भारत में चीतों की बहाली से जुड़ी परियोजना की देखरेख करने वाले अधिकारियों के कुप्रबंधन, राजनैतिक दबाव और जल्दबाजी में लिए फैसलों के चलते कूनो राष्ट्रीय उद्यान (केएनपी) में लाए गए चीतों की मौत हो रही है।
गौरतलब है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 सितंबर, 2022 को अपने 72वें जन्मदिन पर नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को कूनो राष्ट्रीय उद्यान (केएनपी) के एक बाड़े में छोड़ा था। इसके बाद 18 फरवरी 2023 को दक्षिण अफ्रीका से 12 चीते लाए गए।
मार्च 2023 से देखें तो अब तक कुल नौ चीतों की मौत हो चुकी है, जिनमें भारत में पैदा हुए चार में से तीन शावक भी शामिल हैं। धात्री (तिब्लिसी) नामक एक मादा, दो अगस्त, 2023 की सुबह मृत पाई गई थी, जबकि दो अन्य शावकों की जुलाई में मृत्यु हो गई थी। वर्तमान में इस उद्यान में कुल 14 चीते बचे हैं, जिनमें सात नर, छह मादाएं और एक मादा शावक है।
इस बारे में परियोजना से जुड़े विशेषज्ञों और सूत्रों ने डाउन टू अर्थ (डीटीई) को जानकारी दी है कि यह साइट जंगली बिल्लियों के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं है और परियोजना के बुनियादी सिद्धांतों से समझौता किया गया है। ऐसे में उन्होंने परियोजना पर दोबारा गौर करने और उसे सफल बनाने के लिए व्यापक फेरबदल करने की सलाह दी है।
वन्यजीव संरक्षण की दिशा में काम कर रहे रणथंभौर स्थित संगठन टाइगर वॉच के संरक्षण जीवविज्ञानी धर्मेंद्र खांडल का कहना है कि, "सरकारी अधिकारी मौतों के पीछे अलग-अलग कारण बता रहे हैं, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि अधिकारियों को चीतों से निपटने का बहुत कम तकनीकी ज्ञान है।" उन्होंने कहा कि, वे अपनी गलतियों को छिपाने के लिए जल्दबादी में बनाई रणनीतियों का सहारा ले रहे हैं।
उन्होंने बताया कि नर चीता "तेजस" की मौत के लिए सबसे पहले उसके और मादा चीता के बीच हुई हिंसक झड़प को जिम्मेदार ठहराया गया, जिससे चोट लगने पर उसकी मौत हो गई। उन्होंने कहना है कि हालांकि "बाद में, अधिकारियों ने पुष्टि की कि मौत रेडियो कॉलर के कारण होने वाले संक्रमण सेप्टीसीमिया के कारण हुई।" उन्होंने कहा कि मादा चीतों द्वारा नर को मारना पहले नहीं सुना गया है।
खंडाल का आगे कहना है कि, "इतनी सारी गलतियों के बावजूद, अधिकारी लगातार दोहरा रहे हैं वे चीतों को नई जगहों पर नहीं ले जाएंगे।"
स्थान और आहार की कमी भी बन रही समस्या
उनका कहना है कि “इन चीतों के जिस स्थान पर छोड़ा गया है वो स्पष्ट रूप से इनके लिए पर्याप्त नहीं, जो इनकी आपसी लड़ाई और मौतों का कारण बन रहा है। वे मौजूदा स्थान में क्लॉस्ट्रोफोबिया का शिकार हैं और सहज महसूस नहीं कर रहे। यही कारण है कि उनमें से दो चीते करीब 200 किलोमीटर दूर झांसी की ओर चले गए और बाद में उन्हें बेहोश करके वापस लाना पड़ा था।
