हमें मेनका गांधी का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने पर्यावरण दिवस के ठीक पहले केरल में दर्दनाक तरीके से मारी गयी एक गर्भवती हथिनी का मुद्दा उठाया और उसके लिए देश भर से सहानुभूति अर्जित की। हालांकि इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई, लेकिन अगर गहराई से देखें तो इसके पर्यावरण व वन्य जीवों को लेकर भी बहुत गंभीर अर्थ हैं।
मेनका गांधी जानवरों के लिए लंबे समय से काम करती रही हैं। जरूर उनके निजी मत के अनुसार वाकई पर्यावरण व वन्य जीवों के प्रति देश का ध्यान आकर्षित करने के लिए ही यह मुद्दा उठाया हो। पार्टी के फायदे के लिए भी अगर इस मुद्दे का इस्तेमाल हो जाए तो भी कोई बुराई तो नहीं है?
वो जरूर जानती हैं कि देश में वन्य जीवों को लेकर ‘ज्यों ज्यों दवा हुई, मर्ज बढ़ता गया’ वाली कहावत सिद्ध हुई है। उन्हें यह भली-भांति पता है कि तमाम विकास योजनाओं का सबसे बुरा प्रभाव देश के वन्य जीवों पर पड़ा है। उन्होंने एक सांसद और पशु प्रेमी होने के नाते जरूर उन खनन परियोजनाओं के क्षेत्रों में दौरे किए ही होंगे, जहां धरती का पेट चीर कर खनिज निकालने के लिए डायनामाइट से विस्फोट किए जाते हैं। बड़ी बड़ी शिलाओं को तोड़ा जाता है।
इसके कारण हाथियों के लिए जंगल में सदियों से बने रास्ते खत्म हो जाते हैं। हाथी अपने रास्ते भूल जाते हैं। वो नए रास्ते तलाशने लगते हैं। उनके पसंद के पेड़, उनका पर्यावास उनसे छूटजाता है। उन्हें भूख सताने लगने लगती है। फिर वो इंसानी बस्तियों की तरफ आते हैं और लोगों के घरों पर धावा बोलने लगते हैं। प्राय: गरीब आदिवासियों की झोपड़ियों को और उनमें रहने वाले लोगों को गैर इरादतन नुकसान पहुंचाते हैं।
उनका जमा राशन खा जाते हैं, कोई रास्ते में आया तो उसका काम तमाम कर जाते हैं। एक साल में औसतन 50 इतनी मौतें हाथियों की वजह से उत्तरी छत्तीसगढ़ के सरगुजा के महज एक जिले में होती हैं। और ये बात न केवल आदिवासी समुदाय बल्कि तमाम सच्चे पर्यावरण प्रेमी भी समझते हैं कि हाथियों का इसमें कोई कसूर नहीं है। वो इरादतन लोगों को मारने नहीं आते। इंसान और वन्य जीवों का रिश्ता हानि -लाभ का रिश्ता नहीं है। इनके बीच यह परस्पर रिश्ता महज वाणिज्यिक करार नहीं है।
वन्य जीवों के लिए देश की तमाम केंद्रीय व राज्य सरकारें कितना गंभीर हैं इसका अंदाजा भी उन्हें होगा ही। वन विभाग ने भी अब तक वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए क्या -क्या किया है इससे भी वो बखूबी परिचित होंगीं।
यहाँ दो-तीन ऐसे तथ्य सामने रखे जा रहे हैं, जिनके बारे में उन्हें जरूर पता होगा और और अगली बार जब वह ये मुद्दा उठाएगीं तो इन तथ्यों को भी सामने रखेंगीं।
