भारतीय शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा हाल ही में किए गए आनुवंशिक अध्ययन के निष्कर्ष में कहा गया है कि केरल के नायर, थियास और एझावा और बंट्स व कर्नाटक के होयसलाओं का उत्तर पश्चिम भारत की आबादी से आनुवंशिक संबंध हैं।
यह खोज हाल ही में 'जीनोम बायोलॉजी एंड इवोल्यूशन' पत्रिका में प्रकाशित हुई है। इस शोध की अगुवाई हैदराबाद के सीएसआईआर-सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) के डॉ. कुमारसामी थंगराज ने की है।
शोध में कहा गया है कि भारत का दक्षिण-पश्चिमी तट आनुवंशिक और सांस्कृतिक विविधता वाला क्षेत्र है, जहां हजारों सालों से अलग-अलग इलाकों से आकर लोग बसते चले गए। यहां हाल ही में बसने वाले प्रवासियों, जैसे कि यहूदी, पारसी और रोमन कैथोलिक समेत इस क्षेत्र की समृद्ध आनुवंशिक विरासत का पता चला है।
हालांकि, इस क्षेत्र की एक बड़ी आबादी ऐतिहासिक रूप से योद्धा या सामंती है, जिनका आनुवांशिक इतिहास विवादित रहा है। कुछ अध्ययनों में उन्हें गंगा के मैदानी इलाकों के एक लौह युग की सभ्यता के प्रवासी बताया गया है, जबकि कुछ में उन्हें उत्तर-पश्चिमी भारत के इंडो-सीथियन कबीले के प्रवासी बताया गया है।
शोधकर्ताओंं का कहना है कि दक्षिण-पश्चिमी तटीय क्षेत्र में रह लोग वहां के सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनकी अनूठी संस्कृति और लोक कथाएं हैं। वे एक विशिष्ट वंश से संबंधित हैं, जिसमें एक मध्य पूर्वी घटक है, जो उन्हें गंगा के मैदानी इलाकों के इंडो-यूरोपीय लोगों और द्रविड़ जातियों और जनजातियों से अलग करता है।
शोधकर्ताओं ने भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट के पारंपरिक योद्धाओं और सामंती स्वामी समुदायों के 213 लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया। उन्होंने जीनोम-वाइड ऑटोसोमल मार्करों या निशान और मातृ वंशानुगत माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए मार्करों की तलाश की और उनके परिणामों की तुलना कांस्य युग से लेकर वर्तमान समूहों तक की प्राचीन और समकालीन यूरेशियन आबादी के साथ की।
एक रिपोर्ट में शोधकर्ता डॉ. के थंगराज ने बताया कि हमारे अध्ययन से पता चला है कि नायर और थिया योद्धा समुदाय अपने अधिकांश वंश को उत्तर पश्चिम भारत के प्राचीन प्रवासियों से साझा करते हैं। उन्होंने कम्बोज और गुज्जर आबादी के समान ईरानी वंश को बढ़ाया है। उनका मातृ जीनोम पश्चिम यूरेशियाई माइटोकॉन्ड्रियल वंशावली के भारी वितरण को दर्शाता है, जो सिद्दीस जैसे हालिया प्रवासी समूहों के विपरीत, महिला-मध्यस्थता वाले प्रवासन का सुझाव देता है।
मशीन-लर्निंग-आधारित अध्ययन से पता चलता है कि इन समूहों का प्रवासन उत्तर-पश्चिम की ओर हुआ। कांस्य युग के अंत या हो सकता है लौह युग के दौरान मध्य भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट तक हो।
यह अनूठी खोज तुलुनाडु के इतिहास और विकास की अधिक व्यापक समझ हासिल करने के लिए स्वदेशी समूहों के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आनुवंशिक पहलुओं के अध्ययन और समझ के महत्व पर प्रकाश डालती है।