कोकण के वेलास तट पर दुर्लभ ऑलिव रिडले समुद्री कछुओं को मिला जीवनदान

2002 से महाराष्ट्र के एक गांव वेलास में विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके ऑलिव रिडले प्रजाति के कछुओं को बचाने की मुहिम चल रही है
ऑलिव रिडले प्रजाति की मादा कछुआ सिर्फ अपने अंडे देने के लिए समुद्र तट पर आती है। इसी प्रजाति के नर कछुए के बारे में कहा जाता है कि वह अपने पूरे जीवनकाल में कभी समुद्र किनारे रेत पर नहीं आता। वहीं, मादा कछुआ भी समुद्र तट पर एक बार में सैकड़ों अंडे देने के बाद अपने अंडों को देखने के लिए दोबारा नहीं लौटती है। (तस्वीर: मोहन उपाध्याये)
ऑलिव रिडले प्रजाति की मादा कछुआ सिर्फ अपने अंडे देने के लिए समुद्र तट पर आती है। इसी प्रजाति के नर कछुए के बारे में कहा जाता है कि वह अपने पूरे जीवनकाल में कभी समुद्र किनारे रेत पर नहीं आता। वहीं, मादा कछुआ भी समुद्र तट पर एक बार में सैकड़ों अंडे देने के बाद अपने अंडों को देखने के लिए दोबारा नहीं लौटती है। (तस्वीर: मोहन उपाध्याये)
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महाराष्ट्र के कोकण समुद्र तट पर रत्नागिरी जिले के मंडणगड तहसील के अंतर्गत वेलास नाम का एक छोटा-सा गांव तीन ओर पहाड़ियों और एक छोर समुद्र किनारे से घिरा है। इस गांव की विशेषता है कि यह पिछले कुछेक वर्षों से समुद्री कछुए की एक दुर्लभ प्रजाति ऑलिव रिडले के संवर्धन के लिए अपनाए गए समुदाय आधारित मॉडल के कारण दुनिया के मानचित्र पर अपनी पहचान बना रहा है।

वेलास में 'कछुआ मित्र' के नाम से प्रसिद्ध मोहन उपाध्याये पिछले 17-18 वर्षों से समुद्री कछुए की एक दुर्लभ प्रजाति ऑलिव रिडले के संरक्षण तथा संवर्धन से जुड़े कार्यों में सतत जुटे हुए हैं। वह अपने मैदानी अनुभवों के आधार पर यह दावा करते हैं कि कोरोना महामारी के दौरान लगाए गए लॉकडाउन के कारण बीते कई महीनों में समुद्री कछुए की इस दुर्लभ प्रजाति की संख्या बढ़ी है।

अपनी इस बात की पुष्टि के लिए मोहन रत्नागिरी जिले में ही तवसाल समुद्री तट का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि इस बार वहां ऑलिव रिडले मादा कछुओं ने समुद्री किनारे पर पहुंचकर रेत में 9 गड्ढे (घोसले) बनाए और उनमें अपने अंडे दिए। पिछले दस वर्षों के बाद ऐसा हुआ। इसलिए, तवसाल ग्राम-पंचायत और वन-विभाग ने समुद्री कछुए के इन अंडों की अच्छी तरह से देखभाल करने के लिए इस बार तट के नजदीक ही चारों तरफ से मजबूत जाल लगाते हुए एक संवर्धन-स्थल आरक्षित किया है।

इस बार दापोली वन-विभाग क्षेत्र के अंतर्गत आडे समुद्री तट पर भी मादा कछुए ने रेत में दो गड्ढे बनाकर अंडे दिए। इस बात की सूचना आडे गांव के रहवासियों ने समुद्री किनारे से डेढ़ किलोमीटर आंजर्ले में स्थित ऑलिव रिडले कछुआ संवर्धन-स्थल के कार्यकर्ताओं को दी थी। उसके बाद कार्यकर्ता उन अंडों को आडे से आंजर्ले संवर्धन-स्थल लाए।

मोहन कहते हैं, "यह मादा कछुआ एक बार अंडे देने के बाद दोबारा अंडे देखने के लिए समुद्र तट पर नहीं लौटती है, इसलिए अंडे देने के लिए वह समुद्र तट पर सबसे सुरक्षित ऐसी जगह को तलाशती है, जहां लोगों की भीड़-भाड़ कम हो। हालांकि, वह सामान्यत: मध्य-रात्रि को अंडे देती है, लेकिन पालघर और ठाणे जिले के अनुभव बताते हैं कि जिन समुद्री तटों पर पर्यटकों की आवाजाही ज्यादा होती है, वहां मादा कछुआ अंडे देने बंद कर देती है।"

वहीं, उनके मुताबिक कोरोना के कारण लगाए गए लॉकडाउन से एक अन्य फायदा यह हो सकता है कि इस दौरान मछुआरे बहुत कम बार नाव लेकर समुद्र में मछलियां पकड़ने गए, क्योंकि लॉकडाउन ने मछली बाजार को भी प्रभावित किया है, इसलिए समुद्र में मछुआरों के नावों की संख्या घटने से बहुत संभव है कि मछुआरों की नावों से टकराकर कटने या उनके द्वारा फेंके जाने वाले जालों से फंसकर मरने वाले ऑलिव रिडले कछुओं की संख्या भी घटी होगी।

एक वर्ष में बढ़ गई संख्या
महाराष्ट्र राज्य वन-विभाग द्वारा समुद्री कछुए सहित कई दुर्लभ मछलियों की प्रजातियों के संवर्धन के लिए वर्ष 2012 में गठित स्वायत्त-संस्था 'मेंग्रोव फाउंडेशन' के आंकड़ों के अनुसार भी ऑलिव रिडले मादा कछुओं द्वारा समुद्र तट पर अंडे देने के लिए बनाए गए गड्ढों की संख्या पिछले एक वर्ष में दो गुना से ज्यादा बढ़ गई है।

