बीते दिन देवभूमि उत्तराखंड जाना हुआ। चार धाम की यात्रा लगभग दो साल बाद शुरू हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी से अनुरोध किया कि सभी पर्यटक साफ सफाई का भी ध्यान रखें।
दिल्ली की गर्मी से दूर हम तो गंगा जी नदी का शीतल जल एवं बहते हुए गंगा जल की धारा को सुनने गए थे। रास्ते में आम के इतने बगीचे और जमीन से छूते हुए आम देखने का आनंद ही अलग था।
तोड़ने का मन करता, लेकिन बागवानी करते किसानों को देख संवेदना भी होती और हम रुक जाते। चारों तरफ हरियाली। सड़क पर गन्ने का रस, बेल का शरबत, लीची, फल और आम बेचते हुए किसान और छोटे दुकानदार मिले।
रास्ते में तमाम ढाबे भी पड़े। हम शनिवार इतवार को घूमने निकले थे तो ढाबों पर बहुत भीड़ थी। हर तरह का खाना मिला। पराठे, चाय, दाल चावल। कॉमर्शियलाइजेशन इन सड़कों पर हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते देखने को मिलता था।
हर जगह 'अर्बन' मैक्डोनाल्ड्स, चाउमीन, कॉफी। पर्यटकों को ध्यान में रख कर खाद्य विविधता अथवा 'फूड डायर्सीफिकेशन' की अनुभूति हुई। आखिर हरिद्वार-ऋषिकेश उत्तराखंड में बड़ी तादाद में विदेशी पर्यटक भी आते हैं। फिर समय के साथ बदलाव और शहरीकरण की मांगें पूरी करना भी आवश्यक हो जाता है।
हरिद्वार पहुंचते समय रास्ते में बेहद ट्रैफिक मिला। लेकिन सड़क की अपनी रौनक और उस पर उमड़ती सैकड़ों कहानियां मन को शांत भी करती है तो दूसरी तरफ यह भी अहसास दिलाती है कि दुनिया न जाने किस भागम-भाग में व्यस्त है।
सड़क की इस भागमभाग को देख कर एवं उसे एक तरफ कहीं जाता देख केदारनाथ सिंह जी की कुछ पंक्तियां याद आयी:
“मुझे आदमी का सड़क पार करना
हमेशा अच्छा लगता है
क्योंकि इस तरह
एक उम्मीद सी होती है
कि दुनिया जो इस तरफ है
शायद उससे कुछ बेहतर हो
सड़क के उस तरफ।”
वाकई यह तो सच है कि सड़क से एक उम्मीद सी उठती है। ऐसा लगता है कोई निरंतर कहीं चलता ही जा रहा हो, किसी उम्मीद और उल्लास में या किसी आपदा से उबरने के लिए।
ज्यादा अच्छा इसलिए भी लगा, क्योंकि इतने दिन के बाद कोरोनाकाल के भयभीत करने वाले समय के बाद लोगों को सड़कों पर उमड़ता देख - अपनी मायूसी, परेशानी दूर घर छोड़ कर वापस से लगा जैसे सब कुछ ठीक हो गया हो।
आदमी की इस होड़, इस मायूसी और भागम भाग से उसे भागते देख निदा फ़ाज़ली जी की पंक्तियां भी बखूभी याद आयीं :
"हर तरफ हर जगह बे-शुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी"
जैसे जैसे गंगा नदी के पास आ रहे थे, एक सुकून सा महसूस होता जा रहा था। हवा में शीतलता एवं सड़क के दोनों तरफ गंगा जी नदी की बहती हुई धारा। बचपन से ही यादें जुड़ी हैं।
खास तौर से पत्तल के दोनों में फूल, दीपक, धूप बत्ती जो गंगा जी की आरती में इस्तेमाल होती हैं उन्हें बहता देख दृढ़ता और संकल्पशक्ति दोनों ही महसूस होते हैं। हर की पौड़ी पर शाम की भव्य आरती और हर तरफ रौशनी ही रौशनी देख सच में मन की इंद्रियों में एक नयी ऊर्जा सी दौड़ी थी।
हालांकि इतनी भीड़ और लोगों का प्रकृति की तरफ आचरण मन को व्यथित भी किया करता था। जैसे ही हरिद्वार के घाटों पर पहुंचे थे तो पर्यावरण के प्रति मनुष्य की असंवेदना का एहसास हुआ।
