आदिवासी बच्चों के लिए चल रही जीवनशाला को संबोधित करती मेधा पाटकर। फोटो: एनबीए
आदिवासी बच्चों के लिए चल रही जीवनशाला को संबोधित करती मेधा पाटकर। फोटो: एनबीए

आदिवासी जीवन के पाठ से शुरू होती है “जीवनशाला”: मेधा

नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर के स्कूल प्रोजेक्ट "जीवनशाला" पर लग रहे आरोपों के चलते डाउन टू अर्थ ने उनसे बात की
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बच्चों को बुनियादी शिक्षा अगर स्थानीय भाषा और उनकी संस्कृति के अनुरूप मिले तो उनका सहज सामाजिक व मानसिक विकास हो सकता है। शिक्षा के एकरूपीय ढांचे के उलट नर्मदा घाटी के आदिवासियों ने तय किया कि अपने बच्चों को पहला स्कूल अपने संसाधनों व अपनी सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक जरूरतों के हिसाब से देंगे। इस तरह तैयार हुई जीवनशाला जिसमें बुनियादी पढ़ाई करने के बाद बच्चे सहज व सरल रूप से मुख्यधारा के आम स्कूलों से आगे की पढ़ाई के लिए जुड़ जाते हैं।

आदिवासी बच्चों के सतत सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक विकास के लिए आदिवासियों ने महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में क्रमश: छह और एक जीवनशाला स्कूलों की स्थापना की। स्थानीय आदिवासियों के संसाधनों व श्रम से इन स्कूलों ने अपनी अलग पहचान बनाई है। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर जीवनशाला स्कूलों को उम्मीद के स्तंभ के रूप में देखती हैं। स्थानीयता के पाठ्यक्रम का फलसफा और उसमें जीवशाला स्कूलों की सफलता को लेकर मेधा पाटकर से डाउन टू अर्थ ने खास बातचीत की। 

सवाल- जीवनशाला पाठशाला की बुनियाद कैसे रखी गई?

जवाब: 1985 में जब नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध बनने का काम शुरू हुआ तो हमारी जांच में पता चला कि डूब क्षेत्र यानी महाराष्ट, मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों के सैकड़ों गांवों में कहीं भी पाठशाला नहीं है। हालांकि, जानकारी यह मिली कि पाठशाला तो कई हैं, लेकिन वे सभी कागजों पर ही बनी हैं और वहीं संचालित होती हैं। ग्रामीण आदिवासियों ने बताया कि हमने कई बार सरकार को स्कूल खोलने की अर्जी दी लेकिन कहीं उनकी सुनवाई नहीं हुई। बांध के कारण डूब में आने से आदिवासियों द्वारा चलाई जा रही महाराष्ट के धुलिया जिले के चिमलखेड़ी गांव में चल रही जीवनशाला डूब ही गई। हालांकि उस पाठशाला में पढ़ने वाले छात्रों ने इतना विरोध किया कि पुलिस को उन बच्चों को जबरन वहां से उठाकर ऊपर पहाड़ी टीले पर ले जाकर रखा गया, जब तक पानी नहीं उतरा। जीवनशाला महाराष्ट के आदिवासी गांवों में खोली गई थी। ऐसे में नदी के उस पार मध्य प्रदेश के आदिवासी गांवों के बच्चे भी इन स्कूलों में आने लगे। इसे देखकर मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने 2004 में अपने यहां भी एक जीवनशाला स्कूल खोला।

सवाल: स्कूलों का संचालन स्थानीय लोगों व संसाधनों के हाथ में होता है तो उन पर एकरूपता बनाए रखने का शासकीय नियामकीय दबाव नहीं पड़ता है। शिक्षा में स्थानीयता की अहमियत के संदर्भ में ‘जीवनशाला’ को आप कैसे देखती हैं।

जवाब: जीवनशाला ऐसा स्कूल है जिसे स्थानीय लोगों द्वारा, स्थानीय लोगों के लिए, स्थानीय संसाधनों और स्थानीय ज्ञान और संस्कृति से जोड़कर चलाया जा रहा है। जहां सरकारी स्कूल आदिवासी भाषाओं को तरजीह नहीं देते, वहीं यहां भीली, भिलाली और बारेली भाषा में पढ़ाया जाता है। स्थानीय भाषाओं में मिली बुनियादी शिक्षा बच्चों को उनकी संस्कृति व परंपराओं से जोड़ती है। यहां सिर्फ स्कूली पाठ्यक्रम को ही प्रमुखता नहीं दी जाती बल्कि आसपास के वातावरण, हाथ के काम से हासिल अनुभव, पीढ़ियों से चले आ रहे पारंपरिक ज्ञान से भी सीखा जाता है। हाथ के काम को हेय दृष्टि से नहीं, बल्कि जीवन के लिए जरूरी व सम्मान की दृष्टि से देखने की समझदारी विकसित की जाती है। इसका असर यह है कि बच्चे आधुनिक शिक्षा पाकर भी पारंपरिक खेती-किसानी के काम-धंधों में हाथ बंटाते हैं। वे समाज में भी अपनी भूमिका तलाशते हैं। उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित करने पर जोर दिया जाता है कि वे अपना संस्कृति व विरासत को सहेज सकें। यह स्कूल एक स्तंभ है जो शिक्षा के माध्यम से एक उम्मीद जगा रहा है।

सवाल-इस तरह की पाठशाला को लेकर ग्रामीणों की भूमिका क्या रही? स्कूल का पाठ्यक्रम कैसा हो क्या वे इसे लेकर भी सचेत थे?

