

पुष्कर मेला 2025 30 अक्टूबर से 5 नवम्बर तक आयोजित किया जा रहा है, जिसमें देश-विदेश से हजारों पर्यटक पहुंचते हैं।
इस बार मेले में घोड़ों की संख्या लगभग 4,000 तक पहुंचने का अनुमान है, जबकि ऊंटों की संख्या घटकर करीब 1,400 रहने की खबर है।
ऊंटों की गिरती संख्या का कारण राजस्थान से बाहर उनके यातायात पर लगी रोक और ऊंट पालन की घटती उपयोगिता है।
भारत में ऊंटों की आबादी 1961 के लगभग 10 लाख से घटकर अब केवल 2 लाख के आसपास रह गई है, जबकि दुनिया भर में उनकी संख्या बढ़ी है।
कभी ऊंट व्यापार का प्रतीक रहा पुष्कर मेला अब राजस्थान की लोक संस्कृति, घोड़ों की रौनक और पर्यटन का जीवंत उत्सव बन चुका है।
राजस्थान के पवित्र नगर पुष्कर में इन दिनों रौनक अपने चरम पर है। साल 2025 का पुष्कर मेला 30 अक्टूबर से पांच नवम्बर तक आयोजित किया जा रहा है। यह वही प्रसिद्ध मेला है जो कभी ऊंटों और पशुओं के विशाल व्यापार के लिए जाना जाता था, लेकिन अब यह राजस्थान की संस्कृति, लोककला और परंपरा का उत्सव बन चुका है।
पारंपरिक पशु मेले से सांस्कृतिक पर्व तक
सदियों पुराना यह मेला शुरू में पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए लगा करता था। रेगिस्तान के व्यापारी ऊंटों, बैलों और घोड़ों के साथ यहां आया करते थे। व्यापार, मेलजोल और धार्मिक आस्था-तीनों का संगम इस मेले में होता था।
लेकिन समय के साथ तस्वीर बदलने लगी। आज इस मेले की पहचान केवल पशु व्यापार से नहीं, बल्कि लोक संगीत, नृत्य, हस्तशिल्प और पर्यटन से जुड़ गई है। देश-विदेश से हजारों पर्यटक पुष्कर की रेत में राजस्थान की रंगीन संस्कृति को निहारने आते हैं।
ऊंटों की जगह अब घोड़ों का जलवा
इस साल मेले में एक बड़ा बदलाव आया है। जहां कभी ऊंटों के बड़े-बड़े काफिले आते थे, वहां अब घोड़े मुख्य आकर्षण बन गए हैं। मीडिया रिपोर्टों की मानें तो इस साल करीब 4,000 घोड़े मेले में पहुंचे हैं, जबकि ऊंटों की संख्या लगभग 1,400 के आसपास रह गई है।
यह बदलाव केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि मेले के स्वरूप में भी साफ दिख रहा है। घोड़ों की सजावट, प्रदर्शन और सौदेबाजी अब हर जगह नजर आती है। व्यापारी और खरीदार अलग-अलग नस्लों के घोड़ों को लेकर उत्साह से भरे हुए हैं। वहीं ऊंटों के बाड़े पहले की तुलना में छोटे और शांत नजर आ रहे हैं।
ऊंटों की घटती संख्या: चिंता का विषय
राजस्थान में ऊंट केवल एक पशु नहीं, बल्कि रेगिस्तान का साथी और संस्कृति का प्रतीक रहा है। लेकिन आज उनकी संख्या लगातार घट रही है।
भारत सरकार की गणनाओं के अनुसार, 1961 में भारत में लगभग 10 लाख ऊंट थे। आज उनकी संख्या घटकर करीब दो लाख (200,000) रह गई है। राजस्थान, जो देश में ऊंट पालन का सबसे बड़ा केंद्र है, वहां भी स्थिति चिंताजनक है।
2007 में राजस्थान में लगभग 4.2 लाख ऊंट थे।
2012 में यह घटकर 3.25 लाख रह गए।
2019 में इनकी संख्या और घटकर 2.1 लाख से थोड़ी अधिक रह गई, यानी सात साल में लगभग 35 प्रतिशत की कमी।
क्यों घट रहे हैं ऊंट?
इस गिरावट के पीछे कई कारण बताए जा रहे हैं। सबसे प्रमुख कारण है राजस्थान के बाहर ऊंटों के यातायात पर लगी रोक। कुछ साल पहले राज्य सरकार ने ऊंटों की बिक्री और यातायात पर सख्ती की थी, ताकि उनका शोषण और अवैध व्यापार रोका जा सके। लेकिन इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव से व्यापारी ऊंट खरीदने-बेचने से कतराने लगे।
इसके अलावा कृषि और यातायात के आधुनिक साधनों ने भी ऊंटों की उपयोगिता घटा दी है। अब ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल और जीप ने ऊंटगाड़ियों की जगह ले ली है।
चरागाहों की कमी, जलवायु परिवर्तन और ऊंटपालकों की घटती आमदनी ने भी ऊंट पालन को मुश्किल बना दिया है। परिणामस्वरूप आज राजस्थान के कई इलाकों में ऊंटों के झुंड विरले ही दिखाई देते हैं।
घोड़ों की बढ़ती लोकप्रियता
ऊंटों की जगह अब घोड़ों की चमक बढ़ती जा रही है। मारवाड़ी और काठियावाड़ी जैसी घोड़ों की नस्लें अब व्यापारियों की पहली पसंद हैं। ये घोड़े न केवल आकर्षक होते हैं बल्कि उनकी सवारी और प्रदर्शन भी दर्शकों को लुभाते हैं।
पुष्कर मेले में इन दिनों घोड़ों की नीलामी और प्रदर्शन एक बड़ा आकर्षण बन चुके हैं। कई व्यापारी इन्हें खेल, शादी-ब्याह, शो और पर्यटन गतिविधियों के लिए खरीदते हैं।
विश्व स्तर पर बढ़ रहे हैं ऊंट, भारत में घट रहे हैं
दिलचस्प बात यह है कि जहां भारत में ऊंटों की संख्या घट रही है, वहीं दुनिया के कई देशों में उनकी संख्या बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था - फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) के अनुसार, 1960 के दशक में दुनिया में लगभग 1.3 करोड़ ऊंट थे, जो अब बढ़कर 3.5 करोड़ से अधिक हो गए हैं।
एफएओ ने साल 2024 को “इंटरनेशनल ईयर ऑफ कैमलिड्स” यानी ऊंट प्रजातियों का अंतरराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया था, ताकि दुनिया में ऊंटों की उपयोगिता और उनकी सुरक्षा पर ध्यान दिया जा सके।
बदलते समय का प्रतीक
पुष्कर मेला आज भी राजस्थान की जीवंत परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। लेकिन ऊंटों की घटती मौजूदगी इस बात की याद दिलाती है कि परंपराएं भी समय के साथ बदलती हैं।
रेगिस्तान का यह मेला अब घोड़ों की टापों, लोकगीतों की धुनों और पर्यटकों की भीड़ से गूंज रहा है। फिर भी, जब शाम को सूर्यास्त होता है और रेत के बीच कुछ ऊंटों की परछाइयां लंबी होती जाती हैं, तो लगता है जैसे राजस्थान की आत्मा अब भी उन्हीं ऊंटों के साथ चलती है, भले ही उनकी संख्या कम क्यों न हो गई हो।