आपने मातृभाषाओं और स्थानीय भाषाओं में गहन अध्ययन किया है। क्या आप मानते हैं कि ऐसी ज्यादातर भाषाएं जैव विविधता से संपन्न क्षेत्रों में पाई जाती हैं? अगर हां तो क्यों?
मानव के विकास के इतिहास को देखें तो हम पाएंगे कि जैव विविधता और सांस्कृतिक विविधता के बीच गहरा संबंध रहा है। इसका कारण यह है कि मनुष्य ने आमतौर पर अपने रहने के लिए ऐसे स्थानों का चयन किया है जहां उनकी जिंदगी आसान हो। ये ऐसे स्थान हैं जहां भोजन और जल आसानी से उपलब्ध है। वनस्पतियों और पशुओं के साथ भी ऐसा ही है। पशुओं की प्रजातियां भी ऐसे जलवायु क्षेत्रों और प्राकृतिक संसाधनों ये युक्त क्षेत्रों का रुख करती हैं जो उनकी जिंदगी में सहायक हों। इस तरह स्थान के चयन के मामले में मनुष्यों की आबादी और जैव विविधता में मिलीजुली समानताएं हैं। जिन स्थानों में परिस्थितियों बेहद मुश्किल नहीं हैं, वहां आबादी का विकास तेजी से होता है। मनुष्य ऐसे स्थानों पर अपने परिवार का विस्तार करने की संभावनाएं तलाशते हैं। सभ्यता के इतिहासकार इसे पॉपुलेशन नॉट्स (बड़े पैमाने पर परिवार का विस्तार जहां लंबे समय तक लोग एक ही स्थान पर रहते हैं, कई बार शताब्दियों तक) का नाम देते हैं। यह पॉपुलेशन नॉट्स किसी भाषा के विकास की नींव रखती है। अक्सर यह भाषा दूसरी भाषाओं से अलग और स्वतंत्र होती है। अगर क्षेत्र भारतीय उप महाद्वीप या उत्तरी अमेरिया या दक्षिणी अमेरिका जैसा व्यापक हो तो आबादी की बसावट आसान होती है। ऐसी जगहों पर बहुत सी पॉपुलेशन नॉट्स होती हैं और बहुत सी भाषाएं उभर आती हैं। ये क्षेत्र जीवन में सहायक होते हैं और यहां जैव विविधता भी अधिक होती है। अंत: हम कह सकते हैं कि भाषा के विकास और प्राकृतिक विविधता के विकास का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है।
जैव विविधता में नुकसान से भाषाओं को नुकसान क्यों पहुंचता है? जैव विविधता और भाषायी विविधता में क्या संबंध है?
देखिए, जैसे-जैसे मनुष्यों की आबादी बढ़ती है, वह अपने आसपास की जैव विविधता पर अपने निशान छोड़ने लगती है। ईसा के जन्म से करीब 9,500 साल पहले होलोसीन नामक जलवायु युग का प्रादुर्भाव हुआ था। इसका अर्थ यह था कि हिमयुग युग खत्म हो गया था और धरती से बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगी थी। इससे धरती की सतह का तापमान बढ़ गया और होमो सेपियंस के विकास की संभावनाएं बलवती हो गईं। करीब 11,000 साल तक आबादी का विकास इतना नहीं हुआ कि धरती के जैविक और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़े। हालांकि औद्योगिक सभ्यता के विकास के साथ मनुष्यों ने धरती पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल शुरू कर दिया जिसकी भरपाई धरती की क्षमता से बाहर थी। वैज्ञानिक बताते हैं कि अब हम एंथ्रोपोसीन युग में प्रवेश कर चुके हैं। ऐसी सभ्यताओं में जहां एक जगह उत्पादन होता है लेकिन उपभोग बहुत से दूरस्थ स्थानों पर होता है, वहां पलायन और परिवहन बढ़ जाता है। इससे मनुष्य की आर्थिक सस्टेनेबिलिटी से जुड़ा पॉपुलेशन नॉट्स का सिद्धांत महत्व खो देता है। आपने गौर किया होगा कि मानव समाज में मूलभूत परिवर्तन पिछले 500 सालों के दौरान आए हैं। इसकी मूल वजह है आवागमन में तेजी। इससे इस धारणा को बल मिला कि अगर मनुष्य को उत्पादन-यातायात-आपूर्ति और उपभोग अर्थव्यवस्था में खुद का अस्तित्व बचाना है तो जीवन से मरण तक एक ही स्थान पर रहने की जरूरत नहीं है। दुनियाभर में देखा जा रहा है कि पलायन के दबाव के कारण ही भाषाएं विलुप्त हो रही हैं। अगर वैश्विक स्तर पर पलायन की गणना करें तो हम पाएंगे कि दुनिया की आठ बिलियन आबादी में से करीब 35 प्रतिशत आबादी प्रतिदिन काम के सिलसिले में पलायन करती है। ये आंकड़े बहुत बड़े हैं। प्रतिदिन होने वाला यह व्यापक पलायन पर्यावरण के विनाश के साथ ही भाषाओं विलुप्ति के लिए जिम्मेदार है।
क्या आप मानते हैं कि भाषायी विविधता जैव विविधता का ही हिस्सा है? अगर हां तो हम भाषाई विविधता को जैव विविधता का हिस्सा क्यों नहीं मानते?
