वनों की उत्पादकता में वृद्धि के एफडीसी के दावों के आकलन के तहत दिल्ली स्थित गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने उनके प्रदर्शन व उनके कामकाज में मौलिक समस्याओं का विश्लेषण किया। सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को वनों की उत्पादकता बढ़ाने या मौजूदा प्रणाली को मजबूत करने के लिए नए साधन बनाने पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि वनों पर आधिपत्य कायम करने के लिए निजी क्षेत्र एफडीसी के माध्यम से पौधारोपण को बढ़ाने के लिए लॉबिंग कर रहा है।
सीएसई ने देश के 11 एफडीसी का आकलन कर बताया कि एफडीसी काम तो कर रहा है लेकिन उनकी उत्पादकता बहुत कम है। वे भी कई अन्य सरकारी निगमों की तरह सफेद हाथी बनते जा रहे है। क्योंकि उन्होंने इसके लिए कोई मानक नहीं तैयार किया है। बस काम कर रहे हैं और इसके बाद वे बहुत अधिक लाभ नहीं कमा पा रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनका वार्षिक टर्नओवर इतना कम क्यों है। ऐसे देखा जाए तो किसान भी इतना ही जंगल उगा रहे हैं। सीएसई का आकलन (फरवरी, 2017) बताता है कि लकड़ी आधारित उद्योगों में लकड़ी की मांगों को पूरा करने के लिए एफडीसी बनाए गए, लेकिन पिछले 35 साल से विभिन्न राज्यों में12 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रों पर नियंत्रण रखने के बाद जांच से पता चलता है कि एफडीसी की उत्पादकता में न केवल गिरावट दर्ज की गई है बल्कि प्राकृतिक जंगलों के लिए भी ये खतरा बनते जा रहे हैं क्योंकि वे प्राकृतिक रूप से भारी मात्रा में मिक्स जंगलों को खत्म कर रहे हैं। यही नहीं, एफडीसी के वनों की उत्पादकता सामान्य खेती से भी कम दर्ज की गई है। जंगल कहीं खो नहीं गए बल्कि वास्तविकता यह है कि जंगल लगाए ही नहीं गए।
मध्य प्रदेश के सीधी जिले के पडरा गांव के पूर्व फॉरेस्ट गार्ड रहे चंद्रभान पांडे बताते हैं, “मैंने अपनी 32 साल की नौकरी में कभी नहीं देखा कि कहीं नए जंगल लगाए जा रहे हों। बस खानापूर्ति के लिए कभी-कभार स्कूली बच्चों को लाकर कुछ पौधे रोप दिए जाते हैं। वह कहते हैं, जंगल कैसे नहीं गायब हो जाएंगे? आखिर उनके रखवालों को (आदिवासी) सरकार ने जंगल से ही हकाल दिया, यह कहकर कि वे जंगल के रक्षक नहीं भक्षक हैं। जबकि हकीकत यह है कि आदिवासी सैकड़ों सालों से जंगलों के रक्षक बने हुए हैं। जंगल उनके डीएनए में है। वे जंगल को इस तरह से काटते हैं कि वह और बढ़ता है, जबकि हमारे जैसे लोग केवल नौकरी बचाने के लिए जंगल बचाने का कथित काम करते हैं, वनकर्मी जैसा बन पड़ा आरा-तिरछा काट कर एक बार में ही पेड़ को जड़ से नष्ट कर देते हैं।”
उद्योगों के लिए कच्चा माल मुहैया कराना एफडीसी का मुख्य लक्ष्य था। कुछ एफडीसी को तो ऐसे बनाया गया और कुछ को कहा गया है कि वह ठेकेदार का काम करे। क्योंकि वन विभाग की ओर से उन्हें कहा गया कि उनके यहां लोग इतने निपुण नहीं होते हैं कि वे जंगल काटें और फिर उसे उगाएं। चूंकि इस मामले में एफडीसी निपुण होता है। इसलिए उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और जम्मू व कश्मीर में एफडीसी के पास जमीन नहीं है, वे बतौर ठेकेदार के रूप में काम करते हैं।
सीएसई की रिपोर्ट में बताया गया है कि 11 एफडीसी में से आठ ऐसे हैं जो उद्योगों के लिए लकड़ी तैयार कर रहे हैं यानी कच्चे माल तैयार कर रहे हैं। कुछ सागौन लगा रहे हैं, कुछ यूकेलिप्टस लगा रहे हैं। ये वे एफडीसी हैं,जिनके पास लगभग पचास हजार हेक्टेयर जमीन है। सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि एफडीसी को जो जमीन दी गई थी, वह अच्छी खासी गुणवत्ता वाली थी। ये मिक्स जंगल काट रहे हैं। इसका कई राज्यों में स्थानीय जनता विरोध कर रही है। मध्य प्रदेश के वनवासियों और निगम के बीच टकराव भी पिछले कई सालों से चल रहा है। और यह लगातार बढ़ ही रहा है कम नहीं हो रहा है।
