अखबारों में खनन मजदूरों की मौत की खबरों के संकलन ने रखी एक फिल्म की नींव

सीएसई की एक रिपोर्ट को फिल्म का आधार बनाया गया है कि सबसे ज्यादा खनिज संसाधन जहां पाए जाते हैं, वहां गरीबी, विस्थापन, बेरोजगारी सबसे अधिक है
अखबारों में खनन मजदूरों की मौत की खबरों के संकलन ने रखी एक फिल्म की नींव
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“ग्रामीण कहते हैं- कोयला खनन के लिए हमारे पेड़, पौधे, जंगलों को बर्बाद किया जा रहा है, जिसके जवाब में खनन से जुड़े अधिकारी कहते हैं- आदिवासी इलाकों में कोयला देकर भगवान ने गलती की”। यह संवाद हाल ही में चर्चा में आई डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘रैट ट्रैप’ का है।  

अखड़ा प्रोडक्शन में झारखंड के कोयला खनन पर बनी इस फिल्म के निर्देशक रूपेश कुमार साहू इस संवाद को समझाते हुए कहते हैं, “आप खनन कंपनियों की मानसिकता को समझिए, जिनका उदेश्य हर कीमत पर कोयला निकालना है। उसके बाद वहां से उजाड़े गए ग्रामीणों का कोई हाल न कंपनी लेती है और ना सरकार।”

कोयला खनन के कारण हुए विस्थापन, बेरोजगारी, जंगलों की कटाई और मुख्य रूप से अवैध खनन में दबकर मर रहे गरीब दलित, आदिवासियों के दर्द और पीड़ा प्रदर्शित करती ‘रैट ट्रैप’ सिस्टम से सवाल और समाधान पर बात करती है। 

इस फिल्म को बनाने के उदेश्य को रूपेश कुमार साहू डाउन टू अर्थ से बताते हैं, “हमारे यहां किसी और कारण से उतनी मौत नहीं होती है, जितनी अवैध खनन में दबकर मजदूर मरते हैं। आए दिन ऐसी घटना में लोग मर रहे हैं। 2017 से जब अखबारों के माध्यम से मैंने इन मौतों को गिनना शुरू किया तो उसकी संख्या 150 के पार हो गई। मैंने इन मौतों को डॉक्यूमेंट, यानी फिल्म बनाना शुरू किया और लॉकडाउन के दौरान पूरी फिल्म को फाइनल कर पाया।”

फिल्म को फरवरी में धनबाद के निरसा में अवैध कोयला खनन में हुई दुर्घटना के दृश्य को दिखाते हुए समाप्त किया गया है। रूपेश का कहना है कि खनन में मरने वाले लोगों का जो सरकार आकंड़ा बताती है, उससे सौ गुना ज्यादा मौत हुई है।

अखबारों की कई रिपोर्ट सरकार और कंपनी से उनकी सुरक्षा पर सवाल तो उठाती हैं, लेकिन सटीक आकंड़ों का जवाब नहीं ढूंढ पाती हैं। उदाहरण के तौर पर, निरसा में हुए अवैध कोयला खनन के मलबे में दबकर मरने वाले मजदूरों की संख्या 18-19 बताई गई, लेकिन सरकारी पक्ष सिर्फ 7 मौतों की पुष्टि करता रहा। 

एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 से 2022 तक देश भर के कोयला खदानों में हुई दुर्घटना में 185 मौते हुई हैं, जिनमें सबसे अधिक 34 मौत झारखंड से है। वहीं एक अन्य रिपोर्ट में श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के हवाले से बताया गया है कि 2015-2017 तक खनन में हुई दुर्घटना से 377 मजदूरों की मौत हुई है, जिनमें 210 मौत कोयला खदानों में दबकर हुई है। इसमें झारखंड में 69 मौत हुई है।

फिल्म में मजदूरों के द्वारा किये जा रहे कोयले के अवैध खनन की वजह खोजने की भी कोशिश की गई है। जान को जोखिम में डालकर इनके द्वार कोयला निकाले जाने का प्रमुख कारण विस्थापन और बेरोजगारी को माना गया है। रूपेश बताते हैं, “एक आम धारणा है कि वे कोयला चोर हैं। वो अवैध ढंग से कोयला निकालते हैं, लेकिन कोई ये नहीं जानना चाहता कि वे चोर क्यों बनें? इसके पीछे की कहनी क्या है? 