नहीं। यह तार्किक नहीं है। भाषा एक तंत्र है, इसमें संदेह नहीं है लेकिन यह “प्राकृतिक” तंत्र नहीं है। यह ध्वनि आधारित चिन्हों का तंत्र है जिसे मनुष्यों ने बनाया है। इसलिए यह मानव निर्मित है, प्राकृतिक नहीं। भाषा एक सामाजिक तंत्र है। दूसरी तरफ जैव विविधता है जो मानवीय इच्छाओं से स्वतंत्र जन्म लेती है। हमें यह समझना होगा कि भाषा हमें नि:शुल्क प्राप्त होती है लेकिन यह हवा, पानी, आकाश या प्राकृतिक भूदृश्य की तरह नहीं है। इन प्राकृतिक तत्वों का इतिहास करीब 4 बिलियन वर्षों का है, जबकि जीवन का इतिहास 2.5 बिलियन वर्षों का रहा है। भाषा को संचार का माध्यम तो मनुष्यों ने बनाया है। इसका इतिहास मुश्किल से 70,000 वर्षों का है। इसलिए इसे प्राकृतिक विविधता का हिस्सा नहीं माना जा सकता।
आपका अध्ययन बताता है कि पिछले 50 वर्षों में 200 से अधिक भारतीय भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। ये भाषाएं किन क्षेत्रों में बोली जाती थीं? किन क्षेत्रों की भाषाओं पर अधिक खतरा है?
सबसे अधिक खतरा घुमंतू समुदायों की भाषा पर है। इस समुदाय के लोग लगातार इस डर में रहते हैं कि दूसरे लोग उन्हें पहचान न लें। सामाजिक स्टिग्मा के कारण ये लोग अपनी पहचान छिपाकर रखना पसंद करते हैं। इस वजह से ये लोग अन्य भाषा बोलने वाले लोगों के सामने अपनी भाषा का इस्तेमाल करने से बचते हैं। इसका नतीजा यह निकला कि समुदाय के लोग अपनी भाषा के बहुत से शब्द भूल चुके हैं। घुमंतू समुदाय के अलावा तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की भाषा भी सबसे अधिक खतरे में है। सी फार्मिंग कानूनों में बदलाव से उनके परंपरागत जीवनयापन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। इसके फलस्वरूप वे तटीय क्षेत्रों से ऊपरी हिस्सों की ओर पलायन कर रहे हैं और उनकी भाषाएं तेजी से खत्म हो रही हैं। सत्ता के गलियारों तक उनकी आवाज नहीं पहुंच रही है, जिससे उनके मसलों का समाधान नहीं हो रहा है।
आने वाले वर्षों में भी भाषाओं की विलुप्ति की दर तेज रहने वाली है। आप इस खतरे को किस रूप में देखते हैं? भाषा का मरना हम सबके के लिए चिंता का विषय है। हर भाषा में दुनिया को देखने और समझने का नजरिया होता है। जब भाषा मरती है तो दुनिया को देखने का नजरिया भी हमेशा के लिए खत्म हो जाता है। दूसरी भाषा खत्म हो चुकी भाषा की जगह नहीं ले सकती है क्योंकि हर भाषा का अपना नजरिया होता है। वर्तमान में भाषा पर खतरा नीतिगत या पलायन से अधिक नहीं है, यह तकनीक से बढ़ रहा है। कृत्रिम मेमोरी (मानव निर्मित मेमोरी चिप) ने “आभासी संसार में जीवन” की संभावनाएं तलाश दी हैं। इस नए संसार में समय और जगह की कोई सीमा नहीं है। इस नए संसार में संख्याओं के माध्यम से संचार हो रहा है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि संख्या किसी तत्व से नहीं बनी है। ये न तो जगह घेरती हैं और न ही गुरुत्वाकर्षण से नियम से बंधी हैं। इन्हें बिना नुकसान पहुंचाए धरती के पर्यावरण से बाहर आसानी से भेजा जा