भारतीय शोधकर्ताओं ने माइक्रोहाइलिडी परिवार के मेंढक की एक नई प्रजाति का पता लगाया है। मेंढक की यह प्रजाति केरल के दक्षिणी-पश्चिमी घाट में सड़क किनारे मौजूद अस्थायी पोखर में पाई गई है।
मेंढक की इस प्रजाति की आंतरिक एवं बाह्य संरचना, आवाज, लार्वा अवस्था और डीएनए नमूनों का अध्ययन करने के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस अध्ययन से जुड़े दिल्ली विश्वविद्यालय के उभयचर वैज्ञानिकों सोनाली गर्ग और प्रो एस.डी. बीजू ने विकासवादी जीव-विज्ञानी प्रो फ्रैंकी बोसुइट के नाम पर इस नयी प्रजाति को मिस्टीसेलस फ्रैंकी नाम दिया है।
यह प्रजाति दक्षिण-पूर्वी एशिया के माइक्रोहाइलिने उप-परिवार के मेंढकों से मिलती-जुलती है। इसकी करीबी प्रजातियां लगभग दो हजार किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व एशिया के भारत-बर्मा और सुंडालैंड के वैश्विक जैव विविधता क्षेत्रों में पाई जाती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, मेंढक की यह प्रजाति अपने दक्षिण-पूर्व एशियाई संबंधियों से लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व अलग हो गई थी।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस समानता का कारण सेनोजोइक काल में भारत और यूरेशिया के बीच होने वाला जैविक आदान-प्रदान हो सकता है। माइक्रोहाइलिडी परिवार के मेंढकों को संकीर्ण-मुंह वाले मेंढक के नाम से भी जाना जाता है।
प्रमुख शोधकर्ता सोनाली गर्ग ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “प्रायद्वीपीय भारत के प्रमुख जैव विविधता केंद्र में स्थित होने के बावजूद इस प्रजाति की ओर पहले किसी का ध्यान नहीं गया था। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में उभयचरों का दस्तावेजीकरण अभी पूरा नहीं हुआ है। इस मेंढक को अब तक शायद इसलिए नहीं देखा जा सका क्योंकि यह वर्ष के अधिकतर समय गुप्त जीवनशैली जीता है और प्रजनन के लिए बेहद कम समय के लिए बाहर निकलता है।"
इस प्रजाति के नर मेंढक कीट-पतंगों जैसी कंपकंपाने वाली आवाज से मादा को बुलाते हैं। यह ध्वनि कीट-पतंगों के कोरस से निकलने वाली आवाज की तरह होती है। नर मेंढक आमतौर पर उथले पानी के पोखर के आसपास घास की पत्तियों के नीचे पाए जाते हैं।
इस मेंढक के पार्श्व भाग में आंखों की संरचना जैसे काले धब्बे होते हैं। नर मेंढक शरीर के पिछले भाग को उठाकर कमर पर मौजूद इन धब्बों को प्रदर्शित करते हैं। इन मेंढकों में इस तरह का व्यवहार उस वक्त देखा गया है, जब वे परेशान होते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि ये धब्बे शिकारियों के खिलाफ रक्षात्मक भूमिका निभाते हैं।
जीवों के आश्रय स्थलों के नष्ट होने के कारण उभयचर प्रजातियां भी विलुप्ति से जुड़े खतरों का सामना कर रही हैं। इस नये मेंढक के आवास संबंधी जरूरतों और इसके वितरण के दायरे के बारे में अभी सीमित जानकारी है। इसलिए, इस मेंढक से संबंधित स्थलों को संरक्षित किया जाना चाहिए, ताकि इस प्रजाति को बचाया जा सके।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के क्रिटिकल इकोसिस्टम पार्टनरशिप फंड और दिल्ली विश्वविद्यालय के अनुदान पर आधारित यह अध्ययन सोनाली गर्ग ने अपने पीएचडी सुपरवाइजर प्रो एस.डी. बीजू के निर्देशन में पूरा किया है। अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स के ताजा अंक में प्रकाशित किए गए हैं। (इंडिया साइंस वायर)