हालांकि जिला प्रशासन स्वच्छ्ता एवं सुरक्षा दोनों का ध्यान रखा करता है। लेकिन इतने सारे होटलों के 'निजी घाट' अथवा 'प्राइवेट बैंक' देख कर दुःख भी हुआ, क्योंकि इससे नदी के बहाव से छेड़-छाड़ हो सकती है। वैसे भी उत्तराखंड की 2013 त्रासदी की मार्मिक तस्वीरें अभी भी आंखों के सामने ताज़ी हैं।
खैर गंगा जी नदी का रात में बहाव बेहद खूबसूरत था। जैसे दिन भर की थकान खत्म कर अब वह अपने घर शान्ति से लौट रही हों। रात में गंगा जी और उनके घाटों पर एक अमूल्य शान्ति ही महसूस होती है।
उनके जल पर सिर्फ आस पड़ोस की स्ट्रीट लाइट्स की ही रौशनी पड़ रही थी, जिसमे बहता ठंडा, शीतल जल और भी खूबसूरत प्रतीत होता है। मानों अपने असंख्य प्रतिबिम्ब दिखाई देते हों।
एक अजब सा सुकून शहरों की भागम भाग से बहुत दूर मिलता है, अपने आप को ढूंढने का मौका और अपने आप को समझने का भी जो शहर की भागम भाग में नीरस हो चला है।
नदी के उस बहाव से सीखा कि न जाने इस जल ने और वहां पर लगे पुराने पेड़ों ने क्या-क्या देखा होगा? कितने ही लोग, कितनी ही पीढ़ियां, कितने ही मौसम! किसी ने अपने दुःख में गंगा जी से बात की होगी तो कोई होना सुख बांटने वहां आया होगा।
कितना ही अनुभूतियों को हमारी गंगा जी ने अपने अंदर एक निस्वार्थ भाव से समां लिया होगा। आखिर प्रकृति हमसे कभी कुछ याचना ही कहाँ करती है ? वह तो सिर्फ धैर्य से मनुष्यों के हर एक संवाद को, उसकी हर एक पीड़ा, सुख, भावना को धैर्य और संयम से, बिना कुछ कहे अपना लेती है।
उस रात वहां नरेंद्र शर्मा द्वारा लिखित एवं डॉ भूपेन हज़ारिका जी द्वारा गाया हुआ गीत याद आया:
"विस्तार है आपार,
प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ ?"
अगले दिन राजाजी नेशनल पार्क के लिए निकले थे। यहाँ पर जंगल को बहुत करीब से देखने का मौका एक बार फिर मिला था। राजाजी नेशनल पार्क हाथियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यहां का मौसम बेहद ठंडा और घने लम्बे पेड़ हैं चारों तरफ।
साल के लम्बे घने हरे पेड़ों के बीच से गुज़रती हमारी सफारी की जीप! खुशबूदार सफ़ेद फूलों के कई पेड़ सुबह सुबह की हवा को और भी ताज़ा कर चलते। बारिश जैसा मौसम था। जंगल में हमने कई प्रकार की चिड़िया, हिरन, बाइसन, एवं अन्य प्रकार के जीव-जंतु, पेड़-पौधे देखे। तीन घंटे की सफारी पूरे मनो-चित्त को तरोताजा करती चली थी।
सफारी खत्म हुई तो ऋषिकेश जाने की बारी आयी। सोचा सड़क रुक थोड़ी चाय पी लें। यहाँ कोरोनाकाल में मद्धम एवं छोटे व्यवसायों में आयी गई बाधा भी धीरे-धीरे खत्म होती दिख रही थी। छोटे -बड़े दुकानदार, सभी लोग अपना-अपना सामान बेच रहे थे।
चाय तो चाय, नमकीन, बिस्कुट, पूरी हलवा हर जगह बिकता था। लेकिन हर एक दुर्लभ से दुर्लभ कोने में जिसकी दूकान दिखी वो थी मैगी नूडल्स और मोमोज! पॉपुलर कल्चर ने पहाड़ों पर मैगी और मोमोज बखूबी प्रसिद्ध कर दिए हैं।
यहां भी ऐसा ही देखने को मिला। एक बात जो बार-बार मन में आयी, वह थी कैसे इतने सालों में भी मैगी आज भी 10-12 ही रुपये की ही मिलती है?
