भारत में जंगल-जमीन के सफल आंदोलनों का एक जीवंत इतिहास है। कहना न होगा, इस इतिहास को (तथाकथित) मुख्यधारा के इतिहासकारों ने उपेक्षा के नेपथ्य में धकेल दिया। ऐसा नहीं है कि इतिहासकार इन सफल आंदोलनों से अपरिचित थे - कदाचित उनके पूर्वाग्रह, उनकी तटस्थता पर हावी थी/ है - या शायद वे इतिहास को देशज सामाजिक चेतना का आधार न मानने और कहने की निजी अज्ञानता से ग्रस्त थे/हैं।
युवा होते भारत के प्रत्येक नागरिक और भावी पीढ़ी को यह जानना ही चाहिये कि जंगल-जमीन पर स्वशासन के तमाम सफल आंदोलनों के नेतृत्वकर्ता नाम-गुमनाम आदिवासी योद्धा थे, जिन्होंने अपनी संगठित शक्ति से ब्रितानिया हुकूमत को झुकाया।
भारत शायद विश्व के उन चुनिंदा देशों में है जहां जंगल-जमीन की स्वाधीनता और स्वायत्तता के सफल आंदोलनों का इतिहास - अकादमिक अथवा शैक्षणिक संस्थाओं में लगभग हाशिये पर है। वास्तव में तथाकथित नामी-गिरामी इतिहासकारों और भारत के अकादमिया ने आदिवासी भारत में स्वशासन के देशज इतिहास और उनके ऐतिहासिक नायकों को तवज्जो दिया ही नहीं।
कदाचित यही कारण है - आदिवासियत और स्वशासन के मूल्यों और महत्त्व को शेष समाज और शासन-प्रशासन कभी आत्मसात कर ही नहीं पाये। भारत के आदिवासी समाज के सफल आंदोलनों को मुख्यधारा के इतिहास से अछूता छोड़ देने का जो अकादमीय अपराध हमारे इतिहासकारों और शिक्षाविदों ने किया है, वह आदिवासी समाज के विरुद्ध ऐतिहासिक अन्यायों का एक अनसुलझा अध्याय है।
आखिर वर्ष 1832 में झारखंड के कोल आदिवासियों और ब्रितानिया नुमाइंदों के मध्य हुई संधि और वर्ष 1837 के 'कोल्हान राज' की स्थापना अथवा वर्ष 1910 को बस्तर की रानी सुबरन कुँवर द्वारा घोषित 'मुरिया राज' की स्थापना की सफल गाथायें भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में शामिल क्यों नहीं हैं?
क्यों नहीं, वर्ष 1922 में नल्ला-मल्ला में औपनिवेशिक वन-कानूनों के विरोध मे चेंचु आदिवासियों का सशक्त प्रतिरोध और वर्ष 1830 में जयंतिया और गारो घाटी में ख़ासी आदिवासियों का सफल आंदोलन - भारत की स्वाधीनता के मुख्यधारा के इतिहास में दर्ज हैं ?
वास्तविकता तो यह है - भारत के शिक्षा तंत्र नें कभी इस ऐतिहासिक धरोहर से समाज को शिक्षित करने का कोई प्रयास किया ही नहीं। शेष समाज और शासन-प्रशासन के इस इतिहास से जाने-अनजाने अनभिज्ञ रह जाने का ही परिणाम - व्यापक संक्रामक असंवेदनशीलता के रूप में आज सबके सामने है।
भारत सहित दुनिया के अनेक इतिहासकारों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि - इतिहास वास्तव में सामाजिक मनोविज्ञान के प्रमुख निर्धारकों में हैं। भारत जैसे देश में जहाँ 'जमीन और जमीर' की रक्षा करने वाले समाज का सफल इतिहास रहा है - वह निश्चित ही हाशिये पर धकेल दिये गये समाज के लिये एक मनोवैज्ञानिक संबल हो सकता था/है।
जिस आदिवासी समाज ने अपने जमीन और जमीर में स्वायत्तता के लिये सफल प्रतिरोध किया और शेष समाज को एक रास्ता दिखाया - वह आज नई पीढ़ी के लिये नई सीख और नई उम्मीद निश्चित ही हो सकता है।
छत्तीसगढ़ के गीदम (बस्तर) में विगत 7 फरवरी को अखिल भारतीय आदिवासी महासभा, बस्तर जनअधिकार संगठन और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन सहित अनेक जनसंगठनों नें मिलजुलकर अमर शहीद गुंडाधुर की स्मृति में 'भूमकाल दिवस' मनाया। शहीद गुंडाधुर - जिन्होंने पूरे आदिवासी समाज को एकजुट किया और ब्रितानिया अन्यायों के विरुद्ध जनजातीय नाफरमानी का नेतृत्व भी किया।
अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के प्रमुख मनीष कुंजाम कहते हैं कि “हम सब मिलकर न केवल अपने पूर्वजों का आभार व्यक्त कर रहे हैं बल्कि भावी पीढ़ी को भी शिक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि अपने 'जंगल और जमीन' के लिये वो और अधिक समर्पण के साथ सामने खड़े हो सकें।“
इसी कड़ी में एकता परिषद और अनेक सहयोगी संगठनों के द्वारा 2-4 मार्च को छत्तीसगढ़ के नगरी-सिहावा (धमतरी) के ऐतिहासिक गट्टासिल्ली गांव में जंगल सत्याग्रह के शताब्दी बरस मनाने का ऐलान किया है। महात्मा गाँधी की प्रेरणा से 'जंगल - जमीन' और उन पर निर्भर आदिवासी तथा वन निवासी समाज के अधिकारों के लिए हुए अनेक ऐतिहासिक आंदोलनों में 'जंगल सत्याग्रह' का अपना विशेष महत्व है।
