उत्तराखंड में दस हेक्टेयर क्षेत्र में होंगे पेड़, तो भी नहीं माना जाएगा जंगल

उत्तराखंड सरकार जल्द ही एक शासनादेश जारी करने वाली है, जिसके बाद 10 हेक्टेयर क्षेत्र तक में घने पेड़ होने के बावजूद उस इलाके को जंगल नहीं माना जाएगा और वन क्षेत्र के दायरे से बाहर रखा जाएगा
उत्तराखंड के जंगलों में जब आग लगती है तो औरतें इस तरह पेड़ों को बचाने पहुंच जाती हैं। अब देखना है कि प्रदेश के लोग अपने जंगल कैसे बचाते हैं? फोटो: विकास चौधरी
उत्तराखंड के जंगलों में जब आग लगती है तो औरतें इस तरह पेड़ों को बचाने पहुंच जाती हैं। अब देखना है कि प्रदेश के लोग अपने जंगल कैसे बचाते हैं? फोटो: विकास चौधरी
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उत्तराखंड में सरकार अगले कुछ दिनों में एक ऐसा शासनादेश करने वाली है, जिसके बाद नियम बन जायेगा कि दस हेक्टेयर से कम क्षेत्र में अगर सघन वृक्ष भी लगे होंगे तो भी उसे जंगल के रूप में परिभाषित नहीं किया जायेगा। इतना ही नहीं, उस दस हेक्टयेर में भी पेड़ों का घनत्व अगर साठ प्रतिशत से कम होगा और 75 फीसद पेड़ देशी प्रजाती के नहीं होंगे। तो भी उसे जंगल नहीं माना जायेगा। इससे शासनादेश से उन लोगों को तो राहत मिली है, जिन्होंने अपने गांव में खेत और बगीचों को छोडक़र महानगरों की ओर पलायन पिछले कुछ दशकों में पलायन कर लिया था। लेकिन पर्यावरणविद इससे नये शासनादेश को संदेह की नजरों से देख रहे हैं। वयोवृद्ध पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा का कहना है कि सरकार का तर्क मूर्खतापूर्ण है। 

उत्तराखंड में इस समय 37, 898 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र फोरेस्ट के तहत आता है। जो की राज्य के कुल क्षेत्रफल का 71 प्रतिशत है। इसमें 4,675 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र सघन जंगल में आता है जबकि 25,763.18 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र वन विभाग के अधीन है। इसके अलावा सामान्य जंगल का क्षेत्रफल  14,111 वर्ग किलोमीटर है और खुला वन क्षेत्र (बुग्याल आदि) 5,612  वर्ग किलोमीटर है। इसके अलावा 262 वर्ग किलोमीटर मिश्रित वनक्षेत्र है। इसके अलावा 19 प्रतिशत राज्य का हिस्सा हर समय हिमाच्छादित रहता है।

ये हिमाच्छादित इलाके आते तो जंगलात के अधीन है। लेकिन यहां पर हर वक्त बर्फ होने के चलते वनस्पति नहीं उग पाती। उत्तराखंड में जो लगभग 25 हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र वन विभाग के अधीन आता है, लेकिन उसमें सघन वृक्ष नहीं है या फिर नये नियम के तहत दस हेक्टेयर के बाद कुछ जमीन खाली हो। तो इन इलाकों में किसी निर्माण योजना के लिये वन विभाग की एनओसी नहीं लेनी पड़ेगी।

ऑल वेदर रोड पर कट चुके हैं पहले ही हजारों पेड़
लगभग चार माह पूर्व राज्य सरकार की केबिनेट इस संबंध में निर्णय ले चुकी थी और उसके बाद कैबिनेट में पास कर उस प्रस्ताव को केंद्रीय पर्यावरण वन मंत्रालय को भेजा गया। लेकिन वहां से कुछ दिन पहले ही ये निर्णय लिया गया है कि राज्य सरकार अपने स्तर से इस मामले में निर्णय ले सकती है। केंद्र की एनओसी मिलने के बाद अब राज्य सरकार अगले दो या तीन दिनों में शासनादेश जारी करने वाली है। शासनदेश से होने के बाद राज्य में नये तरीके से वन भूमि को परिभाषित किया जायेगा। सबसे महत्वपूर्ण तो ये होगा कि कोई भी एेसा इलाका जहां पर सघन पेड़ तो होंगे, लेकिन दस हेक्टेयर के बाद खाली भूमि होगी तो उस जंगल को जंगल नहीं माना जायेगा। दूसरा उस दस हेक्टेयर में स्थित पेड़ो में भी 79 फीसद पेड़ देशी प्रजाती के होने चाहिये। उदाहरण के तौर पर मुंबई में मेट्रो शेड बनाने के लिये जो आरे के जंगल को काटा जा रहा था। उसके पीछे भी सरकार का यही तर्क था कि वो राज्य सरकार द्वारा जंगल की परिभाषा में नहीं आता। उत्तराखंड में 900 किलोमीटर लंबी ऑल वेदर रोड के लिये ही अब तक लगभग पचास हजार पेड़ काटे जा चुके हैं। जिस कारण एक बड़ा भूभाग क्षेत्र फल से बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जा चुके हैं। इस परियोजना में न केवल पेड़ बल्कि सैकड़ों पानी के श्रोत और दुलर्भ झाडिय़ां भी प्रभावित हुये हैं।

पर्यावरणविद व पदम विभूषण सुंदर लाल बहुगुणा ने बताया कि इस निर्णय के पीछे की सरकार की मंशा को समझना होगा। राज्य में हाई एल्टीट्यूड क्षेत्र में बुग्याल होते हैं। क्या सरकार अब उन्हें भी जंगल क्षेत्र नहीं मानेगी। ये तर्क मुखर्तापूर्ण है कि दस हेक्टेयर भूमि से कम में अगर पेड़ होंगे तो उसे जंगल नहीं माना जायेगा। हर पेड़ अपने आप में जंगल होता है। उसका अपना एक इको सिस्टम होता है। उसके नीचे कई जीव वास करते है। दूसरा देशी और विदेशी पेड़ क्या होता है ? पेड़ तो पेड़ होते हैं।

उधर, सरकार का तर्क है कि उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के सर्वे के अनुसार, पिछले दो दशकों में राज्य में 127 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र कृषि भूमि से डिम्ड फोरेस्ट के रूप में तरमीम हुआ है। ये वो कृषि भूमि थी, जो गांव के आसपास खेतों और बगीचों के रूप में थी। जिन्हें हजारों साल पूर्व पुरखों ने कठिन परिश्रम कर ढालूदार खेतों के रूप में विकसित किया था। लेकिन, पिछले कुछ सालों में गांवों से रिकॉर्ड पलायन होने के चलते इन खेतों में जब हल नहीं लगा तो चीड़ का जंगल उग आया। एक बार चीड़ का जंगल उग आने के बाद ये भूमि डीम्ड फोरेस्ट के अधीन आ गई। जिसके बाद जिन लोगों की ये जमीन थी, उनकी जमीन पर मालिकाना हक तो रहा, लेकिन वो भूमि सुधार के तहत पेड़ नहीं काट सकते हैं। अधिकारियों के अनुसार, ऐसे लोगों को इस शासनादेश से राहत मिल सकता है।

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