साल 2000 में उत्तर भारत की कश्मीर घाटी में खोजी गई एक विलुप्त हाथी की विशालकाय खोपड़ी। यह खोज हाथी के विकास के इतिहास के अनजाने पहलुओं को सामने लाती है।
शोध में कहा गया है कि हाथी की खोपड़ी को प्रागैतिहासिक काल में लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले 87 पत्थर से बने औजारों के साथ दफनाया गया था। सभी सामग्रियों को जम्मू विश्वविद्यालय में डॉ. गुलाम भट के नेतृत्व में खुदाई करके निकाला गया।
हाल ही में वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने मिलकर इस बड़े शाकाहारी की उम्र और विकास को लेकर कश्मीर में मिली हाथी की खोपड़ी का अध्ययन किया।
खोपड़ी के सामान्य आकार को लेकर शोध में कहा गया है कि यह हाथी पैलियोलोक्सोडोन या सीधे दांत वाले हाथियों का था, जो अब तक के सबसे बड़े भूमि पर रहने वाले स्तनधारियों में से एक है।
पूर्ण विकसित वयस्क लगभग चार मीटर लंबे होते थे और उनका वजन नौ से 10 टन तक होता था। फिर भी कुछ समय से विशेषज्ञों को यह बात हैरान कर रही है कि कश्मीर में मिली खोपड़ी पर एक मोटी, आगे की ओर निकली हुई शिखा नहीं थी, जो भारत में पाई जाने वाली अन्य पैलियोलोक्सोडोन खोपड़ियों की विशेषता है।
हाल के दशकों में, सिर की विकासात्मक सीमा पैलियोलोक्सोडोन की विभिन्न प्रजातियों को अलग-अलग है या नहीं और हाथियों के विकासवादी प्रक्रिया पर इन प्रजातियों की स्थिति विवादास्पद बनी हुई है।
हालांकि हाल के शोध के निष्कर्ष के मुताबिक, इन विलुप्त हाथियों में खोपड़ी की शिखा विकासात्मक और यौन परिपक्वता के साथ अधिक सामान्य हो गई। इसका मतलब यह है कि, एक बार जब नमूनों के दांतों की जांच करके उनकी उम्र का पता लगाया जा सकता है, तो परिपक्वता के समान स्तरों वालों की खोपड़ी की तुलना करना भी संभव हो जाएगा।
खोपड़ी के आकार, दांत और कुछ अन्य विशेषताओं से यह स्पष्ट है कि यह जानवर अपने जीवन के चरम पर एक राजसी हाथी था। लेकिन एक अच्छी तरह से विकसित खोपड़ी में शिखा का न होना, विशेष रूप से यूरोप और भारत से अन्य परिपक्व नर खोपड़ियों की तुलना में, हमें बताती है कि हमारे पास यहां एक अलग प्रजाति है।
इसके बजाय शोध दल ने देखा कि कश्मीर में मिली की खोपड़ी की विशेषताएं 1950 के दशक में अध्ययन किए गए तुर्कमेनिस्तान की एक अन्य खोपड़ी के साथ सबसे अच्छी तरह से मेल खाती हैं, जिसे एक अलग प्रजाति, पैलियोलोक्सोडोन तुर्कमेनिकस के लिए प्रस्तावित किया गया था।
जर्नल ऑफ वर्टेब्रेट पैलियोनटोलॉजी में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि तुर्कमेन खोपड़ी के बारे में हमेशा से यह बात हैरान करने वाली रही है कि खोपड़ी के ऊपरी हिस्से, एक प्रमुख शिखा के न होने के अलावा इसकी अन्य विशेषताएं पहले से ही प्रसिद्ध यूरोपीय प्रजाति, पी. एंटीकस से काफी मिलती-जुलती हैं। इसने कई विशेषज्ञों को यह सुझाव देने के लिए प्रेरित किया कि तुर्कमेन नमूना यूरोपीय प्रजाति का एक अलग नमूना है।
शोधकर्ता ने शोध में कहा, लेकिन कश्मीर में पाई गई खोपड़ी को इसमें शामिल करने के बाद, अब यह स्पष्ट हो गया है कि दोनों नमूने अलग प्रजाति से संबंधित हैं, जिसके बारे में हम पहले बहुत कम जानते थे, जो मध्य एशिया से लेकर उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप तक फैले थे।
कश्मीर में पैलियोलोक्सोडोन खोपड़ी के दांत के इनेमल में प्रोटीन को मापकर और हाथी के अवशेषों के साथ दफनाए गए पत्थर के औजारों की जांच करके, टीम ने निष्कर्ष निकाला कि कश्मीर में पाई गई खोपड़ी 300,000 से 400,000 साल पहले मध्य प्लेइस्टोसिन काल की है, जो तुर्कमेन खोपड़ी की आयु के समान है।
पैलियोलोक्सोडोन पहली बार लगभग 10 लाख साल पहले अफ्रीका में विकसित हुआ था। इस शुरुआती अफ्रीकी रूप में एक संकीर्ण, सपाट माथा और खोपड़ी की शिखा का अविकसित होना था। बाद में यूरोप और भारत में खोजे गए जीवाश्मों से सबसे प्रसिद्ध पैलियोलोक्सोडोन में बहुत चौड़ा, चपटा माथा होता है जो अक्सर एक मोटी शिखा से जुड़ा होता है जो खोपड़ी की ऊपरी हिस्से से आगे की ओर निकली होती है।
शोध टीम ने निष्कर्ष निकाला कि चौड़े, चपटे माथे और खोपड़ी की शिखा के केवल हल्के से निशान के साथ, पी. तुर्कमेनिकस एक लुप्त कड़ी का हिस्सा है, जो इन विलक्षण प्रागैतिहासिक विशालकाय शाकाहारियों के विकास के बारे में हमारी जानकारी बढ़ाते हैं।