झारखंड में कोयला खनन के लिए हजारों एकड़ जमीन कंपनियों को दी गई। वहां बसे लोगों को हटाया गया। उनसे पूछा तक नहीं जाता कि वे कहां जाएंगे? उसके बदले उन्हें रहने के लिए जमीन देते हो, लेकिन क्या आप उन्हें गांव वाला वो वातावरण दे पाते हैं? नहीं दे पाते हैं। उनका जल, जंगल, जमीन नहीं लौटा पाते हैं।”

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की ओर से मार्च में केंद्रीय कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी को लिखे गए पत्र के मुताबिक झारखंड में कोल कंपनियों के द्वारा 32,802 एकड़ गैर मुमकिन (जीएम) भूमि और 6,655.70 एकड़ गैर मुमकिन जंगल झाड़ी(जीएम जेजे) भूमि का अधिग्रहण हुआ है। जाहिर है झारखंड में खनन के लिए जंगलों की कटाई भी बड़े पैमाने पर हुई है।

सरकारी आकंड़े बताते हैं कि देश में 1950 दशक से अब तक एक लाख 64 हजार हेक्टेयर जंगल माइनिंग में तबाह हो चुके हैं। कोयला खनन पुराने और विशाल जंगल को बर्बाद कर रहा है।

मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि माइंस के नाम पर सबसे ज्यादा विस्थापन का दंश और दर्द आदिवासियों ने झेला और झेल रहा है। वो आगे इस बारे कहते हैं, “योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार आजादी के छह दशक तक देश में 6 करोड़ लोग विस्थापित हए हैं, जिनमें 2 करोड़ 40 लाख आदिवासी हैं। इनमें से सिर्फ 25 प्रतिशत विस्थापितों का किसी तरह पुनर्वास किया गया है। झारखंड में 1951 से लेकर 1995 तक 15,03,017 लोग विस्थापित हुए हैं, जिसमें लगभग 80-90 प्रतिशत आदिवासी एवं मूलवासी हैं।”

ग्लैडसन ने इन आकंड़ों का जिक्र अपनी किताब ‘विकास के कब्रगाह’ में भी किया, जिसको फिल्म रैट ट्रैप में प्रयोग किया गया है।

रूपेश कहते हैं, “आदिवासी-मूलवासियों की जमीन उन्हें वापस मिलनी चाहिए, तभी जाकर जमीन पर उन्हें न्यायिक अधिकार मिलेगा। आप उनकी जमीन से कोयला निकालकर वो जमीन वापस नहीं करते हैं। रोजगार के नाम पर मुआवजा का कुछ पैसा दे दिया जाता हैख् जो एक समय के बाद खत्म हो जाता है। उनके पास अगर जमीन रहती तो सारी जिंदगी वे खेती करते। मनरेगा में  काम नहीं है, दूसरा कोई रोजगार नहीं है। मजबूर होकर ये लोग मौत के मुंह जाकर कोयला निकालते हैं। इनके कोयला निकालने का काम बहुत भयावह है। जिस जगह पर ये कोयला निकालने के लिए गड्डा करते हैं, कई दफा वहीं मलबे में दब कर मर जाते हैं।”

रोजगार के संकट में ग्रामीणों ने बंद पड़ी खदानों में छोटे छोटे कुएं या गड्डे खोदकर खनन शुरू कर दिया, जिसे लोग सरल भाषा में रैट होल भी कहते हैं। इसी के मद्देनजर फिल्म का नाम रैट ट्रैप रखा गया है। झारखंड में अधिकांश कोयले का अवैध खनन उसी जगह पर होता जहां पर कंपनियां माइंस निकालकर जमीन को खाली छोड़ देती हैं। 

