राजस्थान: जहरीली जोजरी नदी से संकट में पड़ा धवा डोली ओरण के जंगली जानवरों का जीवन

धवा डोली ओरण में ब्लैक बक और चिंकारा की अच्छी खासी संख्या थी, लेकिन अब इनकी संख्या कम होती जा रही है
जोजरी नदी का प्रदूषित पानी जो धावा डोली ओरण से सटे खेत में भरा हुआ है। फोटो: सतीश कुमार मालवीय
जोजरी नदी का प्रदूषित पानी जो धावा डोली ओरण से सटे खेत में भरा हुआ है। फोटो: सतीश कुमार मालवीय
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राजस्थान के जोधपुर की जोजरी नदी में प्रदूषण के चलते धवा डोली वाइल्ड लाइफ सेंचुरी का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। कुछ वर्ष पहले तक यहां बड़ी संख्या में वन्यजीव और बहुत अच्छे स्तर की जैव विविधता पाई जाती थी, लेकिन जब से जोजरी का विषैला पानी यहां पहुंचा है, यहां की पूरी जैव विविधता नष्ट हो गई हैं।   

जोधपुर वन अधिकारी सरिता कुमारी कहती हैं, “धवा डोली क्षेत्र एक विशाल ओरण है। यहां वन्य जीवों और वनस्पति को नष्ट होते देख मैं बहुत निराश हूं। यह क्षेत्र वन विभाग द्वारा संरक्षित नहीं है। ओरण होने के कारण बहुत कड़े प्रतिबंध द्वारा इसे स्थानीय गांव वालों और समुदाय द्वारा संरक्षण दिया जाता है। लेकिन अब तक इसका संरक्षण नहीं हो पाया है।"

धवा डोली का संरक्षण कैसे हो? इस सवाल पर इकॉलोजिस्ट और वन्यजीव विशेषज्ञ सुमित डूकिया सबसे बड़ी अड़चन ओरण का राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज होना बताते हैं। 

राजस्व रिकॉर्ड में होने के कारण वन विभाग या प्रशासन इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। जैसे वन्यजीवों की बेहतरी के लिए कुछ करना हो या एनिमल रेस्टोरेशन प्रोजेक्ट चलाना है तो उसमें अड़चन आती है। सिर्फ धवा डोली ही नहीं राजस्थान के सभी ओरणों की यही स्थिति है।

उन्होंने बताया कि देश में तीन तरह के जंगल है। पहला आरक्षित जंगल, दूसरा संरक्षित जंगल और तीसरा जिसे डिम्ड फॉरेस्ट कहते हैं। लेकिन यहां डिम्ड फॉरेस्ट का लोग विरोध करते हैं। क्योंकि अब ओरण की जमीन पर किसी ना किसी गतिविधि के लिए वन विभाग की मंजूरी की जरूरत रहेगी । 

धवा डोली ओरण के वन्य जीवन पर सुमित डुकिया ने बताया कि यहां ऐसे कई वन्यजीव है, जिन्हें बाघ जितना संरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन उनके संरक्षण के लिए कोई कदम नहीं उठाता न ही कोई अब तक प्रयास किया गया। जोजरी का विषैला पानी ओरण तक आया, इसके लिए उद्योगों का जहरीला कचरा  जिम्मेदार है। यहां का वन्य पारिस्थितिकी तंत्र बर्बाद हो गया है।

अगर हम राजस्थान में जिलेवार वन्यजीव गणना पर नजर डाले तो जोधपुर जिला और संभाग में साल दर साल चिंकारा और ब्लैक बक की गिरती हुई संख्या के आंकड़े देखने को मिलेंगे।

जुलाई महीने में आए 2024 के आंकड़ों के अनुसार जोधपुर जिले में केवल 262 ब्लैकबक हैं और पूरे संभाग में 1008,वहीं चिंकारा जिले में 2865 और संभाग में 1133। साल 2019 में चिंकारा पुरे जोधपुर संभाग में 3989 थे और ब्लैकबक 1427। वहीं साल 2015 की वन्यजीव गणना से इसकी तुलना करें तो वर्तमान में संख्या में गिरावट साफ दिखती है।