सकता है। इस तरह मानव ऐसी भाषाओं को आकार दे रहा है जो ध्वनि आधारित नहीं हैं। धरती से बाहर भी इनकी पहुंच है और ये प्रकाश की गति से यात्रा कर सकती है। ये भाषाएं ध्वनि के बजाय तस्वीरों के प्रति उन्मुख हैं। इस तरह मानव डिजिटल भाषा के आधार पर तस्वीरों की विस्तृत श्रृंखला को आकार देने की कोशिश कर रहा है। इस प्रक्रिया में मनुष्य उन ध्वनि आधारित भाषाओं को नष्ट कर रहा है जो पिछले 70,000 सालों से प्रयोग में हैं। इस बदलाव से मनुष्य की जो स्मृतियां परंपरागत भाषा में निहित हैं, खो जाएंगी। हम अगर ऐतिहासिक भाषाओं को खो देंगे तो यह बड़ी क्षति होगी। मानवीय भाषा से तस्वीर आधारित भाषा में स्थानांतरण मनुष्यों के लिए बहुत दुखदायी होगा।
क्या शक्तिशाली भाषा कमजोर भाषाओं को खत्म कर रही हैं?
मैं इससे पूरी तरह सहमत नहीं हूं। इतिहास से हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें सीमावर्ती भाषा ने मुख्य भाषा का स्थान ले लिया। उदाहरण के लिए लैटिन भाषा खत्म हो गई और क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हुआ। इसी तरह संस्कृत संकुचित हो गई लेकिन प्राकृत से नई भाषाओं का जन्म हुआ। अगर इसके दूसरे पक्ष को देखें तो ऑस्ट्रेलिया में अंग्रेजी के फैलाव के साथ सभी देसी भाषाएं खत्म हो गईं। मानव के इतिहास में ऐसा कोई मानक सिद्धांत नहीं बना जो भाषाओं के टकराव को उसे पहुंचने वाले खतरे से जोड़कर देखे। इसलिए मैं “भाषा खतरे में हैं” जैसे भावनात्मक कथन की विवेचना से बचना चाहूंगा। दूसरी तरफ मैं यह भी कहूंगा कि भाषा पर बड़ा खतरा तब मंडराता है जब उसे बोलने वाले समुदाय की आजीविका पर संकट छाता है। अगर ऐसा होता है तो संपूर्ण समुदाय भाषा से पलायन कर सकता है और ऐसी भाषा का प्रयोग शुरू कर सकता है जिससे उसे आजीविका में मदद मिलती है।
क्या किसी विलुप्त हो चुकी भाषा को जीवित किया जा सकता है? क्या आप ऐसा कोई उदाहरण बता सकते हैं? वास्तव में नहीं। विलुप्त हो चुकी भाषा तो “सैद्धांतिक” रूप से ही पुनर्जीवित किया जा सकता है। इसके लिए प्रशिक्षित कुछ लोग नियंत्रित स्थितियों में इसका इस्तेमाल शुरू कर सकते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत को ही लीजिए जिसका इस्तेमाल संस्कृत पाठशालाओं में अब भी होता है। लेकिन जटिल सामाजिक आदान-प्रदान में इसका प्रयोग नहीं होता। इसलिए कह सकते हैं एक बार खत्म होने के बाद भाषा हमेशा के लिए खत्म हो जाती है।
आपने भाषाओं की विलुप्ति का क्या चलन देखा?
पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वेक्षण के दौरान मैंने गौर किया था कि हाशिए पर खड़े बहुत से समुदायों ने रंगों और आकाश व समय से जुड़े शब्द खो दिए हैं। मैंने यह भी देखा कि एक शताब्दी पहले भूतकाल को परिभाषित करने वाली शाब्दिक विविधता भी मौजूदा समय की भाषा में कम हो रही है। भाषा के काल संरचना में धीरे-धीरे हुआ पतन यह प्रमाणित करता है कि उसका भविष्य खतरे में है। सभी मानवीय भाषाओं की संरचनाएं अतीत और भविष्य के विविध रंग संजोकर रखती हैं।