मध्य प्रदेश के पूर्व उप वन संरक्षक सुदेश वाघमारे बताते हैं, “निगम खराब वनों की जगह अच्छे वन लगाने के नाम पर प्राकृतिक वनों को काट देता है। लेकिन इसके बाद वह काफी समय तक उसकी ओर ध्यान नहीं देता। इससे स्थानीय पारिस्थितिकी बुरी तरह से प्रभावित होती है। इन्हीं वजहों से राज्य के एक दर्जन से अधिक गांवों में ग्रामीणों और निगम के बीच तनाव बना हुआ है।” विरोध करने वाले ग्रामीणों का तर्क है कि जब जंगल लगा ही हुआ है तो उसे आप काट क्यों रहे हैं और उसकी जगह सागौन लगा रहे हैं। सवाल उठता है कि जंगल काट कर आप क्यों पौधारोपण कर रहे हैं। अगर आपको पौधारोपण करना ही है तो बहुत सी ऐसी छरण भूमि (डिग्रेडेड लैंड)पड़ी है, उस पर पौधारोपण कीजिए।
देश की 145 लाख हेक्टेयर जमीन पर बाहरी पेड़ों का कब्जा है और सालाना 4,434 लाख प्रति घन मीटर लकड़ी का उत्पादन करता है। जबकि खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि एफडीसी भूमि की उत्पादकता मिश्रित और प्राकृतिक जंगलों से भी कम है। यहां तक कि जब कोई देश में लकड़ी की आपूर्ति की समग्र तस्वीर को देखता है, तो एफडीसी एक छोटे खिलाड़ी के रूप में दिखता है। सीएसई की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2011 और 2015 के बीच एफडीसी द्वारा लकड़ी का औसत वार्षिक उत्पादन 197 लाख प्रतिघन मीटर था, जो भारत में उत्पादित कुल लकड़ी का मात्र 5 प्रतिशत से भी कम है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि एफडीसी ने अपने कब्जे वाली पूरी जमीन को पौधारोपण के लिए परिवर्तित कर दी। जबकि वास्तविकता यह है कि उनके पास उपलब्ध जमीन का कुछ भाग पौधारोपण के लिए लायक ही नहीं है। इस पर एफडीसी का तर्क है कि जिस भूमि पर पौधारोपण किया गया है, उनकी उत्पादकता व कुल क्षेत्रफल की औसत उत्पादकता उनके नियंत्रण में है। हालांकि सीएसई का विश्लेषण उनके इस दावे को सच मानता है। लेकिन एक बार फिर से यह बात साफ हो चुकी है कि एफडीसी की पौधारोपण की उत्पादकता व्यक्तिगत किसानों की तुलना में काफी कम है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में एफडीसी की नीलगिरी की उत्पादकता 4.76-11.69 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है। लेकिन पड़ोसी राज्य के भद्रचलाम शहर में किसानों के स्वामित्व वाले बागानों में 32-96 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है।
उदाहरण के लिए यूकेलिप्टस से गुजरात के किसानों का औसत राजस्व 1.14 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है, जबकि राज्य के एफडीसी का राजस्व उसी प्रजाति के यूकेलिप्टस से 50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एफडीसी किस तरह से नए जंगल लगाता है।
एक तरफ एफडीसी ने स्वस्थ वनों को वाणिज्यिक बागानों में बदल दिया है और दूसरी तरफ वे जंगलों की छरण भूमि को उत्पादक बनाने के लिए अब तक कुछ नहीं किया है। इन जमीनों के लिए एफडीसी ने किसी प्रकार की योजना न तो अब तक तैयार की है और उसके व्यावहार से यह उम्मीद भी नहीं बंधती है कि भविष्य में इसके लिए वह कुछ करेगा भी। यहां तक कि वे अब ऐसे जंगलों को वन विभाग से लेंगे भी नहीं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश एफडीसी ने 2016 में एक नीति अपनाई, जिसके तहत वह पौधारोपण के लिए गैर-उत्पादक वन क्षेत्र नहीं लेगा।