर जिप्स प्रजाति के गिद्धों के लिए काफी चूनौतीपूर्ण रहा, पालतू पशुओं के इलाज में प्रयोग होने वाली "डाइक्लोफेनाक सोडियम'' नामक दर्द निवारक दवा गिद्धों के लिए घातक सिद्ध हुई और भारत से लगभग 99% गिद्ध समाप्त हो गए। कई अध्ययनों से यह सामने आया है की डाइक्लोफेनाक सोडियम के अलावा दूसरी कुछ अन्य पशुचिकित्सा दवायें भी गिद्धों के लिए हानि कारक हैं इस विषय पर अभी कई शोध चल रहे हैं।
भारत में गिद्ध संरक्षण के प्रयास:
गिद्धों की गिरती संख्या को रोकने, इन्हें विलुप्ति से बचाने और इनके संरक्षण के लिए भारत में वर्ष 2004 में "वल्चर रिकवरी प्लान'' लाया गया। वर्ष 2006 में भारत में पशु चिकित्सा में डाइक्लोफेनेक के उत्पादन एवं उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया, साथ ही हरियाणा, पश्चिम बंगाल, असम और मध्य प्रदेश में गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्रों की स्थापना की गयी है।
मध्य भारत में गिद्धों की स्थिति एवं संरक्षण:
विश्व में गिद्धों की कुल २३ प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमें से भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियां शामिल हैं, सफ़ेद पीठ वाला गिद्ध (White rumped vulture), भारतीय या लम्बी चोंच वाला गिद्ध (Indian vulture), लाल सिर वाला या राज गिद्ध (Red headed vulture), इजिप्शियन गिद्ध (Egyptian vulture), हिमालयन गिद्ध (Himalayan vulture), यूरेशियन गिद्ध (Eurasian vulture), सिनेरियस गिद्ध (Cinerous vulture), पतली चोंच वाला गिद्ध (Slender billed vulture) और बीयरडेड गिद्ध (Bearded vulture)। मध्य भारत के राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ में इनमें से पतली चोंच वाला गिद्ध और बीयरडेड गिद्ध को छोड़कर अन्य सभी साथ प्रजातियां उपस्थित हैं।
पिछले कुछ वर्षों में गिद्धों के संरक्षण के लिए किये गए प्रयासों का असर मध्य भारत में भी देखने को मिला है और यहां पर भी इनकी संख्या में पहले की अपेक्षा काफी सुधार हुआ है। अगर इन तीनो राज्यों की बात करें तो गिद्धों के संरक्षण हेतु मध्य प्रदेश में काफी सराहनीय प्रयास हुए हैं और बाघ की तरह गिद्धों की संख्या के मामले में भी मध्य प्रदेश देश में अग्रणी है। प्रदेश में गिद्ध गणना की शुरुआत वर्ष 2010 में पन्ना टाइगर रिजर्व से हुई थी।
वर्ष 2014 में मध्य प्रदेश के वन विहार राष्ट्रीय उद्यान में एक गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र की स्तापना की गयी। वर्ष 2016 से मध्यप्रदेश वन विभाग द्वारा हर दो से तीन वर्ष में गिद्धों की गणना का आयोजन किया जाता है। हाल ही में फरवरी 2024 में आयोजित प्रदेश व्यापी गिद्ध गणना के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश में गिद्धों की संख्या 10000 से भी अधिक पहुंच गयी है, जबकि वर्ष 2021 की गणना में लगभग 9400 गिद्ध पाए गए थे। मध्य प्रदेश में गिद्धों की संख्या में यह संतोषजनक वृद्धि कई तरह के संरक्षण कार्यों का परिणाम है।
वर्तमान में मध्य प्रदेश की ही तरह महाराष्ट्र में भी गिद्ध संरक्षण के क्षेत्र में काफी सराहनीय कार्य किये जा रहे हैं। अक्टूबर 2023 में पेंच टाइगर रिज़र्व महाराष्ट्र में एक गिद्ध आइवरी की शुरुआत की गयी है साथ ही ताडोबा टाइगर रिज़र्व में भी जनवरी 2024 में गिद्धों के संरक्षण केंद्र की स्थापना की गयी है जहां से हाल ही में रेडियो टैग्ड किये गए 20 सफ़ेद पीठ वाले गिद्धों को जंगल में छोड़ा गया है। साथ ही इनकी गतिविधियों की लगातार मॉनिटरिंग भी की जा रही है।
छत्तीसगढ़ में अचानकमार टाइगर रिजर्व के पास औरापानी में भी भारतीय गिद्धों के संरक्षण की दिशा में भी कार्य किये जा रहे हैं। ईला फाउंडेशन के द्वारा 2015 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र के पूर्वी भाग गोंदिया और गडचिरोली एवं पश्चिमी घाट क्षेत्र में गिद्धों के प्राकृतिक आवास स्थल हैं।
वहीं छत्तीसगढ़ में पक्षी वैज्ञानिक डॉ. एम. के. भरोस द्वारा 2014 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य के कुछ स्थानों में गिद्धों के उपयुक्त प्राकृतिक आवास स्थल हैं। परन्तु मध्य प्रदेश की तरह महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ में इनकी वर्तमान स्थिति के बारे में कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है। दोनों राज्यों को भविष्य में गिद्धों के संरक्षण के लिए किसी भी तरह की योजना बनाने के लिए इनकी वर्तमान स्थिति के आंकलन की आवश्यकता है।
मध्य प्रदेश में केन बेतवा लिंक परियोजना के चलते पन्ना टाइगर रिजर्व में भारतीय गिद्धों के आवास का एक बहुत बड़ा हिस्सा खतरे में है। वर्तमान में विकास की कई योजनाओं के कारण भी गिद्धों के प्राकृतिक आवास सिकुड़ते जा रहे हैं। जिनके लिए सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है।
साथ ही डाइक्लोफेनाक सोडियम के आलावा एवं गिद्धों के लिए घातक अन्य दवाइयां के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध को कड़ाई से लागु करने की आवश्यकता है। गिद्धों के लिए संभावित अन्य खतरों की पहचान करना भी जरुरी है। इस दिशा में आम नागरिकों के बीच जागरूकता अभियान चलाकर गिद्धों के संरक्षण की दिशा में भी प्रयास किये जाना चाहिए। साथ ही पशु पालकों, डेरी संचालकों, पशु चिकित्सकों, वन विभाग एवं अन्य हितधारक जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गिद्ध संरक्षण में सहायक हो सकते हैं, उन्हें भी इस बारे में जागरूक करना होगा। तब जाकर गिद्धों के लिए एक बेहतर कल की कल्पना की जा सकती है,वर्ना अभी तक गिद्धों के संरक्षण के लिए किये गाये सारे प्रयास असफल ही साबित होंगे।