झारखंडः लोकसभा चुनाव में आदिवासियों के कौन से मुद्दे, कितना असरदार?

अपनी जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी इस बात से नाराज हैं कि लोकसभा चुनाव में उनके मुद्दे मुखर नहीं हो पा रहे हैं
झारखंड के आदिवासी इलाकों में पीने का पानी एक बड़ा मुद्दा है। फोटो: आनंद दत्त
झारखंड के आदिवासी इलाकों में पीने का पानी एक बड़ा मुद्दा है। फोटो: आनंद दत्त
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बीते 29 अप्रैल को झारखंड के पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन ने नामांकन दाखिल किया। वो गिरिडीह जिले के गांडेय विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ रही हैं। नामांकन के बाद अपने एक भाषण में हेमंत के भाई और राज्य सरकार में मंत्री बसंत सोरेन ने कहा कि यहां के जल, जंगल, जमीन के बारे में सोचने का काम किसने किया, आज इसके आकलन का वक्त आ गया है।

इससे पहले बीते 21 अप्रैल को इंडिया गठबंधन की विशाल उलगुलान न्याय महारैली रांची में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मलिल्कार्जुन खरगे ने लोगों से कहा कि अगर हमारी सरकार आती है तो हम सबसे पहले वनोपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करेंगे, पेसा कानून लागू करेंगे और आदिवासी विरोधी प्रावधानों को वापस लेंगे।  

जाहिर है, नेताओं के मन में झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में आदिवासी और उनसे जुड़े मुद्दे अहम हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या आदिवासी भी अपने इन मुद्दों को ध्यान में रखकर ही वोट करेंगे।

रांची से लगभग 62 किलोमीटर दूर खूंटी जिले के एक गांव मरचा पहुंचे. लगभग 39 डिग्री तापमान में गांव के दसियों लोग एक छोटे से तालाब से मछली निकालने में लगे थे।

मछली निकालते तुरतन तोपने कहते हैं कि बड़े नेता तो चुनावी भाषणों में वनोपज, वनाधिकार कानून, पेसा एक्ट की बात तो कर रहे हैं। लेकिन वो प्रत्याशी जो हमारे यहां से खड़े हैं, वो बिल्कुल भी इसपर बात नहीं कर रहे हैं।

तुरतन आगे कहते हैं, हमारे लोकसभा में आदिवासी इलाकों में सरकारी लैंड बैंक बनाने के लिए पूर्व में हुए ड्रोन सर्वे के खिलाफ बड़ा आंदोलन हुआ। केंद्र सरकार की लाई इस नीति से हमारे गांव के जमीन ही हमारे पास से निकल जाती।

फिलहाल उसपर तो रोक लग गई है, लेकिन नई सरकार आने पर यही व्यवस्था फिर से बहाल होने का डर है। जब हम इस लैंड बैंक के खिलाफ आवाज उठा रहे थे, तब स्थानीय कांग्रेस प्रत्याशी हमारे पक्ष में खड़े नहीं हुए। ऐसे में हमारे पास विकल्प क्या बचता है, तुरतन की इसबात से आसपास खड़े सभी दस लोग सहमत दिखे।

बता दें, केंद्र सरकार की भू-स्वामित्व योजना के तहत देशभर के आदिवासी इलाकों में वैसी खाली पड़ी जमीन का ड्रोन सर्वे कराया जा रहा था, जिसका ग्रामीण खेती के लिए इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। आरोप है कि सरकार उसे लैंड बैंक का नाम देकर अपने हिस्से करती। हालांकि उसका उपयोग कैसे होता, इसको लेकर कोई स्पष्ट योजना नहीं थी।

