विशेष पिछड़ी जनजातियां : अस्तित्व और अधिकारों के अनुत्तरित सवाल

विशेष पिछड़ी जनजातियों के पर्यावास क्षेत्र के अधिकारों पर भारत सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय सहित अधिकांश राज्य सरकारें तक मौन हैं
विशेष पिछड़ी जनजातियां : अस्तित्व और अधिकारों के अनुत्तरित सवाल
Published on

संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्गत मूलनिवासियों-आदिवासियों के अस्तित्व और अधिकारों को लेकर बनी स्थायी समिति के द्वारा जारी रिपोर्ट (2022) के अनुसार - आज पूरी दुनिया में उनके संसाधनों और संस्कृतियों पर पतन का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। जिसका एक प्रमुख कारक उनके जल, जंगल, जमीन और खनिज संसाधनों का अंधाधुंध और अनैतिक अधिग्रहण है।

रिपोर्ट के अनुसार मूलनिवासियों-आदिवासियों की लगभग 47.6 करोड़ जनसंख्या पूरी दुनिया के लगभग 80 फ़ीसदी जैव विविधता की आदिकाल से संरक्षक रही है। इसीलिये जल, जंगल, जमीन पर उनका अधिकार सर्वोपरि है और होना चाहिये। इसका अर्थ यह भी है कि मूलनिवासी - आदिवासी को अब उनका जंगल-जमीन का धरोहर सौंपने की वैधानिक कार्यवाही होनी चाहिये।

पूरी दुनिया के लगभग 22 प्रतिशत आदिवासी जनसँख्या की अपनी भूमि - यह भारत देश है। जनगणना (2011) पर आधारित भारत सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी समाज, भारत के लगभग 15 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं।

इस दृष्टिकोण से भौगोलिक बसावट की दृष्टि से मध्यप्रदेश (14.7%), महाराष्ट्र (10.1%), उड़ीसा (9.2%), राजस्थान (8.9%), गुजरात (8.6%), झारखंड (8.3%), छत्तीसगढ़ (7.5%), आंध्रप्रदेश (5.7%), पश्चिम बंगाल (5.1%), कर्नाटक (4.1%) आदि प्रमुख राज्य हैं; जहां कुल आदिवासी जनसँख्या का लगभग 80 निवासरत है। अर्थात ये सभी राज्य, आदिवासी समाज के अधिकारों और और आदिवासी समाज केंद्रित - वन पारिस्थिकी के संरक्षण-संवर्धन की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं।

भारत सरकार नें वर्ष 2006 में वनाधिकार कानून के मसौदे में पहली बार स्वीकार किया कि - आदिवासी समाज और अन्य परंपरागत वन निवासियों के साथ हुये ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने के लक्ष्य से यह कानून लाया और लागू किया जा रहा है। लेकिन, आदिवासी समुदाय केंद्रित जंगल - जमीन के अभिशासन के लिये राज्य नैतिक - राजनैतिक रूप से अब तक तैयार नहीं हो पाया है।

वनाधिकार कानून (2006) के आधे-अधूरे क्रियान्वयन में आदिवासी मामलों के मंत्रालय की सीमित क्षमता और वन प्रशासनिक तंत्र के पूर्वाग्रहों के चलते अधिकांश राज्यों में आदिवासी समाज आज भी अपने अधिकारों की प्रतीक्षा में हैं।

जंगल-जमीन के आदिकालीन संरक्षक आदिवासी समाज को, वर्ष 1927 के औपनिवेशिक भारतीय वन अधिनियम नें ‘वन अपराधी’, 1980 के केंद्रीय वन संरक्षण कानून नें ‘अतिक्रमणकर्ता’ बनाया तो वनाधिकार कानून नें उसे महज एक ‘आवेदक’ के रूप में अपघटित कर दिया। एक आवेदक के रूप में आदिवासी समाज न केवल असहाय है, बल्कि उस पूरी औपनिवेशिक वन व्यवस्था के समक्ष न्याय की उम्मीद में खड़ा है - जो आज भी जंगल-जमीन पर उनके अधिकारों को अवांछित मानता है।

स्वयं भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय के रिपोर्ट (मार्च 2023) के अनुसार वनाधिकार के लगभग दो-तिहाई से अधिक मामले अब भी लंबित (अथवा खारिज) हैं - जो प्रशासनिक रूप से वजनदार वन विभाग के औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों और उनके परिणामों को प्रदर्शित करता है।

पहली बार वर्ष 1973 में भारत सरकार द्वारा गठित ढ़ेबर आयोग की रिपोर्ट में आदिम जनजातियों जिन्हें बाद में वर्ष 2006 में विशेष पिछड़ी जनजातियों का दर्जा देने की सिफ़ारिश के फ़लस्वरूप उन्हें विशेष संवैधानिक व्यवस्था और सुरक्षा दिया गया। बाद के बरसों में यह योजनाओं तथा कार्यक्रमों की रियायतों और विशेष क्षेत्र प्राधिकरण के लाभार्थियों के रूप में स्थापित-विस्थापित किया गया।

वास्तव में वनाधिकार कानून के मूलस्वरूप में पहली बार जंगल-जमीन पर उनके अपने समस्त स्थापित अधिकारों को मान्यता देने का प्रस्ताव आया। वनाधिकार कानून के अंतर्गत 'पर्यावास क्षेत्र के अधिकार' (हैबिटाट राइट्स) के प्रावधान इन विशेष पिछड़ी जनजातियों को केंद्र में रखकर ही किया गया था।

