आखिर क्यों जल उठे पहाड़ के जंगल?

समग्रता से पहाड़ की पारिस्थितिकी को समझ कर, स्थानीय परम्परा और ज्ञान को शामिल कर मानव गतिविधियों को नियंत्रित कर पहाड़ के लिए ठोस नीतिगत संरक्षण की जरुरत है
बढ़ते तापमान के साथ धधकते जंगल, फोटो: आईस्टॉक
बढ़ते तापमान के साथ धधकते जंगल, फोटो: आईस्टॉक
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पिछले हफ्ते जहां एक तरफ यूनाइटेड नेशन फोरम ऑन फॉरेस्ट की न्यूयॉर्क में हो रही उन्नीसवीं बैठक में जंगल में आग की बढ़ती घटनाओं पर काबू पाने के उपायों पर गरमागरम बहस चल रही थी, जिसमें भारत भी अपने हाल के बने जंगल के कानून में कई संशोधनों के साथ शामिल था, दूसरी तरफ दुर्भाग्य देखिये कि पिछले कुछ हफ़्तों से जल रहे उत्तराखंड के जंगल उसी समय व्यापक रूप में धू-धू कर जल उठे।

गढ़वाल से कुमाऊं तक,और पहाड़ की तलहटी से समुद्रतल से 3400 मीटर की ऊंचाई तक जंगल में आग लगने की सूचना लगातार आने लगी जो अब भी जारी है।

उत्तराखंड सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दी गई जानकारी के मुताबिक कम से कम 398 आग की घटनाओं से हजार हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पूरी तरह से जल चुके हैं, हालांकि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक आग का विस्तार काफी व्यापक है। गढ़वाल के मुकाबले कुमाऊं के वन-क्षेत्र पर आग का कहर ज्यादा बरपा है। स्थिति बेकाबू होने की स्थिति में भारतीय एयर फोर्स के ‘एम17 वी5’ हेलीकॉप्टर भी भांबी की मदद से जंगली आग रोकने के प्रयास में लगे हैं।

भांबी हेलीकॉप्टर से आग बुझाने के लिए इस्तेमाल होने वाला पात्र है जिससे एक बार में काफी मात्रा में पानी उड़ेला जा सकता है। देश-भर के आंकड़े देखे तो मौजूदा आग के मौसम में आग लगने की और आग की चेतावनी की संख्या के लिहाज से उत्तराखंड बाकी सारे राज्यों के मुकाबले शीर्ष पर बना हुआ है। भारत में जलवायु के हिसाब से आग लगने का मौसम बरसात के बाद से बरसात के आने के पहले तक का होता है यानी नवम्बर से जून तक, जिसमें सबसे जयादा प्रभावी महीना मार्च से मई का होता है।

जंगल में आग लगना एक प्राकृतिक घटना है,पारिस्थितिकी तंत्र की एक जरुरी प्रक्रिया है बशर्ते यह मानव जनित कारणों से ना हो। आग से मिट्टी में पोषण का एक नया दौर शुरू होता है वहीं ऊंचे पेड़ों के वितान या क्राउन के जल जाने से सूर्य की रोशनी सीधे जमीन तक पहुंचने लगती है, जिससे नए पेड़-पौधे के पनपने को गति मिलती है। पर जंगल में आग का प्रसार और उसकी आवृति पर अनेक स्तर के प्राकृतिक नियंत्रण होते हैं, जो हर किस्म के जंगल को अलग-अलग तरीके से नियंत्रित करता है।

जंगल में आग के लिए प्राकृतिक रूप से तीन परिस्थितियां जरुरी है, जिसे ‘फायर ट्रायंगल’ कहते हैं, जिसमें ज्वलनशील पदार्थ या जरुरी इंधन,उच्च तापमान यानी गर्मी और ऑक्सीजन की उपलब्धता। सामान्य रूप से जाड़े के बाद ही पेड़ की पत्तियाँ झड़ जाती हैं, जो मार्च अप्रैल आते-आते सूखकर आग के लिए जरुरी ईंधन मुहैया कराती हैं।

इसी समय तापमान भी चरम पर होता है, जिससे हवा और सूखे जंगल में आर्द्रता भी न्यून रहती है और खुला जंगल निर्बाध ऑक्सीजन मुहैया कराता है। बस पेड़ की डालियों के आपसी रगड़ या फिर बिजली चमकने से आग धू-धू कर जल उठता है।

जंगल की आग के लिए ये तीनों विशेष परिस्थितियां जलवायु परिवर्तन के दौर में सामान्य रूप से उपलब्ध होती है और नतीजा हाल के कुछ सालो में वैश्विक स्तर पर कनाडा से ऑस्ट्रेलिया,अमेजन से इन्डोनेशिया तक के जंगल बड़े पैमाने पर जल उठे हैं। भारत में भी जंगली आग की घटनाओं में आयी बेतहाशा वृद्धि भी पहली नजर में ही जलवायु परिवर्तन का असर ही दीखता है।

