पश्चिम के शुष्क थार रेगिस्तान और पूर्व के अर्द्ध-शुष्क बाघों के आवास को प्राचीन आरावली पर्वतमाला अलग करती है। राजस्थान में बाघों के इस भू-भाग में तीन भौगोलिक क्षेत्र शामिल हैं - अरावली पहाड़ियां, पूर्वी मैदानी भाग और दक्षिण-पूर्व में हाड़ौती का पठार।
उत्तर-पूर्व-प्रचलित नदियों द्वारा प्रवाहित, जिनकी उत्पत्ति अरावली और विंध्य में हुई है, इस क्षेत्र में उपजाऊ कृषि भूमि और उत्पादक झाड़ी-सह-पर्णपाती वन हैं। इस क्षेत्र के बाघ भारत में बाघों की तीन आनुवंशिक रूप से भिन्न आबादी में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं, अन्य दो आबादी देश के दक्षिण और मध्य क्षेत्रों में स्थित है, यह उत्तर-पश्चिमी आबादी है।
एक समय बाघों की समृद्ध आबादी का घर रहे इस क्षेत्र में पिछली दो शताब्दियों में शिकार, अवैध शिकार और निवास स्थान के नुकसान के कारण उनकी संख्या में दुखद गिरावट देखी गई है। 1930 के दशक के अंत तक भी अरावली के पूर्वी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वितरित, 1970 के दशक की शुरुआत तक, बाघ सरिस्का, सवाई माधोपुर और बूंदी के जंगलों तक ही सीमित हो गए थे।
राजस्थान में देश की आजादी के बाद में अचानक आई गिरावट के कारणों की बात करें तो इसके पिछे आखेट व वन्यजीवों के आवास स्थलों का नष्ट होना सामने आता है। राजस्थान में बाघों की संख्या कम होने के कारणों का पता लगाने वाले एक ऐतिहासिक विवरण पूर्व-औपनिवेशिक और औपनिवेशिक काल में शिकार को प्रमुख कारण बताया गया है। देश की स्वतंत्रता के बाद, राज्य में बाघों की संख्या में और कमी होने के पिछे प्राकृतिक आवासों का नुकसान होना प्रमुख कारण के रूप में उभर कर सामने आया।
भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक परिवर्तनों के साथ-साथ शिकार के कारण भी बदलते रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि-
मुख्य रूप से शिकार के रिकॉर्ड से तैयार की गई उक्त रिपोर्ट को दो शताब्दियों पहले किए गए बाघों के शिकार की घटनाओं के लिए एक आनुवंशिक अध्ययन से जोड़कर भी देखा जा सकता जो भारत में ब्रिटिश शासन की शुरूआत के समये बाघों की संख्या में अप्राकृतिक गिरावट के आनुवंशिक साक्ष्य से संबंधित है।
देश की आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में सरकारों के सामने बढ़ती आबादी को खिलाने की मजबूरियों और बुनियादी ढांचे की आवश्यकता के चलते भूमि उपयोग में बड़े पैमाने पर बदलाव हुआ जिसका सीधा दबाव वन एवं वन्यजीवों पर पड़ा। मानव उपयोग के लिए बाघों के आवासों में हुए इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप बाघों की संख्या में कमी आई। इस प्रकार आजादी के बाद शिकार के साथ साथ बाघों के प्राकृतिक आवासों का खत्म होना बाघों की संख्या में भारी गिरावट का कारण बना।
ऐतिहासिक संख्या की तुलना में, बाघों की आबादी घटकर लगभग 1.7% तक हो गई थी और भारतीय उपमहाद्वीप में बाघ पाए जाने क्षेत्र घटकर 7% तक हो गई थी। इसलिए, जब 1972 में देश बाघों की घटती संख्या के संकट से जागा और बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया, तब तक नुकसान हो चुका था।
उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र की अरावली के पूर्व मे, बाघों के प्राकृतिक आवस स्थलों को फिर से आबाद करने की क्षमता है। मानचित्र तत्वों के स्रोत: क्षेत्र की सीमाओं के लिए राजस्थान वन विभाग, और ऐतिहासिक बाघ रेंज में शिकार के रिकॉर्ड के लिए रिपोर्ट ‘खोए हुए बाघ, लूटे गए जंगल’। मानचित्र: नरेंद्र पाटिल
उम्मीद बंधी