समाजविज्ञानियों के अनुसार और स्वयं भारत सरकार के प्रशासनिक गजट के अनुसार विशेष पिछड़ी जनजातियों का अस्तित्व और आजीविका पूरी तरह उनके पर्यावास पर केंद्रित रहे हैं। इसीलिये वर्ष 2013 में भारत सरकार के द्वारा विख्यात आदिवासी अध्येता डॉ वर्जीनियस खाका की अध्यक्षता में गठित समिति नें भी इन समुदायों के लिये पर्यावास क्षेत्र के अधिकारों की वकालत करते हुये उनके वनाधिकार को समग्र जंगल-आधारित और समुदाय-आधारित व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया था।

आज विशेष पिछड़ी जनजातियों के पर्यावास क्षेत्र के अधिकारों पर भारत सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय सहित अधिकांश राज्य सरकारें तक मौन हैं।

वनाधिकार कानून के 15 बरसों के बाद भी 76 विशेष पिछड़ी जनजातियों में से एक के लिये भी पर्यावास क्षेत्र का अधिकार पूर्ण रूप से स्थापित न कर पाना - ऐतिहासिक अन्यायों का जारी रहना है। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2021 में भारत सरकार द्वारा पर्यावास के अधिकारों के क्रियान्वयन पर सुझाव के लिये गठित समिति की रिपोर्ट पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं की गयी है।

यही नहीं आज वनाधिकार के लिये गठित जिला स्तरीय समितियों में भी विशेष पिछड़ी जनजातियों के प्रतिनिधि को स्थान नहीं दिया जाना - पर्यावास क्षेत्र के अधिकारों के लिये राज्य सरकारों के अपूर्ण कार्यवाहियों को बेनकाब करता है।

वर्ष 2005 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष के नेतृत्व में गठित समिति के समक्ष, एकता परिषद की ओर से यह लिखित प्रस्ताव दिया गया था कि - कम से कम भारत के समस्त 76 विशेष पिछड़ी जनजातियों को तो वनाधिकार आवेदन की प्रक्रिया से मुक्त करते हुये सीधे उन्हें जमीन, जंगल और अपने पर्यावास क्षेत्र का अधिकार दिया जाना चाहिये। दुर्भाग्यवश ऐसा अब तक नहीं हुआ जिसका परिणाम है कि जंगलों के आदिकालीन संरक्षक - विशेष पिछड़ी जनजातियां, वनाधिकार के लिये पराजित आवेदकों की कतार में खड़े हैं।

आखिर तथाकथित विशेष पिछड़ी जनजातियों की संज्ञा के संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त समुदाय को अपने अस्तित्व, आजीविका और अधिकारों को साबित करने - आवेदक बनने के लिये बाध्य करना क्या उनका संवैधानिक अपमान नहीं है ?

यदि भारत सरकार उनके विशेष पर्यावास के दृष्टिगत उन्हें विशेष पिछड़ी जनजातियों के रूप में अधिसूचित करती है, तो आज उन्हें वनभूमि पर अपनी योग्यता का प्रमाण मांगना क्या संविधान की अवमानना नहीं है ? यदि उनके सभ्यता, आजीविका, बोली और संस्कृति आदि के संरक्षण के लिये ही उन्हें पांचवीं अनुसूची का संवैधानिक कवच दिया गया तो आज उसके अनुरूप पर्यावास क्षेत्र का अधिकार स्थापित करना क्या राज्य की नैतिक-राजनैतिक जवाबदेही नहीं होनी चाहिये? क्यों नहीं समग्र प्रशासन पर विशेष पिछड़ी जनजातियों के संवैधानिक अवमानना का आरोप लगना चाहिये?

विशेष पिछड़ी जनजातियों के अधिकार और अस्तित्व की दृष्टि से छत्तीसगढ़ एक संभावनाशील राज्य है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार छत्तीसगढ़ में अबुझमाड़िया, बैगा, बिरहोर, कमार और पहाड़ी कोरवा आदि प्रमुख पिछड़ी जनजातियां हैं इस सूची में राज्य नें भुंजिया समुदाय को भी शामिल किया है। जनगणना (2011) के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या मात्र 2 लाख है। वनाधिकार के सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि इनमें से मात्र एक चौथाई लोगों को ही वनाधिकार मिल पाया है।

छत्तीसगढ़ में चिल्पी घाटी के शिकारी बैगा कहते हैं कि अगले जनम में - मैं चिड़िया बनना चाहता हूँ ताकि कोई मुझे अपनी अस्तित्व और अधिकारों की सीमायें बतानें के लिये अपमानित न करे। शिकारी बैगा उस विशेष पिछड़ी जनजाति (बैगा) का प्रतिनिधि है जिसे बरसों पहले भारत सरकार का दत्तक संतान तक कहा गया था। शिकारी बैगा के कवर्धा जिले में लगभग 8000 बैगा परिवारों में से अधिकांश अब भी अपनें वनाधिकारों के लिये प्रतीक्षारत हैं।

छत्तीसगढ़ में कमोवेश यही हालत बिरहोर, कमार, पहाड़ी कोरवा और मुड़िया-माड़िया जैसे विशेष पिछड़ी जनजातियों के वनाधिकारों के भी हैं। जिन सरकारों नें विशेष पिछड़ी जनजातियों को संवैधानिक सुरक्षा की पात्रता दी और उनके समग्र विकास का नैतिक-राजनैतिक वायदा किया उसी सरकार के नुमाइंदे उन्हें आवेदकों की कतार में खड़े करके उनसे, उनके अस्तित्व, आजीविका और आजा-पुरखा के सवाल पूछ रहे हैं। क्या यह सवाल विशेष पिछड़ी जनजातियों को बरसों पहले दिये गये संवैधानिक सुरक्षा की अवमानना नहीं है ? और यदि है, तो जवाबदेह आखिर कौन हैं ?

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in