रिपोर्टर डायरी की 9वीं कड़ी : अबूझमाड़ का स्नातक

अबूझमाड़ का संघर्ष न सिर्फ खुद के बचने का है बल्कि दुनिया को बचाने का भी है।
लक्ष्मण मंडावी अबूझमाड़ स्थित अपने आमाटोला गांव में, फोटो- अनिल अश्विनी शर्मा
लक्ष्मण मंडावी अबूझमाड़ स्थित अपने आमाटोला गांव में, फोटो- अनिल अश्विनी शर्मा
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डाउन टू अर्थ की टीम की मुलाकात अबूझमाड़ के गांव आमाटोला में आदिवासी युवा लक्ष्मण मंडावी से हुई। वह अबूझमाड़ के अपने गांव के आसपास के लगभग एक दर्जन से अधिक गांवों के बीच अकेले ऐसे युवा हैं जिन्होंने स्नातक किया है।

उन्होंने डाउन टू अर्थ से अपने बचपन से लेकर अब तक कि आपबीती कुछ इस प्रकार से बयां की- मैं जब छोटा था तब सोचा करता था कि बड़े होकर मैं भी इस जंगल से निकल कर पूरी दुनिया देखूंगा। पर यह दुनिया उतनी सुंदर और आसान नहीं थी, जितना मैंने सोचा था। मुझे अपनी पढ़ाई के लिए बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी।

पहली बार मैं जब जंगल (अबूझमाड़) से निकल कर पास के नगर पखांजूर (कांकेर जिला) पढ़ने गया तो स्कूल के शिक्षक और वहां पढ़ने वाले छात्र मुझे ऐसे देख रहे थे, जैसे किसी चिड़िया घर से निकल कर आया कोई जानवर हो। हालांकि मेरे पिता ने मेरे शरीर पर पेड़ के पत्तेलपेट कर नहीं भेजा था। मैं भी स्कूल की वर्दी में ही था। लेकिन स्कूल के विद्यार्थियों से लेकर शिक्षकों की प्रतिक्रिया दिल तोड़ने वाली थी। स्कूल के बच्चों को सबसे ज्यादा परेशानी इस बात से थी कि तुम हमारे साथ, हमारी जगह पर कैसे पढ़ सकते हो? यह जगह तो हम जैसे लोगों के लिए है, किसी जंगल के बच्चे के लिए नहीं।

सभी प्रकार की विपरीत स्थितियों के बाद भी मैंने स्कूल जाना नहीं छोड़ा। हालांकि, शुरुआती दिनों में स्कूल पहुंचने के बाद मैं यूं ही बैठा रहता था।स्कूल के शिक्षक क्या पढ़ा रहे हैं, मुझे कुछ भी समझ नहीं आता था।धीरे-धीरे लगातार सुनने के अभ्यास से मुझे थोड़ा बहुत समझ में आने लगा। शिक्षक सभी विद्यार्थियों को कहते थे कि अपनी स्लेट पर किताब में लिखी हुई क, ख, ग वर्णमाला को उतारो। मैं इसे उतारना सीख गया। तब मुझे पूरी वर्णमाला चित्रों की तरह लगती थी। जैसे अमरूद का चित्र हो या आम का। उन शब्दों की पहचान मुझे नहीं मालूम थी। स्कूल जाने तकमुझे केवल गोंडी भाषा ही आती थी।

स्कूल में सभी हिंदी या छत्तीसगढ़ी बोलते थे। उनके लिए हिंदी या छत्तीसगढ़ी मातृभाषा थी, जिसे वे बड़े होने के साथ बोलना सीख चुके थे। मेरी भाषा को वे मातृभाषा का दर्जा नहीं देना चाहते थे। बिना हिंदी या छत्तीसगढ़ी सीखे मैं किसी दूसरे ग्रह से आया प्राणी जैसा था।
अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि आदिवासी समुदाय से बाहर निकल कर किसी अन्य भाषा को सीखना बहुत आसान नहीं है। हिंदी में पढ़ना-लिखना सीखने में मुझे कई साल लग गए। पांचवीं कक्षा पास करने में ही मुझे 12 साल लग गए। शुरुआती समय में तो बस हिंदी बोलना और लिखना ही सीखता रहा। इसके बाद मैंने बारवीं पास की।
हमारे अबूझमाड़ में कई गांवों में स्कूल तो हैं, लेकिन उनमें शिक्षक नहीं आते हैं। वे केवल 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस और 15 अगस्त, स्वतंत्रता दिवस पर ही आते हैं। झंडा रोहण करके वापस चले जाते हैं। ज्यादातर इसी बात की शिकायत करते हैं कि नदी पार करना उनके लिए बहुत मुश्किल होता है। इसमें सच्चाई है। लेकिन इसमें भी सच्चाई है कि जैसे हम सब साल भर डोंगी से नदी पार करते हैं, वे भी इसी तरह आ सकते हैं। लेकिन वास्तविकता ये है कि वे यहां आना ही नहीं चाहते। इन शिक्षकों की मानसिकता यही है कि ये लोग पढ़-लिख कर क्या करेंगे, जो हम इतनी मेहनत करें।
चाहे सरकार हो, या उससे जुड़ी किसी भी तरह की व्यवस्था, वे हमें मुख्यधारा का नहीं समझते। जंगल से जुड़ा होना, यानी आधुनिक समाज के लायक नहीं होना। शुरुआत में मुख्यधारा के समाज से जुड़ कर मैं भी हीन भावना का शिकार हो गया था। लगता था कि हमारा समाज इनके जैसा क्यों नहीं है?

आज पढ़ाई-लिखाई के साथ परिपक्व होकर मैं अपने जंगल की पहचान के साथ स्वाभिमान के साथ रहता हूं। पहले जिस शहरी पढ़ाई-लिखाई से मैं डरता था, बाद में उसी के कारण जंगल का महत्त्व भी समझा। इसी पढ़ाई ने समझाया कि जंगल और हमारा बचे रहना कितना जरूरी है।

पढ़ाई की बदौलत ही अब मैं जानता हूं कि जब तक जंगल बचा रहेगा, तभी तक शहर भी बचेंगे। शहर भले ही जंगल को काट कर बने हों, पर जंगल से कट कर रहने से शहरों का बचना मुश्किल है। अब मैं अपने जंगल और यहां के संघर्ष के साथ खुश रहता हूं। मैं जानता हूं कि यह संघर्ष न सिर्फ खुद के बचने का है, बल्कि दुनिया को बचाने का है।

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