मध्य प्रदेश: कितनी सही है वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदलने की कवायद

मध्य प्रदेश सरकार ने सतपुड़ा पेंच एवं कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से संबन्धित 19 और पन्ना टाइगर रिजर्व क्षेत्र के 7 वन ग्रामों को राजस्व ग्राम में हस्तांतरित करने की कार्रवाई शुरू की है
मध्य प्रदेश: कितनी सही है वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदलने की कवायद
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मध्य प्रदेश में एक बार फिर वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में परिवर्तित किए जाने की पहलकदमी शुरू हुई है। राज्य सरकार ने इस ऐतिहासिक मामले को अपनी सहूलियत के लिए किसी तरह निपटाने की इरादतन लेकिन भेदभाव पूर्ण और संकीर्ण पहल की है।

10 फरवरी 2022 को भू-आयुक्त कार्यालय ग्वालियर, मध्य प्रदेश ने एक आदेश जारी किया। इसमें वन विभाग के नवंबर 2021 और फरवरी 2022 के अर्द्ध-शासकीय पत्रों का हवाला देते हुए कहा गया है कि सतपुड़ा पेंच एवं कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से संबन्धित 19 और पन्ना टाइगर रिजर्व क्षेत्र से जुड़े 7 वन ग्रामों को राजस्व ग्राम घोषित किया जाएगा। 

यह कार्रवाई वन्य जीव संरक्षण कानून, 1972 के हवाले से हो रही है, जिसके तहत वन्य जीव अभ्यारण्य या राष्ट्रीय उद्यानों के लिए वहां बसे समुदायों को कहीं और पुनर्वासित किया जाना है।

हालांकि एडवोकेट अनिल गर्ग इसे अवैधानिक कार्रवाई बताते हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीय उद्यानों या अभ्यारण्यों की सीमा से बाहर निकाल कर जिन्हें आरक्षित और संरक्षित वनों में बसाया जा रहा है, उन जगहों की पहले जांच होनी चाहिए कि उनका इस्तेमाल करने की शक्तियां वन विभाग के पास हैं भी या नहीं? क्योंकि ये मूलतया राजस्व की जमीनें हैं, जिन्हें आरक्षित वन बनाने के लिए भारतीय वन कानून, 1927 के तहत धारा 4 की अधिसूचना जारी करके अपने नियंत्रण में ले लिया गया था। लेकिन उसके बाद कानून के मुताबिक धारा 5 से लेकर धारा 19 तक की कार्रवाई आज भी पूरी नहीं हुई हैं। ऐसे में इन जमीनों पर भी केवल राजस्व विभाग ही कोई निर्णय ले सकता है।

पूरे प्रदेश में कुल 925 वन ग्राम अभी मौजूद हैं, जिन्हें लेकर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। हालांकि प्रदेश सरकार का कहना है कि केवल उन्हीं वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदला जा रहा है, जो संरक्षित क्षेत्र हैं या जहां संरक्षित क्षेत्रों का विस्तार किया जाना है फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि पूरे प्रदेश के वन ग्रामों को लेकर ऐसी पहलकदमी क्यों नहीं की जा रही है?

वन ग्राम, जंगलों में सदियों बसे लोगों और समुदायों के साथ-साथ देश में ज़मीनों के प्रबंधन को लेकर हुए ऐतिहासिक अन्याय के सबूत हैं, जो औपनिवेशिक काल से आजादी के इतने सालों बाद भी वन प्रबंधन के क्षेत्र में हुई अवैधानिक कार्रवाई  की कहानी बयान करते हैं।

कमोवेश पूरे देश में वन प्रबंधन का इतिहास और काम-काज का तरीका एक जैसा है, लेकिन अविभाजित मध्य प्रदेश में स्वयं राज्य सरकार द्वारा कई -कई बार अपनी गलतियों को स्वीकार करने और उन्हें दुरुस्त किए जाने के लिखित आदेशों के बावजूद अभी तक इन ग्रामों का वजूद बना हुआ है।