भारत सरकार ने, बंगाल टाइगर (पैंथेरा टाइग्रिस टाइग्रिस) के विलुप्त होने के संभावित खतरे को रोकने के लिए, 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत की। प्राथमिक उद्देश्य पूरे भारत में बाघों की प्रजनन 'स्रोत' आबादी को मजबूत करना था। 1973 में, रणथंभौर सुरक्षा पाने वाले देश के पहले क्षेत्रों में से एक बन गया, और सरिस्का को 1978 में इसी तरह की सुरक्षा मिली। प्रोजेक्ट टाइगर के पहले तीन दशकों में पूरे भारत में प्रजनन 'स्रोत' आबादी को बढ़ाने में कुछ सफलता मिली।
लेकिन, अवैध शिकार के कारण 2004 तक सरिस्का से और 2008 तक पन्ना से सभी बाघों की मौत हो गई जो टाइगर प्रोजेक्ट के लिए एक चुनौती बन गया। दूसरी ओर रणथंभौर के बाघों को इनब्रीडिंग के कारण से विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है। जिससे बाघ परिदृश्य की शत्रुतापूर्ण और खंडित प्रकृति प्रकाश में आई।
इन नई चुनौतियों को देखते हुए केवल टाइगर रिजर्व क्षेत्रों तक सिमित बाघ संरक्षण रणनीति पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
एक वैकल्पिक पहल जिसमें भूदृश्य-स्तरीय (ना की 'रिजर्व-केंद्रित') संरक्षण परिणाम हो, उसे व्यक्त किया गया, और यह एक महत्वपूर्ण रणनीति है जैसे कि एशियाई हाथी, बाघ, एशियाई जंगली कुत्ता और गिद्ध जैसे 'भूदृश्य-स्तरीय प्रजातियों' के संरक्षण के लिए।
इस नवीन संरक्षण दृष्टिकोण के भीतर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने बाघों की मेटा-पॉपुलेशन के रूप में बाघों की रक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया है। बाघों की मेटा-आबादी विभिन्न रिजर्वों में एक अंतर-प्रजनन वाली बर्ड़ी आबादी है जो भौगोलिक रूप से बाघों के प्राकृतिक आवासों में एक दूसरे से जुड़ी हुई है।
लेकिन, राजस्थान का बाघ भूदृश्य गंभीर रूप से विखंडित स्थिति में है, और रणथंभौर की बढ़ती संख्या अन्य टाइगर रिजर्व की बाघ आबादी से अलग-थलग होकर इनब्रिडिंग का शिकार हो रहे हैं।
रणथंभौर के बाघों द्वारा बार बार नए क्षेत्रों में फैलने के कई प्रयास सुरक्षित कोरिडोर के अभाव में विफल रहे हैं। कुछ बाघ रणथंभौर के बाहर अत्यधिक अशांत जंगलों में खुद को स्थापित करने में असमर्थ रहे हैं।
राजस्थान में सरकार के नए संकल्प से इस बाघों के लिए गौरवशाली इतिहास वाले प्रदेश की धूमिल छवी के शीध्र ही बदलने की संभावना है। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए, राजस्थान में 5486 वर्ग किमी के संयुक्त क्षेत्र के साथ पांच टाइगर रिजर्व अस्तित्व में आ चुके हैं। बाघों की ऐतिहासिक उपस्थिति और उत्तर में सरिस्का के संरक्षित जंगलों, पूर्व में माधव और कुनो, रणथंभौर और रामगढ़-विषधारी से दक्षिण में मुकुंदरा की पहाड़ियों तक उत्तर-पश्चिमी बाघों का एक सुरक्षित आवास बनने की दिशा में अग्रसर है।
और इसी में राजस्थान के बाघों के खोए हुए गौरव को बहाल करने की आशा निहित है। हालांकि, यह आशा महत्वपूर्ण चुनौतियों के साथ है।
बाघ अभयारण्यों के पैमाने पर, इन चुनौतियों में मुख्य रूप से निवास स्थान की बहाली, अवैध शिकार का मुकाबला करना और पशुधन चराई और वन उपज के निष्कर्षण के लिए स्थानीय समुदायों की जरूरतों के बीच संतुलन बनाना शामिल है। लैंस्केप-स्केल चुनौतियां कृषि भूमि के विशाल विस्तार से उत्पन्न होती हैं जो 'बाघ पारगम्य' नहीं हैं, साथ ही खनन और बुनियादी ढांचे के विकास परियोजनाओं से मौजूदा वन्यजीव गलियारों के लिए खतरा भी हैं।
शब्दावली
पारिस्थितिकी में 'परिदृश्य/भूदृश्य’ (landscape) का अर्थ
जैवविज्ञान में, लैंडस्केप एक विविध क्षेत्र को सूचित करता है जिसमें विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्र, भू-रूप, और आवासीय स्थल होते हैं, जो एक दूसरे के साथ प्रभावित होते हैं और एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। इसमें वन, घास के मैदान, जलभूमि, नदियाँ, पहाड़ियाँ, और शहरों जैसे मानव-निर्मित सुविधाएँ शामिल होती हैं।