फिल्म में प्रभावित ग्रामीण कहते हैं कि उन्हें इस काम में कई रिस्क उठाने पड़ते हैं। अगर खदान में कोई फंस गया या मलबे में दब गया तो किसी को बता भी नहीं सकते हैं। अगर मर गए तो मुआवजा तो दूर उल्टा उनपर ही मुकदमा कर दिया जाता है। कई बार जब प्रशासन कोयला निकालने पर पाबंदी लगाता है तो परिवार पर भुखमरी की नौबत आ जाती है। दरअसल खदानों में खनन करते समय किसी तरह की दुर्घटना अथवा मौत हो गई तो ये मृतक मजदूर की लाश को खमोशी से दफना देते हैं, जिसकी भनक पुलिस प्रशासन को नहीं लगने दी जाती है। वरना मृतक के परिवार और साथी मजूदरों के खिलाफ मुकदमा कर कानून कार्रवाई की जाती है।

अवैध खनन से बचने और इस दल दल से निपटने के उपाय भी फिल्म में बताए गए हैं। अर्थशास्त्री और विनोबा भावे यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर डॉ रमेश शरण कहते हैं, “अगर आप इनको अपने देश का नागरिक समझते हैं और इन्हें खतरनाक खनन से कोयला निकालने से बचाना चाहते हैं तो आपको इन्हें कोई विकल्प देना होगा, जिससे वे वहां से कोयला नहीं निकालें और जहां पर से कोयला निकालना खतरनाक नहीं है। वहां पर आप कॉपरेटिव बनाकर कोयला निकालने का इन्हें हक दीजिए। नहीं तो दूसरी जीविका का साधन दीजिए।”   

फिल्म के निर्माता तीन बार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के विजेता बीजू टोप्पो और मेघनाथ हैं। मेघनाथ कहते हैं, “हमारे देश  में लाखों हेक्टेयर अबैन्डन्ड (माइंस निकालने के बाद खाली पड़ी हुई भूमि) माइंस है। इसपर लाखों हाथों को काम मिल सकता है। मगर ये होता नहीं है। इसके लिए हमारी सरकार जिम्मेदार है। विदेशों में जब एक खान बंद होती है तो उस कंपनी को तब तक दूसरी खान नहीं दी जाती, जब तक वो उसको रीइन्सटेट (खनन के बाद उस जगह को फिर से पहली वाली अवस्था बहाल करना) कर लेता है। लेकिन हमारे यहां से 40 सालों से कोई माइंस रीइन्सटेट नहीं हुई। अगर हई होती तो जनता का यह दुर्दशा नहीं होती।”

मेघनाथ कहते हैं, “स्टेट हमें बताता है कि जहां पर माइनिंग होगी वहां के लोगों की तरक्की होगी। लेकिन हकीकत यह है कि जहां माइनिंग होती है वहां के लोग सबसे गरीब होते जा रहे हैं। झारखंड के आंकड़े दिखाते हैं कि यहां के लोगों की हालत पहले से बहुत खराब हुई है।”

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिच लैंड पुअर पीपल नामक रिपोर्ट को फिल्म का आधार बनाया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा खनिज संसाधन जहां पाए जाते हैं, वहां गरीबी, विस्थापन, बेरोजगारी सबसे अधिक हैं। 

देश का 40 प्रतिशत खनिज संपदा झारखंड में पाया जाता है। वहीं देश में कोयले के कुल उत्पादन का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा झारखंड से पूरा होता है। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में सबसे अधिक 86216.82 मिलियन टन कोयले का रिजर्व भंडार है। लौह अयस्क, माइका, बॉक्साइट भी यहां काफी मात्रा में हैं, लेकिन इन सबके बावजूद झारखंड में गरीबी और बेरोजगारी घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। भारत सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में सबसे अधिक 39.96 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग हैं। इनमें सबसे ज्यादा गरीब आदिवासी और दलित सामुदाय के लोग हैं। 

 ‘रैट ट्रैप’ में दिखाया गया है कि अवैध खनन कारण मजदूरों की मौत तीन तरह से हो रही है। एक जो खानों से कोयला निकाल रहा वो मलबे में दबकर मरता है। दूसरा उस कोयले को खरीद कर जो पोड़ा (कच्चे कोयले को जलाकर घरेलु उपोयग योग्य बानने की प्रक्रिया को पोड़ा कहा जाता है) बनाता है, वो प्रदूषण यानी कोयले के धुएं से मरता है और तीसरा जो उसे खरीदकर साइकिल से गांव गांव में बेचने जाता है वो सड़क दुर्घटना में मरता है।

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