गर्ग कहते हैं कि देश में आधिकारिक रूप से वन प्रबंधन और वन -विभाग से बहुत पहले से ही लोग जंगलों में निवासरत हैं। ये जंगल वन्य जीवों के भी नैसर्गिक पर्यावास रहे हैं और जैव विविधतता के तो खैर सबसे बड़े स्रोत रहे ही हैं। ऐसे में जिन्हें उपनिवेशकाल के दौरान आरक्षित या संरक्षित वनों के दायरे में शामिल कर लिया गया और जहां मूल रूप से आदिवासी समुदाय खेती करते आ रहे थे, उन्हें आजादी के बाद भी वन विभाग के नियंत्रण की कृषि भूमि नहीं माना गया, बल्कि उसे वन भूमि ही माना गया। यह एक ऐतिहासिक भूल थी जो अब तक चली आ रही है।

वन ग्रामों का अभी भी अस्तित्व में होना दो बातें स्पष्ट करता है- पहला, वन विभाग और राजस्व विभाग के बीच ज़मीनों का असंगत बंटवारा, जिसमें वन विभाग द्वारा जबरन राजस्व के हिस्से की जमीनों पर नियंत्रण हासिल करना है और दूसरा, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा गठन के शुरुआती वर्षों में ही इस भूल को समझ लेने के बाद भी इसे दुरुस्त न करना। 

मध्य प्रदेश का गठन 1956 में हुआ। महज पांच साल बाद 1961 में ही राज्य के प्रधान वन संरक्षक ने इस गलती को दुरुस्त करने के आदेश दिए थे। इस आदेश में वन ग्रामों के बनने और उनके साथ औपनिवेशकाल से लेकर अब तक चली आ रही उपेक्षाओं की जानकारियां मिलती हैं।

इस पत्र में बतलाया गया है कि पूरे प्रदेश में कुल चार प्रकार के वन ग्रामों के अस्तित्व मिलते हैं।

  • ऐसे गांव जो 1932 से पहले ही जंगलों में बसे हुए थे और इन जंगलों को ‘आरक्षित वन’ घोषित करते समय से ही इनके अंदर शामिल कर लिया गया। ऐसे गांवों में बसे मूलत: जोतदार या कृषक को ज़मीन का स्थायी पट्टा नहीं दिया गया।
  • ऐसे गांव जिन्हें राजस्व विभाग से वन विभाग को हस्तांतरित किया गया। 1932 के बाद और ज़्यादा आरक्षित वन बनाते समय आरक्षित वनों में शामिल कर लिया गया। इनमें ऐसे गांव वासियों जिन्हें हस्तांतरण से पहले ही स्थायी किया गया उन्हें उनकी कब्जे की भूमि के स्थायी पट्टे मिल चुके हैं। जो लोग बाद में आकर बसे उन्हें वन विभाग ने अस्थायी पट्टे दे दिए। 
  • ऐसे गांव जो वन विभाग को हस्तांतरित किए गए लेकिन उन गांवों में बसे लोगों को पहले स्थायी पट्टे दिये गए। बाद में जो लोग बसे उन्हें अस्थायी पट्टे दिये गए।
  • अंतिम श्रेणी ऐसे गांवों की है जो वन विभाग ने ही आरक्षित या संरक्षित वनों के भीतर वनो के प्रबंधन में आवश्यक श्रम बल के लिए श्रमिक बस्तियों के रूप में बसाया।

इनसे यह तो स्पष्ट है कि श्रेणी 1 से लेकर 3 तक जिन गांवों का उल्लेख हुआ है, वो मूलत: राजस्व ग्राम ही हैं और जिन्हें राजस्व क़ानूनों के अधीन ही होना चाहिए। श्रेणी 4 के गांव मूलत: वन विभाग द्वारा बसाये गए हैं जिनका प्रशासन वन ग्राम नियमों के तहत है। हालांकि वन विभाग ने कभी भी जोतदार को स्थायी या अस्थायी पट्टे नहीं दिये।  

