गुलदार की दहशत के चलते उत्तराखंड में एक हफ्ते के भीतर दो गांव खाली हो गए। पौड़ी के चौबट्टाखाल तहसील की मझगांव ग्राम सभा के भरतपुर गांव में रह रहा मात्र एक परिवार पलायन कर गया।
वहीं कोटद्वार के दुगड्डा विकासखंड का गोदीबड़ी गांव भी भुतहा गांवों की सूची में शामिल हो गया। यहां के 4 परिवार अपने पुश्तैनी घर छोड़ किराए के घरों में रहने के लिए कोटद्वार के शहरी क्षेत्र चले गए। ग्रामीणों की मानें तो गुलदार के हमले के डर से सहमे कई अन्य गांव जल्द ही जनशून्य हो जाएंगे।
उत्तराखंड से पलायन की बड़ी वजह सिर्फ रोजगार और शिक्षा ही नहीं है। बल्कि ग्रामीणों और उनके खेतों पर वन्यजीवों के बढ़ते हमले भी लोगों को अपने घर-गांव छोड़ने पर मजबूर कर रहे हैं।
खाली हो गया भरतपुर गांव
पिछले वर्ष अक्टूबर के पहले हफ्ते में मुझे भरतपुर गांव जाने का मौका मिला। सड़क से नीचे उतरते हुए गांव में दाखिल होने पर एक के बाद एक बंद तालों वाले वीरान घर दिखाई दिए। गौशालाएं टूटी-फूटी हालत में दिखीं। कुछ घरों की हालत देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि यहां बरसों से कोई आया ही नहीं। घर के भीतर टूटी-खुली छत और कमरों के खुले दरवाजे-खिड़कियों से कंटीली झाड़ियां बाहर की तरफ पसर गई थीं। स्थिति ये थी कि इन घरों में दाखिल भी नहीं हो सकते।
तकरीबन 80-90 लोगों की आबादी वाले इस गांव में पिछले 3-4 वर्षों से मात्र एक परिवार रह रहा था। भोजनमाता के तौर पर 15 साल अपनी सेवाएं देने वाली यशोदा देवी गांव में नितांत अकेली रह रही थीं। उनके दो बेटे दिल्ली और गुड़गांव में नौकरी करते हैं। कोविड लॉकडाउन के समय वर्ष 2020 में एक बेटा-बहू और उनके दो बच्चे गांव लौटे। लॉकडाउन खुलने पर बेटा वापस लौट गया। सास-बहू गांव में ही खेती कर रहे थे।
नीली दीवारों वाले घर के चारों तरफ यशोदा देवी ने कई सारी बड़ी लाइटें लगाई हुई थीं। बेहद हंसमुख स्वभाव की बुजुर्ग यशोदा कहती हैं “रात में हम सारी लाइटें जला देते हैं ताकि गुलदार रोशनी से भाग जाए। एक बेहद लंबी हंसी के साथ अपनी कई मुश्किलों को गिनाती हुई वह कहती हैं हमारे घर के बाहर तीन गुलदार चक्कर काटते रहते हैं। एक मां और दो उसके बच्चे। हम उनकी पूजा करते हैं। क्या पता हमारे कोई पूर्वज हों। देवता हों। हम उन्हें मनाते हैं कि यहां न आया करें लेकिन वे नहीं जाते”।
यशोदा बताती हैं कि गुलदार को लेकर उन्होंने वन विभाग में कई बार शिकायत की। “जंगलात वाले बोलते हैं कि झाड़ी काटो, गांव की सफाई करो, हम कितनी सफाई करेंगे। बाघ (गुलदार को वह बाघ कहती हैं) हमारी बछिया खा गया। हमें अपने छोटे-छोटे दो बच्चों को लेकर हमेशा डर बना रहता है।
“बाघ से जान को खतरा रहता है और बंदर-सूअर से खेती पर। दिन में बंदरों को भगाने के लिए दौड़ो और रात में जंगली सूअर हमारे साग-पात खा जाते हैं। रात में उन्हें भगाने के लिए हम बाहर भी नहीं निकल सकते”, यशोदा आगे कहती हैं।
वहीं, उनकी बहू को अपने दो बच्चों की पढ़ाई की चिंता है। वह बताती हैं कि गांव से स्कूल कई किलोमीटर दूर है। बच्चों को स्कूल छोड़ने और लाने में ही डर लगता है।
अगस्त के आखिरी हफ्ते में यह परिवार भी अपना गांव छोड़ चला और भरतपुर ‘भुतहा’ गांवों की सूची में शुमार हो गया।
गुलदार की दहशत से पलायन!