पर एक ताजा अध्ययन के अनुसार मौजूदा दौर में जंगल में आग लगने की घटनायें 90% तक मानव जनित होती हैं और उत्तराखंड सहित भारत में कमोबेश यही स्थिति है। मानव जनित कारणों में कृषि विस्तार के लिए जंगल साफ करना या फिर फसल की कटाई के बाद खेत की तैयारी के लिए आग लगाना जो खेतों से जंगल तक फ़ैल जाता है या फिर बिजली के तारों में रगड़ से उपजी आग की चिंगारी प्रमुख है।

उत्तराखंड में गेहूं की कटाई के बाद अगली फसल के लिए खेत की तैयारी के लिए पराली में लगाई आग संभवतः जंगल तक बड़े पैमाने पर फ़ैल चुकी है। हालाँकि अराजक तत्वों द्वारा जानबूझ कर आग लगाने की भी कई घटनायें सामने आयी है। उत्तराखंड जंगल के मामले में भारत के समृद्धतम राज्यों में से एक है जहां 44% से ज्यादा क्षेत्र में जंगल है, जिसमें मुख्य रूप से चीड़ -पाईन, साल और बाँज या ओक के अलावा मिश्रित वन हैं।

फॉरेस्ट सर्वे के 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक एक-तिहाई से अधिक जंगल में आग लगने के अनुकूल है, जिसका अधिकांश क्षेत्र चीड़ के वन हैं। चीड़ का पेड़ उत्तराखंड के अन्य स्थानीय पेड़ों के मुकाबले रेसिन की अधिक मात्रा के कारण ज्यादा ज्वलनशील होता है।

जंगल में लगने वाली आग की बढती घटनाओं की पड़ताल करे तो पाते हैं कि दीर्घकालिक स्तर पर ओक या बांज के मुकाबले चीड़ के जंगल का बढ़ता दायरा एक प्रमुख कारण दिखाई पड़ता है। दीर्घकालिक स्तर पर ओक या बांज के मुकाबले चीड़ का बढ़ता दायरा आग लगने और विस्तार के लिए अनुकूल परिस्थितियां मुहैया कर रही है। सर्दी के बाद ही चीड़ के पेड़ से सारे पत्ते, जिसे स्थानीय नाम पिरूल हैं,अलग होकर मार्च आते-आते पूरी तरह सूखकर जंगल की सतह पर एक मोटी परत बना देते हैं,और यही रेसिन से भरे पिरूल आग की चिंगारी मात्र से पेट्रोल जैसे जल उठते हैं।

पिछले कुछ दशक में चीड़ वन क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है जो बढ़ कर कुल वन क्षेत्र का 28 प्रतिशत तक हो चुका है। दूसरी तरफ बांज, जो स्थानीय वातावरण के अनुकूल है, जो लम्बी जड़ों से मिट्टी को मजबूती देता है, भू-जल रिचार्ज को बढ़ता है, साथ ही साथ स्थानीय समुदाय के लिए चारा, कम्पोस्ट खाद, जलावन और फर्नीचर की,लकड़ी तक मुहैया करता है तथा समृद्ध जैव-विविधता का पोषक है, का दायरा सिकुड़ रहा है।

बांज स्थानीय समुदाय के लिए काफी उपयोगी पेड़ है, इसके उलट कम गहरी जड़ों वाला चीड़ ना सिर्फ ढलान वाली मिट्टी को बांध के रख नहीं पाता है बल्कि स्थानीय लोगों के बीच इमारती लकड़ी और रेसिन के अलावा कोई और सरोकार भी बना नहीं पाता।

मानवीय लापरवाही, आग लगने के अनुकूल वन की संरचना, बांज के मुकाबले चीड़ वन का बढ़ता दायरा, जलवायु परिवर्तन से उपजी सूखे की स्थितियों के अलावा वनों का प्रबंधन और स्थानीय लोगों की सहभागिता का स्तर भी उत्तराखंड के जंगल में फैले भीषण आग के लिए जिम्मेदार है।

उत्तराखंड में दो किस्म के वन है, लगभग 80 प्रतिशत यानी 26.6 लाख हेक्टेयर रिजर्व वन, जिसका प्रबंधन वन विभाग का सरकारी महकमा संभालता है वहीं लगभग 7 लाख हेक्टेयर वन पंचायत वन है, जिसका प्रबंधन लगभग 120000 वन पंचायत की स्वायतता के माध्यम से स्थानीय समुदाय करता है।

चूंकि उत्तराखंड में जंगल की आग कोई नयी घटना नहीं है, लगभग 36 प्रतिशत वन आग प्रभावित है, इस लिहाज से स्थानीय समुदाय ना सिर्फ पंचायत वन की देखरेख करते हैं बल्कि आग से बचाव के लिए उचित तैयारी भी करते हैं। इस कड़ी में चीड़ के सूखे पत्तों यानी पिरुल को इकट्ठा करना और आग लगने की स्थिति में आग फैले नहीं इसके लिए फायर लाइन बनाना प्रमुख है।

