सलवा जुडूम और नक्सली हिंसा से पीड़ित आदिवासी मांग रहे हैं दो गज जमीन

राज्य समर्थित नागरिक सेना सलवा जुडूम और नक्सल समर्थकों के बीच चल रही हिंसा से खुद को बचाने के लिए साल 2005-06 में 50,000 से अधिक आदिवासी छत्तीसगढ़ से बाहर चले गए। ये लोग पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में बस गए। अब ये लोग वन अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए अपने वर्तमान निवास स्थान पर जमीन की मांग कर रहे हैं
2005 में छत्तीसगढ़ से विस्थापित हो कर पड़ोसी राज्यों में चले गए 100 से अधिक आदिवासी लोगों ने 6 अप्रैल को नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर आयोजित एक विरोध प्रदर्शन में भाग लिया और मांग की कि उन्हें वह जमीन दी जाए  जहां वे रह रहे हैं (फोटो: विकास चौधरी)
2005 में छत्तीसगढ़ से विस्थापित हो कर पड़ोसी राज्यों में चले गए 100 से अधिक आदिवासी लोगों ने 6 अप्रैल को नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर आयोजित एक विरोध प्रदर्शन में भाग लिया और मांग की कि उन्हें वह जमीन दी जाए जहां वे रह रहे हैं (फोटो: विकास चौधरी)
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दुधी गंगा कहते हैं, “मैं छत्तीसगढ़ नहीं लौटना चाहता। 15 साल पहले सलवा जुडूम के लोगों ने हमारे गांव में तीन लोगों को नक्सली बता कर गोली मार दी थी। यह सब देखने के बाद मैं और मेरे माता-पिता जान के डर से अपने गांव से भाग आए थे। हमने अपनी जमीन व जानवरों को वहीं छोड़ दिया और पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले के एक जंगल में बस गए।”

गंगा उन 109 आदिवासी लोगों में से एक हैं, जिन्होंने 6 अप्रैल को नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया था। इन लोगों ने मांग की थी कि उन्हें उनके वर्तमान निवास स्थान पर जमीन दी जाए। ये सभी मूल रूप से छत्तीसगढ़ से ताल्लुक रखते हैं। नक्सल आंदोलन पर अंकुश लगाने के लिए 2005 में गठित एक राज्य समर्थित नागरिक सेना सलवा जुडूम की हिंसा से बचने के लिए आंध्र प्रदेश चले गए थे।

द न्यू पीस प्रोसेस, छत्तीसगढ़ में आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था के संस्थापक और जंतर-मंतर पर आयोजित विरोध-प्रदर्शन के आयोजक शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं, “हिंसा प्रभावित जिले के एक कलेक्टर के अनुमान के मुताबिक, 2005 में लगभग 55,000 आदिवासी छत्तीसगढ़ छोड़ कर चले गए थे। उन्हें मुआवजे के तौर पर जमीन दी जानी चाहिए।” वह कहते हैं, “यह काम वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) की धारा 3 (1) (एम) के तहत किया जा सकता है।”

एफआरए की धारा 3 (1) (एम) या अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 की धारा 3 (1) (एम), 13 दिसंबर, 2005 से पहले यदि अनुसूचित जनजाति या अन्य पारंपरिक वनवासी को पुनर्वास के लिए कानूनी अधिकार दिए बिना किसी भी प्रकार की वन भूमि से अवैध रूप से बेदखल या विस्थापित किया गया है, तो वैकल्पिक भूमि समेत अपनी जमीन पर पुनर्वास का अधिकार प्रदान करता है।

चौधरी की संस्था 2018 से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में रहने वाले छत्तीसगढ़ के आदिवासी लोगों के बीच काम कर रही है। चौधरी कहते हैं, “हमने दोनों राज्यों में लगभग 262 गांवों की पहचान की हैं, जहां 6,721 विस्थापित परिवार हैं। वे ज्यादातर आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी और पश्चिम गोदावरी जिलों और तेलंगाना के भद्राद्री कोठागुडेम और मुलुगु जिलों में हैं। कुल 1,086 लोगों ने धारा 3 (1) (एम) के तहत वन भूमि के अधिकार के लिए फॉर्म भरे हैं।”

लेकिन इसमें एक बड़ी समस्या भी हैं। मसलन, विस्थापित जनजातीय आबादी के लाभ के लिए इस धारा की व्याख्या करने को लेकर सरकार की अनिच्छा। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा ने डाउन टू अर्थ को बताया, “यह धारा उन आदिवासी लोगों पर लागू होती है जो विकास और औद्योगिक परियोजनाओं के कारण सरकारी भूमि से विस्थापित हुए, न कि उन लोगों के लिए जो संघर्ष के कारण अपनी जमीन छोड़ कर भाग गए।”

हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता इस बात से सहमत नहीं हैं। चौधरी कहते हैं, “चूंकि उन्हें राज्य समर्थित हिंसा के कारण बाहर जाने के लिए मजबूर किया गया था, इसलिए उन्हें “अवैध रूप से बेदखल या विस्थापित” कहा जा सकता है और वे जिस जगह हैं, वहां की जमीन पर पुनर्वास का अधिकार है।” चौधरी ने 2011 में आए सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश का हवाला देते हुए कहा, “छत्तीसगढ़ में माओवादी पिछले पांच दशकों से हैं, लेकिन विस्थापन केवल 2005 में हुआ, क्योंकि यह स्थिति राज्य के कारण पैदा हुई थी।”