बता दें कि इस साल की शुरूआत में, चीता "पवन" और "आशा" पन्ना के पास झांसी की ओर चले गए। वहां से बाद में वो चंदेरी की ओर चले गए। नामीबिया से लाए गए आठ चीतों में से एक, "ओबन" अप्रैल में भागकर केएनपी से 20 किलोमीटर दूर एक गांव में भटक गया था। उसे भी पकड़ कर लाना पड़ा था। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिफारिश किए जाने के बावजूद केंद्र सरकार इस बात पर जोर देती रही है कि चीतों को दूसरी जगह स्थानांतरित नहीं किया जाएगा।
चीते जिन जानवरों का शिकार करते हैं, चीता एक्शन प्लान में उनकी संख्या वास्तव में बहुत कम बताई गई है। वन्यजीव विशेषज्ञ ने कहा कि, "शिकार का आधार 60 प्रति वर्ग किलोमीटर होने का दावा किया गया था, जिसे अब संशोधित कर 17 से 20 प्रति वर्ग किलोमीटर कर दिया गया है।" इस बारे में खंडाल का सुझाव है कि परियोजना को बेहतर बनाने के लिए विज्ञान और पारिस्थितिकी के जानकार विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जानी चाहिए।
उन्होंने आगे बताया कि "यह परियोजना भारत में मौजूद चीतों पर विचार करने के बाद शुरू की गई। लेकिन रिकॉर्ड को करीब से देखने पर पता चलता है कि इन चीतों की ज्यादातर आबादी संभवतः बंदी थी और जंगल में ज्यादा नहीं थी।''
खंडाल ने जर्नल ऑफ द बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी में 2019 में प्रकाशित एक रिसर्च "एशियाटिक चीता एसिनोनिक्स जुबेटस वेनेटिकस इन इंडिया: ए क्रोनोलॉजी ऑफ एक्सटिंशन एंड रिलेटेड रिपोर्ट्स" का जिक्र करते हुए कहा कि इसमें जंगली इलाकों और यहां तक कि तटों पर भी चीतों का वितरण दिखाया गया है।" "जिन जानवरों को शुष्क क्षेत्रों में रहने के लिए जाना जाता है, वे वास्तव में भारत के विभिन्न हिस्सों में पाए जाते थे। उनका आगे कहना है कि "ऐसे में चीतों के आदर्श स्थल की पहचान और उसपर ज्यादा शोध करने की जरूरत है।"
कुप्रबंधन के कारण हो रही मौतें
चीता परियोजना की निगरानी करने वाले एक सूत्र ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि "अवैध शिकार से शिकार की संख्या कम होने की आशंका है, लेकिन जंगली बिल्लियों की मौत सरासर कुप्रबंधन के कारण हुई है।"
सूत्र का कहना है कि, "चीता एक्शन प्लान के मुताबिक, अब तक दर्ज कोई भी मौत फंदे, भुखमरी, बीमारी, सड़क हादसे और तेंदुए जैसे प्रत्याशित कारणों से नहीं हुई है।" नई साइटों की तैयारी पर संदेह जताते हुए सूत्र ने कहा कि सरकार के पास इन साइटों की तैयारी के लिए पैसा आबंटित नहीं है। उनके अनुसार “कोई भी गांव स्थानांतरित नहीं किया गया है। एक नई साइट स्थापित करने में कुछ करोड़ रुपए खर्च हो सकते हैं। इसके लिए सिर्फ बाड़ बनाना और जानवरों को हटाना पर्याप्त नहीं होगा।''
सोशल मीडिया पर फैली तस्वीरों और समाचार रिपोर्टों में चीतों को सिर से पूंछ तक बुरी तरह सड़ते हुए दिखाया गया है। सूत्र ने भी सवाल किया कि यह निगरानी टीम से कैसे बच गया।
विशेषज्ञ का कहना है कि, “कीड़ों ने कई दिनों तक चीते के शरीर में बहुत दर्द और जलन पैदा की होगी। ऐसा संक्रमण रातोंरात नहीं फैलता। निश्चित रूप से उन जानवरों के व्यवहार में कुछ बदलाव जरूर आए होंगे। पशुचिकित्सक कैसे इसका पता नहीं लगा सके?”