देखा जाए तो महाराष्ट्र में करीब 720 किलोमीटर लंबा समुद्री किनारा है। इसमें महज रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग और रायगड जिलों में ही क्रमश: 14, 14 और 4 समुद्र तटों पर ऑलिव रिडले कछुआ प्रजाति की मादाएं हर साल नवंबर से अप्रैल महीनों के बीच अंडे देती आ रही हैं। इसके लिए ये कछुआ मादाएं समुद्र तट पर 50 से 80 मीटर दूर तक करीब 18 इंच गहरा गड्ढा बनाती हैं और एक बार में उसमें 80 से 170 तक अंडे देती हैं। फिर ये कछुआ मादाएं गड्ढों में रखे अंडों को रेत से अच्छी तरह ढंककर समुद्र की ओर लौटती हैं।

'मेंग्रोव फाउंडेशन' के अनुसार पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष मार्च तक रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग और रायगड जिलों में ऑलिव रिडले कछुआ प्रजाति की मादाओं ने अपने अंडे देने के लिए समुद्र तट पर 233 गड्ढे अधिक बनाए। वर्ष 2019-20 में इस कछुआ प्रजाति की मादाओं ने अपने अंडे देने के लिए 228 गड्ढे बनाए थे। इनमें रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग और रायगड जिलों के समुद्री तटों पर क्रमश: 148, 65 और 15 गड्ढे मिले। वहीं, वर्ष 1920-21 के मार्च तक इस कछुआ प्रजाति की मादाओं ने अपने अंडे देने के लिए 451 गड्ढे बनाए हैं। इनमें रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग और रायगड जिलों के समुद्री तटों पर अब तक क्रमश: 277, 146 और 28 गड्ढे मिल चुके हैं।

बीते दो दशकों में यहां ग्राम-पंचायत से लेकर महाराष्ट्र राज्य वन-विभाग, स्थानीय रहवासियों, मछुआरों, स्कूल व कॉलेज के छात्रों, सरकारी कर्मचारियों, प्रकृति प्रेमियों, जीव-जंतु विशेषज्ञों, जीव-वैज्ञानिकों और चिकित्सकों तक सामुदायिक दृष्टिकोण से संचालित एक इकाई तैयार हुई है।

उल्लेखनीय है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य करने वाले विश्व के सबसे बड़े संगठनों में से एक 'आईयूसीएन' (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर) द्वारा जारी रेड-लिस्ट में ऑलिव रिडले कछुआ प्रजाति को अति-संवेदनशील प्रजातियों की श्रेणी में रखा गया है। इसके अलावा, हमारे देश में इसे कानूनी रुप से संरक्षित करने के लिए 'भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972' के परिशिष्ट-I में रखा गया है।

ऐसे शुरू हुई पहल
वर्ष 2002 में सबसे पहले वेलास गांव से ऑलिव कछुओं के संवर्धन का कार्य शुरू करने वाले 'सह्याद्रि निसर्ग मित्र, चिपलूण' संस्था के अध्यक्ष भाऊ कतदरे बताते हैं कि उन्हें तब एक शोध के दौरान समुद्र किनारे रेत में कुछ गड्ढे दिखाई दिए थे। फिर जब उन्हें गड्ढों के भीतर ऑलिव रिडले कछुओं के अंडों के बारे में मालूम हुआ तो उन्होंने कुछ वर्षों तक रत्नागिरी जिले की पूरी समुद्री पट्टी में एक जागरूकता-अभियान चलाया और गांव-गांव में बैठकें आयोजित करके स्थानीय लोगों को समझाया कि समुद्री कछुओं की चोरी करना कानूनी तौर पर अपराध है और इसके कारण जेल जाना पड़ सकता है।

कछुआ संरक्षण की एक वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर प्रबंधन का सारा कामकाज चलता है। इस बारे में भाऊ कतदरे बताते हैं कि मध्य-रात्रि को जब एक मादा कछुआ किनारे की सतह पर गड्ढे खोदकर अंडे देती है और गड्ढे को रेत से ढककर समुद्र में लौटती है तो स्थानीय लोग जानते हैं कि रेत पर किस प्रकार के निशान होने चाहिए, जिन्हें देखकर यह समझा जाए कि उस जगह को खोदने पर अंडे मिलेंगे। इस तरह, स्थानीय लोगों द्वारा अंडों को कुछ घंटों के भीतर ही सुरक्षित निकाल लिया जाता है। फिर उन अंडों को नजदीक ही जालियों से ढके संवर्धन-स्थल पर लाकर रेत में उतनी की लंबाई और चौड़ाई के गड्ढे बनाकर सुरक्षित तरीके से रखे जाते हैं।

अभिनय केलास्कर के मुताबिक इस दौरान यह बात भी ध्यान रखने योग्य होती है कि समुद्र तट से अंडों के साथ वहां की रेत भी संवर्धन-स्थलों तक लाई जाती है। ऐसा इसलिए कि रेत में मादा कछुआ अंडे देते समय एक विशेष किस्म का दृव्य-पदार्थ भी छोड़ती है। यह दृव्य-पदार्थ कई तरह के विषाणुओं से अंडों की रक्षा करता है। अंडे निकालते समय अंडों की तारीखवार एक विवरण रखा जाता है, ताकि मालूम रहे कि अंडे फोड़कर कछुए के चूजे कब तक बाहर आ सकते हैं। आमतौर पर 45 से 60 दिनों के भीतर अंडे फोड़कर कछुए के चूजे बाहर निकलते हैं। एक नवजात चूजे का वजन औसतन 15 से 25 ग्राम तक होता है।

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