इस अंतिम श्रेणी के रूप में ही वन ग्रामों को जाना जाता है। जिसे लेकर वन विभाग भी हमेशा से दावा किया करता है। इन मामलों के अध्येयता गर्ग कहते हैं –“वन विभाग के पास इस बात का कोई सबूत ही नहीं है कि ये गांव उनके द्वारा बसाये गए हैं। बल्कि इस दावे के विपरीत भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा 1880 से 1910 तक बनाई गयी वन क्षेत्रों की टोपो सीट में जंगलों के अंदर बसी मानवीय बस्तियों और लोगों के के आने-जाने के रास्तों आदि का उल्लेख किया गया है, जिन्हें 1878 के वन कानून के अनुसार आरक्षित वन अधिसूचित किया गया था। इसका प्रमाण अभी भी देश के पहले आधिकारिक वर्किंग प्लान में मिलता है, जो मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के लिए बना था। इन्हीं ग्रामों को ‘वन ग्राम’ कहा जाता है”।

इस पत्र में यह स्वीकार किया गया कि बहुत से राजस्व गांवों को वन विभाग ने वन प्रबंधन के काम में मजदूरों की जरूरत को ध्यान में रखते हुए, अपने नियंत्रण में ले लिया और मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता, 1959 के खिलाफ जाकर अपना नियंत्रण बनाए रखा।

इस पत्र में यह भी बतलाया गया कि अब तक किन परिस्थितियों में ‘वन ग्राम’ उसी अवस्था में रह गए हैं। इन परिस्थितियों में- या तो ऐसे ग्राम पूरी तरह मानवविहीन हो चुके हैं, या वो आरक्षित वनों के बीच में बसे हैं। या वन प्रबंधन के लिए जरूरी श्रमिकों की बस्ती के तौर पर उन्हें वन विभाग ने बसाये रखा या ऐसे गांव अभी भी आरक्षित वनों के इर्द-गिर्द हैं और जो सरकार के नियंत्रण के जंगल में अवैध कटाई कर रहे हैं।

इस पत्र में प्रधान वन संरक्षक ने माना कि ये सभी कारण और परिस्थितियां महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं लेकिन वन विभाग इन गांवों को अपने नियंत्रण में रखते हुए प्रशासित नहीं कर सकता, क्योंकि ये गांव राजस्व भूमि पर बसे हैं इसलिए केवल राजस्व विभाग के अंतर्गत ही प्रशासित हो सकते हैं। मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता वन विभाग को इन्हें प्रशासित करने की शक्तियाँ नहीं देती है।

जाहिर है कि 1961 में हुई इस पहल के कोई सार्थक नतीजे नहीं आए। जिसकी वजह साफ है कि वन विभाग किसी भी कीमत पर इन गांवों और इन जमीनों पर अपना नियंत्रण नहीं खोना चाहता था। 1977 में बने वन ग्राम नियम के तहत ऐसे गांवों में बसे सभी व्यक्तियों, समुदायों को उनकी खेती की जमीन के लिए 15 वर्षों की अवधि के लिए और अधिकतम 5 हेक्टेयर जमीन पर 15 वर्षों के लिए अस्थायी पट्टे वितरित किए गए।

इसके बाद 1980 में वन संरक्षण कानून के तहत ऐसे पट्टों की समीक्षा हुई और 31 दिसंबर 1976 तक जिन लोगों ने जमीन कब्जे में ली थी, उनका सर्वे किया गया और जिन्हें वन ग्राम नियमों के तहत भी पट्टे हासिल नहीं हुए थे उन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया गया और उन्हें उनकी खेती की जमीन पर पट्टे नहीं दिये गए। लेकिन 1977 में जिन्हें पट्टे मिल चुके थे, उनके पट्टों का नवीनीकरण कर दिया गया। इतिहास के इस दौर में जंगलों में बसे लोगों को पहली दफा ‘अतिक्रमणकारी’ कहा गया।

