अगर भारत में गिद्धों की संख्या कम न होती तो 5 साल में 5 लाख लोगों की बच जाती जान

एक नए अध्ययन के मुताबिक, गिद्ध प्राकृतिक सफाई कर्मी है, लेकिन उनकी कम होती संख्या के कारण साल 2000 से 2005 के बीच पांच लाख लोगों की असामायिक मौत हो गई
केवल एक दशक में भारतीय गिद्धों की आबादी में भारी गिरवाट दर्ज की गई, जो पांच करोड़ से घटकर मात्र कुछ हजार रह गई।
केवल एक दशक में भारतीय गिद्धों की आबादी में भारी गिरवाट दर्ज की गई, जो पांच करोड़ से घटकर मात्र कुछ हजार रह गई।
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भारत में पिछले कुछ दशकों में गिद्धों की आबादी में गिरावट के विनाशकारी प्रभाव पड़े हैं। एक अध्ययन में कहा गया है कि इस पारिस्थितिक आपदा के कारण साल 2000 से 2005 के बीच पांच लाख लोगों की असमय मृत्यु हुई होगी। इन अहम सफाईकर्मियों की अनुपस्थिति के कारण होने वाला सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट जैव विविधता और मानव स्वास्थ्य के बीच मौजूद नाजुक संतुलन को दर्शाता है।

अमेरिकन इकोनॉमिक रिव्यू में प्रकाशित अध्ययन में संबंधित सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से होने वाले धन के नुकसान को हर साल लगभग 70 अरब डॉलर बताया गया है। ये परिणाम गिद्धों जैसी प्रमुख प्रजातियों के संरक्षण का सुझाव देते हैं।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, गिद्ध भारत में एक प्रमुख प्रजाति है, जो देश के कई पारिस्थितिकी तंत्रों के कामकाज के लिए जरूरी हैं। ये शिकारी पक्षी न केवल बीमारी से ग्रस्त शवों को साफ करते हैं, वे अन्य मैला ढोने वाले जीवों की आबादी को कम करते हैं, जैसे कि जंगली कुत्ते जो रेबीज फैला सकते हैं। इसके अलावा पशुपालक अपने मृत पशुओं को जलमार्गों में फेंक देते हैं, जिससे बीमारी और फैलती है।

साल 1994 में किसानों ने दर्द, सूजन और अन्य स्थितियों के उपचार के लिए मवेशियों और अन्य पशुओं को डिक्लोफेनाक नामक दवा देना शुरू किया, लेकिन यह उन गिद्धों के लिए जहरीली थी जो इन जानवरों को खाते थे, जिससे उनके गुर्दे नष्ट हो जाते थे। केवल एक दशक में, भारतीय गिद्धों की आबादी में भारी गिरवाट दर्ज की गई, जो पांच करोड़ से घटकर मात्र कुछ हजार रह गई।

अध्ययन में एक पर्यावरण विशेषज्ञ ने अपनी आंखों देखी घटना का वर्णन करते हुए लिखा है- चमड़े के कारखानों के पास मवेशियों के शव जमा हो गए, जिससे जहरीला कचरा जलमार्गों को दूषित कर रहा था। मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन करने के लिए उन्होंने गिद्धों के आवासों के मानचित्रों को जोड़ा और 600 से अधिक जिलों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का विश्लेषण किया, जिसमें जल गुणवत्ता और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच जैसे बदलाव शामिल थे।

साल 1994 से पहले, सर्वेक्षण किए गए जिलों में लोगों की मृत्यु दर औसतन प्रति 1000 लोगों पर लगभग 0.9 फीसदी थी, जो एक आधार रेखा थी जो इस बात का हिसाब रखती है कि किसी विशेष जिले में बहुत सारे गिद्ध हैं या नहीं। लेकिन 2005 के अंत तक, जिन क्षेत्रों में पारंपरिक रूप से बड़ी संख्या में गिद्ध रहते थे, वहां औसतन मानव मृत्यु दर में 4.7 फीसदी की वृद्धि हुई, या हर साल लगभग 104,386 अतिरिक्त मौतें हुई। इस बीच, उन जिलों में मृत्यु दर जो गिद्धों के विशिष्ट घर नहीं थे, 0.9 फीसदी पर स्थिर रही।

धन की हानि की गणना करने के लिए, टीम ने पिछले शोध का सहारा लिया, जिसने भारतीय समाज द्वारा एक व्यक्ति की जान बचाने के लिए लगभग 6,65,000 डॉलर खर्च करने की इच्छा के आर्थिक मूल्य की गणना की। इससे 2000 से 2005 तक गिद्धों की आबादी के नुकसान से होने वाली कुल आर्थिक हानि लगभग 70 अरब डॉलर हर साल हो गई।

शोधकर्ताओं ने शोध के हवाले से कहा इस तरह के आंकड़े कानून निर्माताओं को कार्रवाई करने के लिए राजी करने में मदद कर सकते हैं। यदि आप उन्हें आकर्षक आंकड़े देते हैं, तो नीति और संरक्षण उपायों को आगे बढ़ाना शायद आसान होगा।

नए अध्ययन में “प्राकृतिक प्रयोग” को अन्य प्रजातियों पर भी लागू किया जा सकता है। उनका कहना है कि इस तरह के तरीके पर्यावरण अर्थशास्त्रियों को मानव स्वास्थ्य पर ज्ञात प्रभाव वाली अन्य प्रजातियों को देखने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं की टीम का कहना है कि भारत सरकार ने 2006 में डिक्लोफेनाक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन गिद्धों की संख्या में पूरी तरह से सुधार नहीं हुआ। उनका कहना है कि इससे प्रजातियों के नुकसान को नियंत्रित करना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, इससे पहले कि यह नियंत्रण से बाहर हो जाए।

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