जनवरी 1922 को छत्तीसगढ़ के सिहावा-नगरी क्षेत्र में भारत का प्रथम जंगल सत्याग्रह प्रारंभ हुआ जिसका उद्द्येश्य आदिवासी समाज और स्थानीय वन निवासियों के अधिकारों को स्थापित करना था। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल में जंगल सत्याग्रह की शुरुआत - तत्कालीन ब्रिटानिया हुकूमत द्वारा लागू आदिवासी विरोधी वन कानून - जैसे वनोपजों पर टैक्स तथा बेगारी अथवा अल्प मजदूरी में कार्य करने के लिये विवश किये जाने के विरोध में हुआ था।
बाद में यह जंगल सत्याग्रह गट्टा सिल्ली (धमतरी), मोहबना पोड़ी (दुर्ग), सीपत (बिलासपुर), रुद्री नवागांव (धमतरी), तमोरा (महासमुंद), लभरा (महासमुंद), बांधाखार (कोरबा), सारंगगढ़ (रायगढ़), छुईखदान (राजनाँदगाँव), बदराटोला (राजनाँदगाँव) आदि क्षेत्रों में तेजी से फैला और हजारों सत्याग्रहियों नें मिलकर इसे सफल बनाया। एकता परिषद मानती है कि 'जंगल सत्याग्रह के 100 बरस' के आयोजन से छत्तीसगढ़ के लोग अपने गौरवपूर्ण इतिहास से शिक्षित होंगे।
संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से पूरी दुनिया के मूलनिवासियों - आदिवासियों के इतिहास के अध्ययन-लेखन और विमर्श को प्रोत्साहित करने के लिये वर्ष 2009 से प्रयास प्रारंभ हुये। इस प्रयास के तहत दुनिया भर के 90 देशों के लगभग 37 करोड़ मूलनिवासियों के साथ उनके द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली लगभग 4000 भाषाओ और बोलियों और उनके इतिहास के व्यवस्थित संग्रहण, संरक्षण और लेखन को प्रोत्साहित किया गया।
इसके पूर्व वर्ष 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी मूल निवासियों के घोषणापत्र में कहा गया कि इतिहास, भाषा-बोलियों और संस्कृति का संरक्षण हरेक देश/राज्य का वैश्विक दायित्व है। इस घोषणापत्र को बोलीविया नें ना केवल पूरी तरह अपनाया बल्कि आज दुनिया के अनेक देशों में आदिवासियों के अधिकारों के कानूनी मामलों में इस घोषणापत्र को एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ के रूप में उपयोग किया जा रहा है। जाहिर है संयुक्त राष्ट्र के इन प्रयासों को औपचारिक-अनौपचारिक शिक्षा से जोड़ना ही होगा।
विख्यात मनोविज्ञानी लोरेन्स क्रूस कहते हैं कि - शिक्षा का उद्देश्य अज्ञानता की पुष्टि करना नहीं बल्कि उससे बाहर लाना है। औपनिवेशिक हुकूमतों के आखेट रहे सुदूर दक्षिण अमरीका से लेकर ध्रुवीय कनाडा और मध्य पूर्व से लेकर अफ्रीका तक मूलनिवासियों के नये अभियानों नें - अपने अतीत के आंदोलनों को याद करनें और नयी पीढ़ी को शिक्षित करने का जो नया प्रयास प्रारंभ किया है - वह निश्चित ही मूलनिवासी-आदिवासी समाज को अपने गौरवपूर्ण अतीत से जोड़ेगा ऐसा विश्वास है।
आज छत्तीसगढ़ में सर्व आदिवासी समाज और अखिल भारतीय स्तर पर आदिवासी समन्वय मंच जैसे महत्वपूर्ण संगठन आदिवासी और शेष समाज को आदिवासी समाज और आदिवासी धरोहर से जोड़ने और शिक्षित करने का कार्य कर रहे हैं। आदिवासी समन्वय मंच के संस्थापक निकोलस बारला कहते हैं कि - 'अपने अतीत और धरोहर को जानने-समझने वाली नेतृत्व की नयी पीढ़ी निश्चित ही आदिवासियत को बेहतर तरीके से सहेज कर आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकेगी।'
वास्तव में विगत 300 बरसों में जंगल-जमीन के लिये बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, रानी सुबरन कुंवर, तांत्या भील और बृजवासी पाउना जैसे अनेकों नेतृत्वकर्ताओं और उनके नेतृत्व में हुये सफल आंदोलनों और सत्याग्रहों को अब तो शैक्षणिक निकायों में उनका सम्मानजनक स्थान मिलना ही चाहिये। लेकिन ऐसा होने तक समाज की स्मृतियों और चर्चाओं में उसे लगातार जिंदा बनाये रखना पूरे समाज की सामूहिक जवाबदेही है। वह इसलिये कि हम सब उस सफल इतिहास से परिचित हों जो हमारे सामूहिक सामाजिक चेतना को जीवंत कर सके। और इसलिये भी कि भावी पीढ़ी अपने ऐतिहासिक दायित्वों का अधिकारपूर्वक वहन कर सके।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)