भारत के पश्चिमी घाट में रहने वाले सोलिगा जनजाति बंगाल टाइगर के प्रति श्रद्धा रखते हैं। इलिनोइस विश्वविद्यालय में कृषि और उपभोक्ता अर्थशास्त्र विभाग में एक प्राकृतिक संसाधन अर्थशास्त्री शैदी अताला कहते हैं कि भारत के बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर टाइगर रिजर्व के आस-पास रहने वाले सोलिगा जनजाति ने बाघों की आबादी को बढ़ाने में मदद की है।
अताला ने पहली बार सोलिगा जनजाति के बारे में एक लेख के माध्यम से जाना, जिसमें चर्चा की गई थी कि 2010 से 2014 तक बाघों की आबादी दोगुनी हो गई थी, यह तब हुआ था, जब जनजाति के लोगों ने अपनी पैतृक भूमि पर संपत्ति के अधिकार हासिल किया था।
अताला ने कहा कि लेख में कहा गया है कि स्थानीय जनजाति बाघ की पूजा करती है और इस तरह यह रिश्ता उन्हें सबसे अच्छा संरक्षणवादी बनाता है। हमने संरक्षण के साहित्य में ऐसा कुछ भी नहीं पाया जो इस तरह का दावा करता हो। आध्यात्मिक पारिस्थितिकी तंत्र सेवा मूल्यों के लिए जिम्मेदार हो, ऐसा कुछ भी नहीं था।
अताला और सह-शोधकर्ता एड्रियन लोप्स इस बात का पता लगाना चाहते थे कि जनजाति के आध्यात्मिक विश्वास कैसे उन्हें प्रभावी संरक्षण देने वाले खिदमतगार बना सकते हैं।
शोधकर्ताओं ने सोलिगा जनजाति का बंगाल टाइगर के प्रति आध्यात्मिक मूल्यांकन करने के लिए एक अध्ययन किया, उन्होंने दिखाया कि किस तरह जनजाति के मान्यताओं, उनके मूल्यों को स्थायी वन्यजीव संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए एक आर्थिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
अताला और लोप्स ने चार अलग-अलग प्रबंधन परिदृश्यों का अनुमान लगाने के लिए जैव-आर्थिक (बायोइकॉनोमिक) मॉडलिंग का इस्तेमाल किया। सोलिगा जनजाति के पास जमीन पर संपत्ति का अधिकार था या नहीं और बाघों के अवैध शिकार का नियम लागू किया गया था या नहीं। जैव-आर्थिक मॉडल में जैविक जानकारी जैसे किसी प्रजाति की स्थिति और विकास दर और संपत्ति के अधिकार और जुर्माना जैसी आर्थिक नीतियां शामिल हैं।
उनके परिणाम स्पष्ट थे, बाघों की रक्षा के लिए जनजातीय संपत्ति अधिकार अब तक की सबसे अच्छी नीति थी। अताला कहते हैं कि हमने देखा कि अगर आप संपत्ति के अधिकार और अवैध जुर्माने को हटाते हैं, तो प्रजाति 49 साल में विलुप्त हो जाएगी। अकेले अवैध शिकार पर जुर्माना लगाने से इनकी विलुप्ति नौ साल बाद होगी, लेकिन इससे इनका बचाव नहीं होता है।
उन्होंने सुझाव दिया कि बाघों को जनजाति द्वारा सम्मान दिया जाना तथा उनकी उपासना करने से यह तुरंत होने वाले अवैध शिकार की संभावना को कम करती है। अताला ने बताया कि आर्थिक मॉडल में आध्यात्मिक मूल्यों को शामिल करने की बहुत कम मिसाल है। वे कहते हैं कि आध्यात्मिकता का मूल्य लगाना विवादास्पद है। लेकिन इसे आर्थिक गणना से बाहर करने का मतलब है कि हम मानते हैं कि इसका मूल्य कुछ नहीं है।
जैसा कि जैव-आर्थिक मॉडल में जैविक जानकारी जैसे- किसी प्रजाति की स्थिति और विकास दर और संपत्ति के अधिकार और जुर्माना जैसी आर्थिक नीतियों के बारे में बताया गया है। वन्यजीव पारिस्थितिकवाद से उत्पन्न मूल्यों के लिए भी जिम्मेदार हो सकते हैं। लेकिन अब तक उन्हें वन्यजीव आध्यात्मिक मूल्यों में शामिल नहीं किया गया है।
शोधकर्ताओं ने कहा अगर हम आध्यात्मिक पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं की एक कीमत रख सकते हैं जिस तरह से हम पारिस्थितिकवाद के लिए करते हैं, तो हम उन सेवाओं को गणना के अधीन नहीं रख पाएंगे जब सरकारें नीतिगत निर्णय लेती हैं।
संरक्षण प्रयासों में अक्सर मानव और वन्यजीवों को अलग करके संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना होती है। ऐसी नीतियों में स्थानीय समुदायों को शामिल करना शामिल हो सकता है और ये नैतिक और मानवीय आधार पर यह विवादास्पद हैं। लेकिन अताला और लोपेज के शोध से यह भी पता चलता है कि स्थानीय जनजातियां वास्तव में सबसे अच्छी संरक्षणवादी होती हैं।
भारतीय वन अधिकार अधिनियम स्थानीय जनजातियों को उनकी पैतृक भूमि पर संपत्ति के अधिकार प्रदान करता है। हालांकि जनजातियों को भूमि पर अपने दावे के लिए दस्तावेज देने की आवश्यकता होती है और कुछ मामलों में सबूत की कमी के कारण उनको निकाल दिया जाता है।
शोध के निष्कर्ष में कहा गया है कि यदि आप प्रजातियों के अस्तित्व के बारे में परवाह करते हैं, तो आपको जनजातियों के संपत्ति अधिकारों को सुरक्षित करना चाहिए क्योंकि वे बाघों की उपासना करते हैं, आपके पास एक दूसरे को बचाने का यह सबसे अच्छा उपकरण हो सकता है।