तो क्या उत्तराखंड में सामान्य से ज्यादा हो गई गुलदारों की संख्या?

उत्तराखंड में गुलदार और इंसानों के बीच संघर्ष बढ़ता जा रहा है, लेकिन इसको लेकर कोई योजना इसलिए नहीं बन पा रही है, क्योंकि वन विभाग के पास आंकड़े ही नहीं हैं
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में गोली लगने के बाद घायल गुलदार को तलाशते शिकारी और ग्रामीण  : मोहित डिमरी।
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में गोली लगने के बाद घायल गुलदार को तलाशते शिकारी और ग्रामीण : मोहित डिमरी।
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उत्तराखंड में गुलदार और लोगों के बीच संघर्ष लगातार तेज होता जा रहा है। गुलदार-मानव संघर्ष रुद्रप्रयाग से लेकर पिथौरागढ़ और देहरादून से लेकर ऊधमसिंह नगर जिलों तक  जारी है। इसमें इंसानों के साथ-साथ गुलदार भी मारे जा रहे हैं। 71 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड में पहले भी मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं घटती रही हैं, लेकिन हाल के वर्षों में इस तरह की घटनाओं में तेजी आई है।

सवाल यह उठाया जा रहा है कि गुलदार क्या पहले से ज्यादा हिंसक हो गये हैं और ऐसा होने का कारण क्या है। जानकारों का मानना है कि राज्य के जंगलों में गुलदारों की संख्या सामान्य से अधिक हो गई है, लेकिन वास्तव में यहां के जंगलों में कितने गुलदार रह रहे हैं, यह किसी को नहीं पता। खुद राज्य के वन प्रमुख जयराज कहते हैं कि गुलदारों की वास्तविक संख्या और घनत्व वाले क्षेत्रों का पता न चल पाने के कारण गुलदारों को वन क्षेत्र तक की सीमित करने की कोई योजना शुरू नहीं हो पा रही है, वे लगातार बस्तियों की तरफ आ रहे हैं।

हालात ये हैं कि राज्य में 2008 के बाद से गुलदारों की गिनती ही नहीं की गई है। उत्तर प्रदेश के समय हर दो वर्ष में ज्यादातर वन्य जीव प्रजातियों की गिनती की जाती थी। राज्य बनने के बाद 2003, 2005 और 2008 में ही यह गिनती हो पाई। हालांकि हाथी और बाघों की गिनती अब भी नियमित रूप से की जाती है। 2003 में उत्तराखंड के वनों में गुलदारों की अनुमानित संख्या 2,092 थी। वर्ष 2005 में यह संख्या बढ़कर 2,135 और वर्ष 2008 में 2,335 आंकी गई थी। उसके बाद गुलदारों की गिनती नहीं हो पाई। हालांकि इस वृद्धि दर के हिसाब से राज्य में अब गुलदारों की संख्या 3 हजार के पार मानी जा सकती है।

गुलदार को आदमखोर घोषित करके मार दिये जाने के बाद राज्य में दो तरह की प्रतिक्रियाएं स्पष्ट तौर पर नजर आती हैं। कुछ लोग गुलदारों को मार दिये जाने पर असंतोष जताते हुए ऐसे गुलदारों को रेस्क्यू किये जाने की बात करते हैं। जबकि कुछ लोग ऐसे किसी भी वन्य जीव को तुरन्त मारकर मानव जीवन कीर रक्षा करने का तर्क देते हैं।

वनाधिकार आंदोलन कार्यकर्ता प्रेम बहुखंडी कहते हैं कि यह मामला मानव जीवन को बचाने के साथ ही लोगों के गुस्से से जुड़ा हुआ है। आदमखोर हो गये किसी भी वन्य जीव को मारा जाना चाहिए, लेकिन सवाल यह उठता है कि जो गुलदार मार दिया जाता है, इसके क्या सबूत हैं कि वह आदमखोर था। वे कहते हैं कि ऐसे कई उदाहरण आये हैं जब किसी क्षेत्र में गुलदार के लगातार हमले के बाद कोई गुलदार मार दिया गया, लेकिन अगले ही कुछ दिन में गुलदार ने फिर से किसी को निवाला बना दिया।

बीज बम आंदोलन के प्रेरता द्वारिका सेमवाल का कहना है कि वनों में छोटे शाकाहारी जानवरों की कमी के कारण गुलदार गांवों में आ रहे हैं। वे कहते हैं कि वनों में शाकाहारी जीवों की खाने की पर्याप्त व्यवस्था करके ही इस स्थिति ने निपटा जा सकता है।

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