रूरल मार्केटिंग अथवा सी. के प्रह्लाद जी की "बॉटम ऑफ द पिरामिड" का उल्लेख करना यहां आवशयक है। क्योंकि पांच रुपये की छोटी मैगी हर जगह मिलती है। इन सब के बीच यह भी लगा कि पुरानी चीजों को कैसे जीवित रखा जाए जैसे की वहां का देसी खाना, रहन सहन का तरीका।
अगले दिन ऋषिकेश में हर जगह फाइव स्टार होटल्स पहाड़ों के बीच बने हुए देखे। यहां भी प्राइवेट घाट और 'पर्यावरण निजीकरण' या फिर मैं कहना चाहूंगी "ईको -कैपिटलिज्म' अथवा 'पर्यावरण पूंजीवाद' देखने को मिला।
हालांकि जिन भी जगहों पर जाना हुआ वहां साफ सफाई, एवं होटल्स की सुरक्षा और पर्यावरण के प्रति संवेदना देख कर ख़ुशी भी हुई। इन होटल्स में उत्तराखंड का देसी खाना और वहां की स्पेशल गढ़वाली थाली भी चखने को मिली। जैसे मांडवा या रागी की बानी रोटी, पहाड़ी दाल, साग, पहाड़ी फल, मिर्ची का तीखा नमक, पहाड़ी गलगल का अचार, सरसों के तड़के में बना रायता वगैरह।
ऋषिकेश में 'बुरांश' या 'रोडोडेंड्रोन' जो की यहाँ का राज्य पेड़ भी है,उसका शरबत / जूस भी खूब पीने को मिला। यहाँ पर हर जगह यह भारी मात्रा में मिलता है और इसका स्वाद बेहद ताज़ा होता है।
ऋषिकेश में शिवपुरी और ब्रह्मपुरी काफी प्रसिद्ध "रिवर राफ्टिंग" पॉइंट्स हैं। भारी तादाद में यहाँ दिल्ली और आस पड़ोस से युवा राफ्टिंग करने आते हैं। यहाँ हमारे ड्राइवर जी ने हमे बताया की राफ्टिंग में पत्थरों से बहुत चोट लगती है इसलिए संभल कर पानी में जाना चाहिए।
ऊपर घाटियों से लोगों को राफ्टिंग करते देख और घाटियों की सडकों पर चार धाम के यात्रियों का ट्रैफिक में फंसना। नीचे नदी की ख़ामोशी अउ ऊपर लोगों की चहल पहल! लेकिन सफर यहाँ रोमांचक था। घाटियों के बीच से निकलते हुए यहाँ के लोग भुट्टे, मिर्ची के नमक के साथ बेच रहे थे। उसी तरह भेल पूरी, खीरा ककड़ी, पानी, आइसक्रीम, हर तरह की चीज़ ट्रैफिक जैम में फंसे-फंसे आप खा-पी सकते थे।
लम्बी-लम्बी कतारों में खड़ी गाड़ियां और उनके बीच यह चीज़ें बेचते वहां के किसान,और निवासी। इसको मैंने "ट्रैफिक जैम इकॉनमी" का नाम दिया।
गंगा जी नदी यहाँ से दिखती थीं। ब्रह्मपुरी पॉइंट से नीचे गंगा जी का शान्ति से बहता हरा जल देख मन को सुकून पहुंचता। साल के लम्बे पेड़ों के बीच बहती हुई गंगा जी की धारा। मूंज घास के खूबसूरत पौधे, और जंगली बेरों के पेड़। नदी किनारे की मिट्टी और गोल पत्थर। देखते ही देखते हमारा सफर भी खत्म होने को आया।
दो साल के बाद प्रकृति के बीच रहने का मौका मिला। यहां प्रकृति की शान्ति एवं उसकी बातें उसकी भावनाएं महसूस की और यह निश्चय भी लिया कि कैसे प्रकृति की तरफ और संवेदनशील बना जा सकता है। नमामि गंगे के तहत जिला प्रशासन एवं राज्य सरकार ने बहुत काम किये हैं।
हालांकि पर्यावरण एवं उसका संरक्षण जन भागीदारी से ही किया जा सकता है। और यह प्रकृति की अनकही पुकारों को सुनकर ही पूर्ण रूप से प्राप्त किया जा सकता है।