याद करें तो एक अजब सा सन्नाटा होता था, शुरुआत के कुछ दिन। एक बहुत भयभीत करने वाली शान्ति हवा में, जो चित्त को विचलित कर देती! बाहर पुलिस की गाड़ियों की आवाज के अलावा चारों तरफ सन्नाटा ही तो छाया रहता था। ऐसे लगता, मानो सभी एक लम्बे मौन-व्रत में जा चुके हों। घाटियों एवं पहाड़ों वाली शान्ति तो सबको पसंद है, लेकिन ऐसी शान्ति किस काम की, जो डरा जाए? पक्षिओं की बेफिक्र चहचहाहट भी मुश्किल से ही सुनने को मिलती। एकदम से ऐसा लगता मानों यहां होते हुए भी सब से बिछड़ गए हों!
टी.वी .पर एंकर खुले आकाश और साफ हवा की तस्वीरें दिखाने में व्यस्त होते। यह बिलकुल शुरुआत के दिनों की ही बात है। शायद मार्च के महीने की। घर में मम्मी-पापा की, हर वक्त चिंता सताती रहती। उस समय सिर्फ इटली की ही खबरें आती थीं। भैया, स्विट्जरलैंड से आश्वासन दिया करते कि घबराने की कोई जरुरत नहीं, लेकिन कभी-कभी मैं बहुत डर जाती। दिल्ली में और कोई रहता भी तो नहीं। फिर व्याकुलता में मन का आप पर कहां नियंत्रण रहता है।
पहले का एक हफ्ता इन्ही संवादों के बीच आप से चला। अजीब सी उलझने रहतीं। मतलब यह कहां लाकर पटक दिया सृष्टि ने? अभी कल ही तो एक प्रोजेक्ट के लिए बाहर निकल महिलाओं से बातचीत कर रही थी। बसंत के मौसम की बारिश में आजाद घूम रही थी। सेमल के गाढ़े, लाल फूलों को निहार रही थी। फिर अप्रैल में वर्धा और यवतमाल भी जाना था, किसानों से मिलने और जुलाई में छोटे अंतरिक्ष से भी तो मिलना है। शुरू के 2-3 हफ्ते बेवजह के भय और तमाम तरह के विचार आते रहते। मैं पापा से कहती, जहां मीटिंग्स के लिए जाती हूं, वहां तो तथाकथित 'सोशल डिस्टन्सिंग' और बार-बार हाथ धोना असंभव सा ही लगता है?
इन सबका क्या सत्य है? क्या पता क्योंकि हम तो वैसे भी पोस्ट-ट्रूथ वर्ल्ड आर्डर में ही जी रहे हैं। सबके लिए हर चीज के आशय एवं परिभाषाएं अलग-अलग हैं। इसीलिए 'कम्युनिकेशन' भी सब के लिए अलग-अलग है। जैसे हमारे संवाद, व्यवहार, हर समय खबरें देखने की आदतें, सबके लिए अलग-अलग हैं। फिर सबके लिए इस 'वर्क फ्रॉम होम' के अलग मायने हैं। आखिर घर पर भी तो वही बैठ सकते हैं, जो भरे-पेट होते हैं, अपने ही एक 'कैपिटलिज्म' अथवा 'पूंजीवाद' में जो शामिल होते हैं। फिर अधिकतर मिडिल क्लास की अपनी ही एक अजब व्यवहार-कुशलता दिखाई पड़ती है, जो मानवता पर सवाल तो खड़े करती ही है, लेकिन कई बार अनकहे जवाब भी दे जाया करती है।
अब इसी वाक्ये को लीजिये।
अपने इन्हीं ख्यालों और काम के बीच खोयी, मैं अपनी एक मोगरा की लहराती हुई बेल के बारे में तो भूल ही गई थी। मोगरा की वह बेल घर से थोड़ी दूर सड़क के एक कोने पर है। अब क्योंकि लॉकडाउन में हर जगह जाना मना था, तो मैंने एक अंकल, जो सड़क के उस किनारे रहते हैं, उनको फोन करके उनसे अपनी परेशानी व्यक्त की। मैंने कहा कि मेरी वह बेल मर जाएगी, तो प्लीज वे मुझे बता दें, कि उसकी सेवा कैसे हो? साल दर साल उसमें पानी देती आई हूं। उन्होंने मुझे कहा कि वे उसमे पानी दे देंगे और मैं बिलकुल भी घबराऊँ नहीं।