जवाब: पूरी तरह से प्रजातांत्रिक तरीके से ग्रामीणों ने आपस में बातचीत कर फैसला किया कि अब हमारे बच्चों के लिए हर हाल में स्कूल खोला जाएगा। यह स्कूल ग्रामीणों ने अपने ही संसाधनों के दम पर खोलने का फैसला किया ताकि उनके ऊपर किसी का दबाव नहीं हो। सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में भील संस्कृति की कोई जगह नहीं है। उनकी भीली और भिलाली भाषा को पाठ्यक्रमों में कोई स्थान नहीं मिला है। न ही उनमें बच्चों की दादी-नानी की कहानियां हैं और न ही उनकी बोली-भाषा में मुहावरे और कहावतें ही हैं। इसलिए बच्चे सीधे स्कूली पाठ्यक्रम से जुड़ नहीं पाते। यहां शिक्षा के मानदंड ऐसे हैं जिसमें बच्चों को आदिवासी इतिहास, गांव व कृषि संस्कृति की समझ होती है। आधुनिक शिक्षा के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि वे समाज में और परिवार के काम-धंधों में भी अपनी भूमिका निभाएं। उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित हों जो उन्हें उनकी समृद्ध संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान से जोड़े और जंगल, जैव विविधता और पर्यावरण की विरासत को सहेज सके।

सवाल: -जीवनशाला स्कूल के बच्चे क्या आम स्कूलों के पाठ्यक्रम से तालमेल बिठा पाते हैं?

जवाब: यह तय किया गया कि हमें समाज के साथ मिलना-जुलना है और उसी में जाना है। हमारा लक्ष्य समाज का हिस्सा बनना है। सार्वजनिक अभ्यासक्रम को हम स्कूल का अतिरिक्त पाठ्यक्रम कहते हैं। इसमें छात्रों को अपने गांव-घर के रीती-रिवाजों, संस्कृति और जंगलों से परिचित कराया जाता है। सदियों से चली आ रही इनकी चित्रकारी और जंगल के संसाधनों से बनाए जाने वाले तमाम आवश्यक बर्तन बनाने की कला को सिखाया जाता है। नर्मदा घाटी में चलाए जाने वाले सभी स्कूल प्रतिवर्ष फरवरी में एक बाल मेले का आयोजन करते हैं। इसमें लगभग सभी छात्र-छात्राएं चार दिन तक एक ही गांव में लगे बाल मेले में रहते हैं और विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में भाग लेते हैं। इसमें तीरकमटा से लेकर सभी प्रकार के ग्रामीण खेल होते हैं। इसके चलते इन बच्चों में अब तक कम से कम 15 से 20 बच्चे ऐसे निकले हैं जो राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं तक पहुंचे हैं। जीवनशाला में अनुशासित रूप से चार साल की पढ़ाई पूरी कर बच्चे जब शहरी स्कूलों में जाते हैं तो वहां के शिक्षकों को बहुत पसंद आते हैं। वहां के शिक्षक कई बार फोन कर बताते हैं कि आप लोगों की शाला का बच्चा बहुत ही होनहार है। एक तरह से ये बच्चे सामाजिक सरोकार की अनुभूति लेकर बड़े होते हैं।

सवाल-आम तौर पर अच्छे इरादे के बावजूद सहकारिता पर आधारित स्कूल लंबे समय तक अपना प्रदर्शन बरकरार नहीं रख पाते हैं। सरकारी संरक्षण के  बिना इतने लंबे समय से जीवनशाला स्कूलों का संचालन किस तरह हो पा रहा है।

जवाब: सभी आदिवासी ग्रामीणों ने एक जुबान में कहा कि पाठशाला के लिए हम अपने अनाज का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा देंगे। इसके अलावा स्कूल परिसर के निर्माण का काम भी ग्रामीणों ने ही किया और इसमें बच्चे भी शामिल हुए। हमारे अपने साथियों ने अपनी-अपनी हैसियत से स्कूल के लिए वर्दी, किताब-कॉपी, फर्नीचर व अन्य बुनियादी चीजें दीं। ऐसा करते-करते जीवनशाला बनी। अच्छी बात यह है कि इन स्कूलों के लंबे समय तक लगातार चलने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इन स्कूलों में पढ़कर आगे निकले छात्रों ने ही बाद में बड़े होकर इन स्कूलों में बतौर शिक्षक लगातार काम किया। कार्यकर्ता, शिक्षक, पालक और ग्रामीण सब मिलकर इस पाठशाला की प्रक्रिया को अब तक आगे बढ़ाते रहे हैं। इसे आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य भी है। हम समाज से अपील करते रहे हैं कि आप किसी और कार्य में अपना पैसा बहाने की जगह इस पहाड़ी क्षेत्र की पहली शिक्षित पीढ़ी तैयार करने में और जो आज बांध या कथित विकास के नाम पर विस्थापित होते जा रहे हैं, उनके भविष्य को संवारने में जरूर सहयोग करें।

सवाल: हाल ही में जीवनशाला को लेकर आप पर और आपके संगठन पर आरोप लगाए गए हैं ?

जवाब: सभी आरोप पूरी तरह से बेबनियाद और आधारहीन हैं। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं कह सकती हूं। 

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