बहरहाल, 1980 में वन संरक्षण कानून लागू होने से पहले मध्य प्रदेश राज्य शासन ने राज्य के 660 वन ग्रामों को राजस्व ग्राम बनाए जाने के आदेश दिये। इस आदेश पर वन विभाग ने 520 वन ग्रामों का नियंत्रण और प्रबंधन राजस्व विभाग को सौंपा लेकिन इन 520 वनग्रामों में से 279 वन ग्रामों की वनभूमि ही राजपत्र में डी-नोटिफ़ाई की गयी।

1980 में वन संरक्षण कानून अमल में आने के बाद वन विभाग ने इस तरह के राजस्व ग्रामों को बिना किसी अधिसूचना जारी किए या किसी वैधानिक प्रक्रिया को अपनाए बगैर न ग्राम मान लिया गया, जो आज भी जारी है।

मध्य प्रदेश का वन विभाग इस स्थिति को स्वीकार करता है और अपनी वेब साइट पर प्रकाशित भी करता है कि “मध्‍य प्रदेश के 29 जिलों में 925 वन ग्राम हैं, जिनमें से 827 वन ग्रामों को राजस्‍व ग्रामों में परिवर्तित करने के लिये वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत स्‍वीकृति हेतु भारत सरकार पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को जनवरी 2002 से जनवरी 2004 तक की अवधि में जिलेवार प्रस्‍ताव प्रेषित किये गये थे। इन 827 में से 310 वन ग्रामों की सैद्धांतिक स्‍वीकृति भारत सरकार पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा अक्‍टूबर 2002 से जनवरी 2004 के मध्‍य जारी की गई थी। माननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा याचिका क्रमांक/337/1995 की आई.ए. क्रमांक-2 में दिनांक 13.11.2000 से निर्वनीकरण पर रोक लगाई गई एवं भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वन ग्रामों को राजस्‍व ग्रामों में परिवर्तित करने की स्‍वी‍कृति पर सर्वोच्‍च न्‍यायालय के आदेश दिनांक 24.02.04 से स्‍थगन जारी किया गया है। इस कारण शेष 517 वन ग्रामों के लिये भी स्‍वीकृति लम्बित है। वैसे भी वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के अन्‍तर्गत भारत सरकार द्वारा 310 वन ग्रामों को राजस्‍व ग्रामों में परिवर्तित किये जाने की सैद्धांतिक स्‍वीकृतियों में अधिरोपित शर्तों की पूर्ति किये जाने में व्‍यवहारिक कठिनाईयाँ हैं।

इसके अलावा 1980 से पहले और उसके बाद इस दिशा में अपनाई गयी प्रक्रियाओं को लेकर भी यह स्वीकार करता है कि -ये कार्रवाई लंबित हैं। मध्य प्रदेश वन विभाग की वेबसाईट पर लिखा है कि ‘वर्ष 1980 के पूर्व वन विभाग द्वारा राजस्‍व विभाग को 533 वन ग्राम हस्‍तांतरित किये गये। इनमें से केवल 6 वन ग्राम ही निर्वनीकृत हुये हैं। इन 6 वन ग्रामों का हस्‍तांतरण दिसम्‍बर 1975 में हुआ था और इनमें से 2 वन ग्राम जून 1978 में, 2 वनग्राम दिसम्‍बर 1979 में और 2 वन ग्राम सितम्‍बर 1986 मे निर्वनीकृत किये गये हैं।शेष 527 वन ग्रामों की वनभूमि को हस्‍तांतरण के दिनांक से निर्वनीकृत करने के लिए वन (संरक्षण) 1980 प्रभावशील होने या नहीं होने बावत अभिमत हेतु विधि विभाग में प्रचलित है’।

दिलचस्प है कि 2008 से देश में वन अधिकार मान्यता कानून लागू हो चुका है। इस कानून में भी धारा 3 (1) (झ) में वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदलने के प्रावधान दिये गए हैं। लेकिन इस कानून को लागू हुए भी 14 साल पूरे हो चुके हैं। इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा गया।

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