धधकती आग से सिर्फ जंगल ही नहीं, जल रहा है करोड़ों का टिम्बर कारोबार

रिसर्च से पता चला है कि पिछले दो दशकों में 2.47 करोड़ हेक्टेयर लकड़ी उत्पादक जंगल आग की भेंट चढ़ गए थे, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 6.4 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है
धधकती आग की भेंट चढ़ते देवदार के जंगल; फोटो: आईस्टॉक
धधकती आग की भेंट चढ़ते देवदार के जंगल; फोटो: आईस्टॉक
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एक तरफ जहां दुनिया भर में टिम्बर की मांग लगातार बढ़ रही है। वहीं जंगलों में लगती भीषण आग भी उनपर गहरा दबाव डाल रही है। इस बारे में द ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी (एएनयू), शेफील्ड विश्वविद्यालय और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि जंगल में लगने वाली भीषण आग, दुनिया भर में टिम्बर उत्पादन को खतरे में डाल रही है। यह अध्ययन 2001 से 2021 के आंकड़ों पर आधारित है।   

शोधकर्ताओं द्वारा आंकड़ों के किए इस विश्लेषण से पता चला है कि दो दशकों के दौरान 1.85 से 2.47 करोड़ हेक्टेयर के बीच लकड़ी उत्पादक जंगल आग की भेंट चढ़ गए थे। यह क्षेत्र कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह आकार में करीब-करीब ग्रेट ब्रिटेन के बराबर है। 

रिसर्च में सामने आया है कि जंगल में लगी इस भीषण आग से करीब 66.7 करोड़ क्यूबिक मीटर औद्योगिक टिम्बर का नुकसान हुआ है। वहीं इसकी कीमत की बात करें तो वो करीब 6.4 लाख करोड़ रुपए (7,700 करोड़ डॉलर) के बराबर है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित हुए हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि इमारती लकड़ी या टिम्बर एक महत्वपूर्ण वैश्विक संसाधन है, जिसका उपयोग निर्माण से लेकर कागज और ऊर्जा तक के लिए किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी “द स्टेट ऑफ वर्ल्डस फारेस्ट रिपोर्ट 2022” के मुताबिक टिम्बर उद्योग वैश्विक अर्थव्यवस्था में करीब 1.5 लाख करोड़ डॉलर से अधिक का योगदान दे रहा है।

इतना ही नहीं यदि 2020 के आंकड़ों पर नजर डालें तो वैश्विक तौर पर कम से कम करीब एक तिहाई वनों का उपयोग टिम्बर उत्पादन के लिए किया जा रहा है। वहीं जिस तरह से दुनिया भर में लकड़ी की मांग बढ़ रही है उसको देखते हुए कयास लगाए जा रहे हैं कि टिम्बर की यह बढ़ती मांग 2050 तक बढ़कर तीन गुणा हो सकती है। 

देखा जाए तो टिम्बर की इस बढ़ती मांग के लिए बढ़ती आबादी और शहरीकरण जैसे कारक जिम्मेवार हैं। इतना ही नहीं रिसर्च के मुताबिक जिस तरह शुद्ध शून्य जलवायु लक्ष्य कंक्रीट और स्टील की जगह पर्यावरण अनुकूल सामग्री को बढ़ावा दे रहे हैं उससे भी लकड़ी की मांग बढ़ रही है।

जलवायु में आते बदलावों से साल-दर-साल बढ़ रहा है खतरा

शोधकर्ताओं के मुताबिक बढ़ते तापमान और जलवायु में आते बदलावों के चलते यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले रही है। इसकी वजह से साल दर साल जलते जंगलों में इक्कीसवीं सदी के दौरान उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। जो टिम्बर उद्योग को भी नुकसान पहुंचा रही है। ऐसे में यदि भविष्य में इसकी बढ़ती जरूरतों को पूरा करना है तो इससे जुड़ी चुनौतियों को भी गंभीरता से लेना होगा।

यदि 2001 और 2019 के बीच जंगल में लगी आग को देखें तो उससे 11 करोड़ हेक्टेयर से अधिक जंगल नष्ट हो गए थे। रिसर्च में यह भी कहा गया है कि जलवायु में आते बदलावों के चलते आग के मौसम की अवधि और उसकी सीमा में भी सदी के अंत तक काफी वृद्धि होने की आशंका है। इसकी वजह से जंगलों में भीषण आग का खतरा भी बढ़ जाएगा।

शेफील्ड विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर क्रिस बॉसफील्ड का कहना है कि, "इससे सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों में ऑस्ट्रेलिया, पश्चिमी अमेरिका, कनाडा, साइबेरियाई रूस और ब्राजील शामिल हैं।" उनके मुताबिक ऑस्ट्रेलिया जैसे देश, जिन्होंने इस सदी में अपने लकड़ी उत्पादक जंगलों में पहले से ही काफी ज्यादा नुकसान का अनुभव किया है, उन्हें अब स्थानीय लकड़ी की आपूर्ति में उल्लेखनीय कमी का सामना करना पड़ सकता है।

ऐसे में उनके अनुसार सबसे बड़ा सवाल यह है कि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अतिरिक्त लकड़ी कहां से आएगी और इसकी पर्यावरण को कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी।

अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डेविड लिंडेनमेयर ने जलवायु परिवर्तन के चलते जंगल में लगने वाली आग पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि, “जैसा कि लकड़ी की मांग लगातार बढ़ रही है, और आग का खतरा भी बढ़ रहा है, यह स्पष्ट है कि टिम्बर उत्पादकों को जंगल की आग से उत्पन्न बढ़ते खतरे से निपटने के लिए नवीन प्रबंधन रणनीतियों और नई तकनीक को अपनाने की आवश्यकता है।“

शोधकर्ताओं के मुताबिक यदि इसपर अभी गौर न किया गया तो न केवल इससे पर्यावरण पर दबाव बढ़ेगा, साथ ही लकड़ी की कीमतों में भी इजाफा हो सकता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ शोधकर्ता प्रोफेसर डेविड एडवर्ड्स के मुताबिक इसकी वजह से कुछ उष्णकटिबंधीय जंगलों में वन विनाश का खतरा बढ़ जाएगा। नतीजन जैव विविधता से भरपूर हॉटस्पॉट में संरक्षण के प्रयास खतरे में पड़ सकते हैं। 

एक डॉलर = 83.36 भारतीय रुपए

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