इस तरह पंचायत वन की सालों भर उचित निगरानी होती रहती है और आग लगने की स्थिति में स्थानीय समुदाय तुरंत सक्रिय हो जाता है। वहीं वन विभाग के सरकारी जंगल में स्थानीय समुदाय की सक्रियता काफी हद तक प्रतिबंधित रहती है, जिससे उनका आग के दृष्टिकोण से ना तो उनका प्रबंधन हो पाता है, और नाही निगरानी और तो और ना ही आग लगने पर त्वरित करवाई हो पाती है। हाल के कुछ वर्षो में वन पंचायत के स्वायतता में भी सरकारी दखल बढ़ा है, जो स्थानीय समुदाय और वनों के बीच के सहजीवता को प्रभावित कर रहा है।

हालांकि पिछले कुछ सालों में आग से बचाव में स्थानीय समुदाय को सक्रिय करने और आग पर काबू पाने के उद्देश्य से स्थानीय सरकार ने 2017 में तीन रुपया प्रति किलो की दर से पिरूल इकट्ठा करने की योजना शुरू की, ताकि आग के फैलाव के लिए मुख्य ज्वलनशील चीड़ के पत्तों को हटाकर आग पर काबू किया जाये, साथ ही साथ आर्थिक उपादान के माध्यम से जंगल के लिए एक सतत निगरानी तंत्र भी विकसित किया जा सके।

अभी के बेकाबू होती आग की स्थिति के मद्देनजर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने ‘पिरूल लाओ- पैसे पाओ’ योजना के तहत् प्रति किलो अनुदान राशि को 3 रुपया से 50 रुपया तक बढ़ा दिया।

एक अनुमान के मुताबिक राज्य में 25 लाख मीट्रिक टन पिरूल इकट्ठा किया जा सकता है, जिसको प्रति इकाई ईंधन क्षमता (कैलोरिफिक वैल्यू) कोयले से भी ज्यादा है और इस प्रकार 200 मेगावाट उर्जा उत्पादन का स्रोत बन सकता है। साथ ही साथ चारकोल और पेपर बनाने में भी इस्तेमाल हो सकता है।

सालों पहले इस योजना की शुरुवात के साथ पिरूल आधारित कई छोटे पावर प्लांट वजूद में आये पर पिरूल इकठ्ठा करने में उचित आर्थिक सहयोग ना मिलने के कारण पिरूल की कमी के चलते कुछ खास प्रगति नहीं हो पाई। सरकार की वर्तमान योजना से पिरूल आधारित उर्जा उत्पादन के आसार बन पाए, साथ ही साथ जंगल के आग पर स्थानीय समुदाय की मदद से कुछ कमी भी आये।

पिछले कुछ दशक में पहाड़ की पारिस्थितिकी में आमूलचूल परिवर्तन आये हैं, ना सिर्फ मानव गतिविधियाँ बढ़ी है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के इतर जंगल की संरचना में भी आमूलचूल परिवर्तन आया है। इमारती और रेल ट्रैक के लिए शुरू हुआ चीड़ के प्लांटेशन का सिलसिला स्थानीय बाँज के मिश्रित जंगल पर भरी पड़ने लगा है।

चीड़ चूंकि पायनियर पेड़ है, जो भूस्खलन से प्रभावित स्थानों पर बड़ी तेजी से पनप जाता है, वही बांज के बीज से पेड़ बनने का सफर बहुत ही संवेदी और लम्बी प्रक्रिया है, जिसके कारण चीड़ के मुकाबले गहरे जड़ वाले बांज का दायरा घट रहा है। इससे पहाड़ों पर पानी टिक नहीं पा रहा और बरसात के बाद से ही सूखे की स्थिति बन जा रही,है, छोटे-छोटे झरने जिनमें हाल तक सालों भर पानी रिसता रहता था अब सूख जा रहे हैं।

सूखे और आर्द्रता विहीन गर्मी, जलवायु परिवर्तन से पहाड़ों का बढ़ता तापमान और चीड़ के पत्तों से पहाड़ के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं। पिछले हफ्ते में थोड़ी बारिश से आग में कुछ कमी जरूर आयी पर फिर से आग उसी विकराल रूप में आ चुका है। तजा स्थिति यह है कि आग पूरब में नेपाल और पश्चिम में हिमाचल सहित जम्मू कश्मीर तक जा पहुंचा है।

उत्तराखंड सहित समूचे पश्चिमी हिमालय के जंगलों में लगी आग हो या भूस्खलन का बढ़ता दायरा हो या पानी की किल्लत, या सूखते झरने हो या अन्य कोई पहाड़ी आपदा हो, ये सब पहाड़ को मैदान के नियमों से नियंत्रित करने की हमारी जिद का नतीजा है।

ऐसे में जरुरत है- समग्रता से पहाड़ की पारिस्थितिकी को समझ कर, स्थानीय परम्परा और ज्ञान को शामिल कर मानव गतिविधियों को नियंत्रित कर पहाड़ के लिए ठोस नीतिगत संरक्षण की, ताकि पहाड़ का विकास पहाड़ के रूप में हो सके।

(लेखक कुशाग्र राजेंद्र एमिटी विश्वविद्यालय हरियाणा के स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरमेंट साइंस के प्रमुख व विनीता परमार विज्ञान शिक्षिका एवं “बाघ विरासत और सरोकार” पुस्तक की लेखिका हैं)

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