2015 की गणना के मुताबिक जिले में चिंकारा 5441 तथा संभाग में 5004 और ब्लैकबक जिले में मात्र 341 और संभाग में 2361 थे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के असद रहमानी और रवि संकरन के अनुसार 1990 में केवल धवा डोली के 400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही 3700 ब्लैक बक व 5450 चिंकारा मौजूद थे।

जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी के वाइल्डलाइफ रिसर्च एंड कंसर्वेशन अवारेनेस सेंटर से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार धवा डोली में 1996 में 1416,1997 में 1202 और उनके पास अंतिम मौजूद आंकड़ों में 2005 में 725 ब्लैकबक थे, हमें तब के चिंकारा के आंकड़े नहीं मिल पाये हैं।

एक अन्य पेपर के अनुसार धवा में 2015 के अंदर 401 ब्लैक बक थे वहीं संरक्षित क्षेत्र गुड़ा बिश्नोई में 630 ब्लैक बक मौजूद थे। गुड़ाबिश्नोई में जंगल सफारी कराने वाले छोटाराम प्रजापति के अनुसार पिछले 10-15 वर्षों में ब्लैक बक और चिंकारा की संख्या में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा गिरावट आई है।

पहले जहां 100-100 के क्षुण्ड में हिरण देखते थे अब केवल 7-8 के क्षुण्ड देखते हैं। हिरणों की संख्या में गिरावट के पीछे प्रजापति इलाके में बढ़ती हुई फैक्ट्रीयों की संख्या और खेती के इलाकों का बढ़ना बताते हैं।

 जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी के वाइल्डलाइफ रिसर्च एंड कंसर्वेशन अवेरनेस सेंटर के प्रमुख प्रोफेसर हेमसिंग गेहलोत के अनुसार क्षेत्र में मिलने वाली विशेषतया कटीली पूंछ की छिपकली की संख्या पर भी असर पडा है।

लूणी की सहायक नदी जोजरी में बढ़ते हुए प्रदूषण ने धवा क्षेत्र की जैव  विविधता के साथ-साथ सर्दियों में आने वाले प्रवासी पक्षियों की संख्या में भी गिरावट आई है।

गेहलोत के अनुसार आवारा कुत्तों द्वारा शिकार, घास के मैदानों का खेतों में बदलना,खेती और फैक्ट्रीयों के कारण जीवों के आवासों का नष्ट होना भी यहाँ के जानवरों की संख्या में गिरावट के अन्य कारण हैं।

सुमित डुकिया बताते हैं कि 2008-10 के आसपास कुछ लालची किसानों ने नदी के मार्ग में रेत की बोरियां रख दीं और उस प्रदूषित पानी को सर्दियों की फसल उगाने के लिए मोड़ दिया। इससे स्थिति बेकाबू हो गई। 

जोधपुर जिले के वन्यजीव पहले अन्य कृषि क्षेत्रों में पाए जाते थे और कृषि केवल वर्षा पर निर्भर थी। इसलिए लगभग 8 महीने तक जंगली शाकाहारी जानवरों के चरने के लिए खेत खुले रहते थे। लेकिन अब खेत पूरी तरह से सुरक्षित हैं, बाड़ लगी हुई है और लगभग हर दूसरे कृषि क्षेत्र में मानव उपस्थिति के कारण, कुत्तों की संख्या भी नियंत्रण से बाहर हो गई है। वे वन्यजीवों को मार रहे हैं और भेड़ियों की अनुपस्थिति में शीर्ष शिकारी बन गए हैं।

वह कहते हैं कि संरक्षित क्षेत्र की घोषणा से हालात बदल सकते हैं। जैसे ताल छापर वन्यजीव अभयारण्य है। यहां केवल 800 हेक्टेयर में 4000 से अधिक काले हिरण हैं।

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