पौड़ी के थलीसैंण तहसील के बड़ैत गांव में नरभक्षी घोषित किए गए एक गुलदार को एक सितंबर 2022 की रात शिकारी की मदद से वन विभाग ने ढेर कर दिया। जिले के निवासी शिकारी जॉय हुकिल ने गुलदार पर निशाना लगाया था। इस गुलदार ने 28 जुलाई को 5 साल के बच्चे को अपना निवाला बनाया था।
जॉय कहते हैं “पलायन की एक बड़ी वजह जंगली जानवर हैं। हमारे लिए तो सवाल ये है कि गांव के लोग पलायन क्यों न करें? गांवों के विकास के लिए अब तक हम ऐसा कौन सा मॉडल लेकर आए हैं जिससे लोग गांवों में ही रहें”।
गुलदारों के हमले से बचाव के लिए उत्तराखंड वन विभाग ‘लिविंग विद लैपर्ड’ जैसे प्रयास करता आया है। जॉय कहते हैं कि गुलदारों के साथ तो पर्वतीय लोग पीढ़ियों से रहते आए हैं, लेकिन हम नरभक्षी गुलदार के साथ नहीं रह सकते। हम वन्यजीवों के साथ संतुलन इसलिए नहीं बना पा रहे, क्योंकि हमें उनकी स्थिति पता ही नहीं है। हमें ये भी नहीं पता कि हमारे वनों की वहनीय क्षमता की तुलना में राज्य में कितने गुलदार हैं?
वर्ष 2018 में आई स्टेटस ऑफ लेपर्ड्स इन इंडिया 2018 रिपोर्ट में उत्तराखंड में 839 गुलदार बताए गए। जॉय के मुताबिक “नरभक्षी गुलदारों को पकड़ने के लिए मैं राज्यभर में गया हूं। मेरे अनुमान से उत्तराखंड में कम से कम 5 हज़ार गुलदार हैं”। उत्तराखंड वन विभाग के अधिकारियों ने भी माना था कि गुलदारों की संख्या 3-4 हज़ार तक होगी।
जिले के चौबट्टाखाल तहसील के कुईं गांव की निर्मला सुंद्रियाल बताती हैं कि उनके गांव में 30 परिवार रहते हैं। गुलदार के डर से गांव के लोग समूह में आते जाते हैं। “हमारे गांव की आबादी ठीक ठाक है इसलिए जानवर का खतरा कम है। जिन गांवों में बहुत कम लोग रह गए हैं वहां गुलदार के हमले की आशंका अधिक रहती है”।
पलायन रोकथाम योजना
पलायन रोकने के लिए उत्तराखंड में वर्ष 2020 में ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग के तहत मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना लाई गई। इस योजना का उद्देश्य 50% तक पलायन से प्रभावित राजस्व गांवों में आजीविका सृजन करना और मूलभूत सुविधाएं बढ़ाना है। इसके तहत राज्य में 50% तक पलायन प्रभावित 474 गांव चिन्हित किए गए हैं।
पौड़ी के जिलाधिकारी विजय कुमार जोगदंडे बताते कि पलायन रोकथाम योजना के तहत चिन्हित जिले के 100 गांवों में कृषि, पशुपालन समेत अन्य विभागों को मिलाकर आजीविका बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं। जंगली जानवरों से बचाव के लिए गांवों की घेरबाड़ इसमें शामिल हैं। वह उम्मीद जताते हैं कि जल्द ही इसके सकारात्मक नतीजे नजर आने लगेंगे।
खाली होने की कतार में कई गांव!
वहीं चौबट्टाखाल तहसील की मझगांव ग्रामसभा के डबरा गांव निवासी और रिवर्स माइग्रेशन करने वाले किसान सुधीर सुंद्रियाल ‘मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना’ के नाम पर भी हैरानी जताते हैं। सामाजिक तौर पर सक्रिय सुधीर कहते हैं “ हमने अभी तक वन्यजीवों से सुरक्षा के लिए किसी गांव में घेरबाड़ होते नहीं देखा। हमारे गांव में पिछले साल गुलदार ने एक महिला को अपना शिकार बनाया। हमारे क्षेत्र में गुलदार लगातार सक्रिय हैं। हम प्रशासन से ग्राम सुरक्षा घेरबाड़ की मांग कर रहे हैं लेकिन अब तक घेरबाड़ नहीं हुई”।
वह बताते हैं कि भरतपुर के बाद मझगांव ग्राम सभा से ही 3 ऐसे गांव हैं जो अगले दो-तीन वर्षों में जनशून्य हो जाएंगे। “मेरे गांव डबरा में कुल 8 परिवार थे। तीन इसी साल पलायन कर गए। एक अन्य परिवार इसी महीने जा रहा है। यानी अब सिर्फ 4 परिवार रह जाएंगे। नौन्यूं गांव के 4 परिवारों में से 2 परिवार इस वर्ष पलायन कर गया”।
सुधीर कहते हैं हमारे क्षेत्र से पलायन की बड़ी वजह रोजगार से ज्यादा गुलदार की दहशत है। “ये हालत हो गई है कि जो अपने बच्चे को स्कूल भेजेगा वह उस दिन अपने खेतों में काम नहीं कर सकेगा। वह खेत में काम करेगा तो बच्चा स्कूल नहीं जाएगा। ये स्थिति लंबे समय तक नहीं चल सकती। ये सब गुलदार के भय से हो रहा है”।