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, शावकों की मौत भूख के कारण हुई है। “ऐसे में अगर टीमें शावकों को अच्छी तरह से देख रही होतीं, तो उन्हें एहसास होता कि शावकों ने खाना नहीं खाया है। "सूर्या", मरने वाला पांचवां वयस्क नर चीता था, कथित तौर पर उसका वजन भी कम था। ये जानवर भूखे से क्यों मर रहे हैं?” सूत्र ने सवाल किया।
विशेषज्ञ का कहना है कि, अन्य स्रोतों से भी पता चला है कि वयस्क चीते ने चार दिनों से कुछ नहीं खाया था। "क्या निगरानी टीम में से कोई भी व्यक्ति, रोजाना इनका निरीक्षण नहीं कर रहा। हालांकि प्रत्येक चीते पर करीब 30 लोगों का दल है। जागरूकता की यह कमी लापरवाही का एक स्पष्ट मामला है।"
सूत्र का कहना है कि, "अगर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से सलाह लेने के सबूत मांगे होते, तो दिखाने के लिए बहुत कम सबूत होते।" गौरतलब है कि विशेषज्ञों के एक समूह ने 15 जुलाई, 2023 को अपने पत्र में सुप्रीम कोर्ट को परियोजना के कामकाज के संबंध में अपनी चिंताओं के बारे में अवगत कराया था।
खराब संचार और विकास का असर परियोजना से जुड़े लोगों पर पड़ रहा है। सूत्रों का दावा है कि परियोजना के लिए जानकारी जुटाने के लिए गठित संचालन समिति को इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से सलाह करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। एक अन्य सूत्र का कहना है कि, "जानवरों को होने वाले नुकसान की परवाह किए बिना, वे इसे अपने तरीके से करना चाहते हैं।"
एक अंदरूनी सूत्र ने डीटीई को बताया कि भारतीय वन्यजीव संस्थान के पूर्व डीन वाईवी झाला ने आंकड़े जुटाने के लिए फॉर्म डिजाईन किए थे जिन्हें मध्य प्रदेश वन विभाग और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण दोनों से मंजूरी मिली थी। झाला ने चीता एक्शन प्लान का मसौदा भी तैयार किया था और उन्होंने 2012 से फरवरी 2023 तक चीता परियोजना के प्रमुख वैज्ञानिक के रूप में भी कार्य किया।
सूत्र ने कहा कि, "इन महत्वपूर्ण फॉर्मों को चीतों के स्वास्थ्य का रिकॉर्ड रखने और भविष्य के लिए संदर्भ के रूप में उपयोग करने के लिए बनाया गया था। यह चीतों के व्यवहार को समझने में भी मददगार होते। लेकिन ऐसा लगता है कि झाला को अचानक छोड़ने के लिए कहने के बाद से यह ये फॉर्म नहीं भरे गए हैं।"
व्यक्ति ने यह भी खुलासा किया है कि निगरानी के लिए जिम्मेवार लोगों को पशु चिकित्सकों से प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है। सूत्र ने डीटीई को बताया कि, "उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि बीमार जानवर में कौन से लक्षण देखने चाहिए और कैसे पहचानना चाहिए।" एक अन्य सूत्र का कहना है कि स्पष्ट है कि परियोजना को संभालने वाली टीम सक्षम नहीं है और उसमें बदलाव की जरूरत है।
परियोजना से जुड़े एक अन्य सूत्र का कहना है कि राजनैतिक दबाव एक और कारण है जिसके कारण चीतों को परेशानी हो रही है और उन्हें लगातार बाड़े में रखा जा रहा है। सूत्र ने कहा कि, “प्रत्येक जंगली बिल्ली की मौत राजनेताओं की ओर से अधिकारियों पर अधिक दबाव लाती है, और मांग करती है कि और मौतें नहीं होनी चाहिए। ऐसी मांग अनुचित है।” सूत्र ने यह भी बताया कि जो चीते अपने नए वातावरण में अच्छा कर रहे हैं और तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें भी दबाव के चलते वापस लाया जाया जा रहा है।
सूत्र ने जोर देकर कहा कि, "परियोजना को बचाने के लिए अभी भी देर नहीं हुई है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि परियोजना सफल हो, सक्षम व्यक्तियों को पुनर्गठित और पुनर्नियुक्त करने की आवश्यकता है।
चीता एक्शन प्लान का जिक्र करते हुए एक अन्य स्रोत ने कहा कि प्रारंभिक योजना बहाली के पहले साल में करीब छह से आठ चीतों को रखने की थी। सूत्र के मुताबिक, “हमारे पास अभी भी 14 चीते हैं, जिनमें से आठ नामीबिया से उपहार में मिले हैं। इसलिए उनके केवल परिवहन पर खर्च हुआ है। लेकिन समय तेजी से निकला जा रहा है। अधिकारियों को तेजी से सुधार करने की जरूरत है।"