अब पहले ही इतना परेशान करने वाला सन्नाटा ! टी.वी. पर हर एक मिनट पर कोरोना के आंकड़े! एक अलग तरह का अकेलापन हवा में। इन सबके बीच मन कैसे व्याकुल न हो? वैसे भी विश्वास का अभाव तो समाज में पनपता ही जा रहा था। कि ऊपर से कोरोना के भय की मेहरबानी और हो गयी। जिस इंसान को हर समय सड़क पर होने वाले शोर-शराबे, कहीं भी खड़े होकर चाय पीने, और प्रकृति की शान्ति में ही अपना अस्तित्व आसानी से मिल जाता हो, उसके लिए इस घुटन में कुछ भी समझ पाना बहुत असंभव सा था।
और वैसे भी गर्मी के मौसम में चंद दिन के लिए ही तो तारों जैसा मोगरा हमसे मिलने आया करता है। जैसे मानो खुले आकाश में कई रोज कुछ तारे समय-समय पर दिखते हैं, और बाकी साल ओझल रहते हैं। जब बहुत छोटी थी, 1997 में, तो एक बार फ्रिसबी खेलते-खेलते एक धूमकेतु दिखाई पड़ा था। पूरे आकाश को उसकी श्वेत आभा ने प्रकाशित कर दिया था। ठीक उसी तरह जैसे अंधेरे में हम उम्मीद की एक लौ ढूंढ़ते रहते हैं। बिलकुल वैसे ही तो मोगरा गर्मियों की सुबह-सवेरे हमसे मिलने आया करता है।
सफ़ेद फूलों की गहराई को शब्दों में व्यक्त करना तो व्याख्यायों एवं श्वेत रंग की तौहीन करने के बराबर है। वो इसलिए कि बेरंग फूल हमें देखते हुए, हमसे हर पल मुस्काने के लिए ही तो कहते आए हैं। फिर मोगरा को तो वैसे भी किसी से कुछ कहने की जरुरत नहीं, उसकी तो सुगंध ही अपने-आप में हमें एक गहरे ध्यान में ले जाने के लिए काफी है।
उन दिनों मैं हर रोज रात को पूजा करने से पहले एक बार उससे माफी मांग सो जाती, कि दोस्त माफ करना मैं तुम्हें पानी नहीं दे पा रही हूं, आजकल। काश तुम्हे न्यूज समझ आती। काश हम और तुम बात कर सकते और कोरोना को ले दुःख सुख बांट सकते।
जब भी कभी कोई नुकसान कर देता है तो पापा हमेशा समझाया करते हैं कि दुनिया में अच्छे लोग भी तो हैं, हमेशा अच्छा-अच्छा सोचो, और बुराई को मत याद रखो। यह सत्य ही तो है कि इन वाक्यों के आशय हमें बड़े होने पर ही समझ आते हैं। समझदारी, रिएक्शंस, 'सरकासम' एवं आलोचना की दुनिया से कोसों दूर! हालांकि इनके महत्व को ट्विटर के लड़ाई-झगड़े की दुनिया में टटोलना मुश्किल है। परन्तु कोरोना ने बखूबी इन मूल्यों को हमारे सामने ला खड़ा कर दिया है।
दिन बीतते गए। कुछ रोज बाद अंकल ने दरवाजे की घंटी बजायी। यकीन मानिये अपने ऊपर शर्म भी आयी, जब उन्होंने मोबाइल फोन में फोटो दिखाई और कहा 'यह लो बिटिया, तुम्हारा मोगरा। सब ठीक है न?' कह वे मुस्कराते हुए चल दिए।
उनके इस खुशनुमा व्यवहार और सहजता से मैं भी प्रज्ज्वलित हो उठी, लेकिन एक स्तब्धता में भी डूब गयी।सोचने लगी चाहे कितनी ही परेशानियां क्यों न आयी हों, आखिर विश्वास ही तो है जो अंत में काम आता है। फिर चाहे हम और आप अपने शीशे के महलों में बैठ कितने ही 'आर्टिफिशल इंटेलिजेंस' और 'फोर्थ इंडस्ट्रियल रेव्लुशन' मतलब चौथी औद्योगिक क्रांति के ढोल पीटते रह जाएं। कितने ही अलेक्सा और सीरी आएंगे और जाएंगे। लेकिन रह जाएंगी तो इंसान की मानवीय संवेदनाएं।
नया साल आने वाला है। वैक्सीन का ज्यादा कुछ मुझे समझ नहीं आता, लेकिन यह पता है कि इस बार फिर से उस बेल पर फूलों की बहार आएगी।