खूंटी से सटा दूसरा लोकसभा क्षेत्र है चाईबासा। शीतल देवगम चाईबासा लोअर कोर्ट में वकील हैं। वो ‘हो’ जनजाति से आती हैं। वो कहती हैं कि प्रत्याशी ये दावा कर रहे हैं कि वो जल, जंगल, जमीन की रक्षा करेंगे। जबकि पूरे झारखंड में ये एक बड़ा मुद्दा है कि आदिवासियों के जमीन गैर-आदिवासियों को बेची जा रही है। इस काम में कुछ हद तक खुद आदिवासी भी शामिल हैं, लेकिन कोई प्रत्याशी इसके खिलाफ खुलकर नहीं बोलता, क्योंकि इन्हें चुनाव लड़ने के लिए फंड देने वाले अधिकतर गैर-आदिवासी हैं।  

खूंटी और चाईबासा दोनों ही एसटी सुरक्षित सीटें हैं। खूंटी ‘मुंडा’ आदिवासी बहुल तो चाईबासा ‘हो’ आदिवासी बहुल इलाके हैं।

आखिर जंगल और जमीन के लिए कब तक लड़ते रहेंगे?

झारखंड के दूसरे एसटी सुरक्षित सीट दुमका और राजमहल लोकसभा क्षेत्र में सीधे आदिवासियों से जुड़े मुद्दे चर्चा में नहीं हैं। यहां पशु कारोबार का मुद्दा जरूर चर्चा में है। राजमहल लोकसभा के कई इलाकों में साप्ताहिक पशु बाजार लगता है। अब नियम ये कर दिया गया है कि किसी भी खरीद या बिक्री करनेवालों को सरकारी कागजात दिखाने होंगे।

ये नियम पशु तस्करी पर रोक लगाने के लिए रघुवर सरकार में लाया गया था. स्थानीय पशुपालक किसान इस नियम में ढील देने की मांग कर रहे हैं।

 पाकुड़ जिले के पेशे से शिक्षक निर्मल मुर्मू कहते हैं, यहां संताल परगना टेनेंसी (एसपीटी) एक्ट का सही से पालन न होना चर्चा में जरूर है। ये एक्ट आदिवासियों की जमीन को बचाने के लिए लाया गया था, लेकिन ये बचा नहीं पा रहा। आदिवासी लड़कियों के साथ हिन्दू और मुस्लिम वर्ग के लोग शादी कर रहे हैं और उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। 

वो आगे कहते हैं, दुनियाभर के लोगों की लड़ाई उनकी भौतिक सुख के लिए हो रही है, आदिवासी आज तक अपनी जमीन बचाने के लिए ही लड़ रहा है, चाहे वह झारखंड का आदिवासी हो या फिर दुनिया के किसी भी कोने का आदिवासी।

इसके अलावा छोटे स्तर पर आदिवासियों के डिलिस्टिंग का मुद्दा भी कहीं – कहीं चुनावी चर्चा के केंद्र में है। भाजपा के गढ़े इस मुद्दे पर खुद भाजपा भी खुलकर बात नहीं कर रही है। हालांकि डिलिस्टिंग के खिलाफ शुरूआत से मुखर रहनेवाले जरूर अभी भी इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं।

भाजपा लगातार ये बात कहती आ रही है कि जो आदिवासी धर्म बदल चुके हैं, उनको आदिवासी की लिस्ट से हटाया जाना चाहिए और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण सहित अन्य लाभ से वंचित किया जाना चाहिए। 

इस सब के बीच जो बात अधिक महत्वपूर्ण निकल कर आती है कि आदिवासी अपने मुद्दों को लेकर मुखर हैं। वो उसपर बात कर रहे हैं, प्रत्याशी और उनके नेता भी इस मामले को उठा रहे हैं, लेकिन इन सबके बीच सभी आदिवासी बहुल इलाके पानी के भीषण संकट से गुजर रहे हैं।

पूरा झारखंड फिलहाल 40 से 48 डिग्री की गर्मी झेल रहा है। पहाड़ पर बसे अधिकतर गांवों के लोग नंगे पैर एक से दो किलोमीटर तक की यात्रा केवल पानी लाने के लिए कर रहे हैं। वो भी गड्ढों का पानी।

सभी एक स्वर में ये मान और मांग रहे हैं कि सबसे पहले पीने और खेती के लिए पानी का इंतजाम सभी प्रत्याशियों, पार्टियों और सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए।

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