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था, “छत्तीसगढ़ के उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को माओवादी गतिविधियों और राज्य द्वारा शुरू किए गए प्रतिवाद, दोनों के कारण गंभीर रूप से नुकसान हुआ है।” ओडिशा में आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले एक कार्यकर्ता वाई गिरि राव इस धारा को लागू करने के रास्ते में आने वाली एक और समस्या के बारे में बताते हैं, “यह साबित करने के लिए सबूत इकट्ठा करना कि दावेदार बेदखली से पहले जमीन के उस हिस्से पर रहता था, बहुत मुश्किल है। यदि वे उस जमीन पर खेती करते थे और वन विभाग द्वारा जुर्माना लगाया गया था, तो वे उस रसीद को निवास के प्रमाण के रूप में दिखा सकते हैं। लेकिन ज्यादातर मामलों में लोगों के पास ऐसी रसीदें नहीं होतीं।”



एक और बड़ी समस्या वर्तनी की गलती के कारण हुई है। छत्तीसगढ़ की विस्थापित आदिवासी आबादी का एक बड़ा हिस्सा गुट्टा कोया जनजाति से है, जो राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध है और इसलिए इस कानून के तहत लाभ के पात्र है। नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, “2009 में आंध्र प्रदेश के आदिवासी कल्याण विभाग ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के कहने पर छत्तीसगढ़ प्रवासियों का एक सर्वेक्षण किया।

इस सर्वेक्षण में उन्होंने जनजाति का नाम गुट्टी कोया लिखा। गुट्टी कोया को तेलंगाना या आंध्र प्रदेश में आदिवासी का दर्जा नहीं है, जिससे वे इस लाभ से वंचित हो गए। कार्यकर्ताओं का तर्क है कि दोनों एक ही जनजाति हैं, लेकिन राज्य सरकारें इस बात से असहमत हैं।

चौधरी कहते हैं कि “गुट्टी” दोनों राज्यों में से किसी भी अनुसूचित जनजाति की सूची में नहीं आती। मुंडा ने आगे किसी संभावना पर कहा कि हम वास्तव में उन्हें (गुट्टी कोया) को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के बारे में बात नहीं कर सकते। यह एक जटिल मुद्दा है। लेकिन लोकसभा ने वर्तमान संसद सत्र में अनुसूचित जनजातियों की सूची में त्रिपुरा के एक आदिवासी कबीले डारलोंग को शामिल करने के लिए संवैधानिक आदेश में संशोधन करने वाला एक विधेयक पारित किया है।

धारा 3(1)(एम) में उल्लेखित कट-ऑफ तिथि एक अन्य प्रमुख मुद्दा है, जिसकी वजह से यह कानून केवल उन लोगों पर लागू होता है जो 13 दिसंबर, 2005 से पहले विस्थापित हुए थे। चौधरी कहते हैं, “कई आदिवासी लोग 2005 में छत्तीसगढ़ से बाहर गए, वहीं इसके बाद भी बड़ी संख्या में लोग राज्य से बाहर निकले।”

तेलंगाना द्वारा 2015 में शुरू किए गए एक वृक्षारोपण अभियान ने इस स्थिति को और दयनीय बना दिया।

छत्तीसगढ़ स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था सीजीनेट स्वरा फाउंडेशन के राजू राणा कहते हैं, “इस अभियान की आड़ में, जिसे हरिता हरम कहा जाता है, वन विभाग के अधिकारियों ने विस्थापित आदिवासी लोगों द्वारा बनाई गई झोपड़ियों को नष्ट कर जमीन पर पेड़ लगा दिया। वे तेलंगाना में छत्तीसगढ़ के आदिवासी लोगों को नहीं आने देना चाहते।” राणा तेलंगाना स्थित छत्तीसगढ़ के विस्थापित आदिवासी लोगों को पात्रता प्रपत्र भरने में मदद करते हैं। 15 मार्च को तेलंगाना के वन अधिकारियों और पुलिस ने उन्हें रात भर हिरासत में रखा था। उनसे उन गांवों के बारे में पूछताछ की गई जहां वे गए थे। साथ ही वहां जाने के कारणों को लेकर भी पूछताछ की।

दिशा-निर्देश की जरूरत

छत्तीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष भानुप्रताप सिंह का सुझाव है कि चूंकि यह मुद्दा तीन राज्यों से संबंधित है, इसलिए धारा 3 (1) (एम) के कार्यान्वयन पर केंद्र के मार्गदर्शन की आवश्यकता है। मंत्रालय के एक सूत्र ने डाउन टू अर्थ को बताया कि 2019 में केंद्रीय जनजातीय मामलों का मंत्रालय विस्थापित जनजातीय लोगों को टाइटल पाने में मदद के लिए धारा 3 (1) (एम) के लिए दिशानिर्देश तैयार कर रहा था, लेकिन इसे अभी तक जारी नहीं किया गया है। मुंडा मानते हैं, “हमने दिशानिर्देश बनाने में बहुत प्रगति नहीं की है और इसमें अभी समय लगेगा।” वह कहते हैं, “दूसरे राज्य के मूल निवासियों को एक अलग राज्य में बसने के लिए टाइटल देने का काम एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है।”

चौधरी इस बात से सहमत हैं कि दिशानिर्देश महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि महाराष्ट्र और ओडिशा में भी विस्थापित छत्तीसगढ़ आदिवासी रहते हैं। वह कहते हैं, “इस मुद्दे को सामने लाने के लिए हमने 4 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पास 1,086 फॉर्म जमा किए और मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य सलवा जुडूम के दौरान बस्तर, सुकमा, बीजापुर और दंतेवाड़ा जिलों से विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास के लिए तैयार है।”

दुधी गंगा कहते हैं, “मेरे दोनों बच्चे, 13 साल का बेटा और नौ साल की बेटी, आंध्र प्रदेश में पैदा हुए थे। वे आंध्र प्रदेश की स्थानीय बोली बोलते हैं और इस राज्य को अपना घर कहते हैं। हम वापस नहीं जाना चाहते।”

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