पहला मुद्दा वन विभाग से जुड़ा है। एडवोकेट अनिल गर्ग के हवाले से यहां मेनका गांधी और उनके समर्थक सेलिब्रेटीज़ को एक तथ्य से अवगत कराना जरूरी है कि देश में एक समय तक खुद वन विभाग जंगली जानवरों के शिकार के लिए निविदाएं आमंत्रित करता रहा है और शिकारियों को लाइसेंस देता रहा है। यहां मध्य प्रदेश राज्य के उदाहरण से समझें तो मध्य प्रदेश आखेट अधिनियम, 1935 के आधार पर राजपत्रों में शेर, चीता, बाघ, तेंदुआ, हिरण, चीतल, जंगली सूअर, सांभर, अन्य महत्वपूर्ण वन्य जीवों को को पकड़ने के लिए बजाफ़्ता लाइसेंस बांटे गए। सन 1972 तक ऐसी ही अधिसूचनाएं प्रकाशित होने के प्रमाण हैं।
यह है मध्य प्रदेश के गैजेट की प्रति
इसी के समानांतर मध्य प्रदेश राष्ट्रीय पार्क अधिनयम 1955 को अमल में लाते हुए वन्य प्राणियों के विलुप्त होने का दुष्प्रचार करके कान्हा, बांधवगढ़, माधव पार्क बनाए गए। इन पार्कों के बहाने वन्य जीवों के संरक्षण का ढिंढोरा पीटा गया।
मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के वन विभागों ने वर्ष 2005-06 तक जो वर्किंग प्लान बनाए हैं उनमें जैव विविधतता और वन्य प्राणियों को अलग अलग कारणों से वनों को नुकसान पहुंचाए जाने के उल्लेख किए हैं। इन आंकलनों के आधार पर ही वनों की सुरक्षा व संरक्षण को लेकर योजनाएं भी बनाई हैं। जैव विविधतता के महत्व को जब पूरी दुनिया समझ चुकी थी तब भी इन दो राज्यों ने अपने जैव-विविधतता से समृद्ध जंगलों को ‘शूद्र वन’ माना और व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते हुए केवल इमरती लकड़ी जैसे सागौन, साज व बांस जैसे मोनोकल्चर प्रजातियों को बढ़ावा दिया।
अब दिलचस्प पहलू यह है कि इसी वन विभाग को वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत एकमात्र संरक्षणकर्ता बना दिया गया। यानी जो वन विभाग एक तरफ शिकार के लाइसेन्स देने की अधिसूचना 19 मई 1972 को भी जारी कर रहा था और जिसके माध्यम से वन्य प्राणियों के शिकार के लिए शिकारियों को लाइसेन्स दे रहा था, वही वन विभाग अब इन वन्य जीवों का संरक्षणकर्ता बना दिया गया। गौरतलब है कि मध्य प्रदेश के राजपत्र में 11 जनवरी 1971 को वन्य प्राणियों के शिकार पर प्रतिबंध की अधिसूचना प्रकाशित होती है। (अधिसूचनाओं की तालिका संलग्न है, जिसे यहाँ चस्पा किया जा सकता है)
ग्रीन पीस ने एक हसदेव अरण्य के समृद्ध वन क्षेत्र में हाथी-मानव संघर्ष पर ‘एलीफेंट इन द रूम’ नाम से 2014 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस रिपोर्ट में तफसील से हाथियों की स्थिति पर चर्चा हुई है। इसमें 4 जून 2006 को कोरबा वनमंडल के कार्यालय से एक ऐसे पत्र का हवाला भी सामने आता है जो एक ‘नर हाथी’ को मारने संबंधी है। इस पत्र में दर्ज है कि एक अकेला नर हाथी वन परिक्षेत्र में विचरण कर रहा है। इसने कुछ ही दिनों में 9 व्यक्तियों को मर डाला है। इसलिए इसको मारना ज़रूरी है। (इस आशय का पत्र उपलब्ध है)
दूसरा दिलचस्प तथ्य भी छत्तीसगढ़ से लेते हैं। इससे हमारे देश की तमाम जिम्मेदार संस्थाओं की वन्य जीवों के प्रति रवैये का पता चलता है। यह भी पता चलता है कि वन्य जीवों की नियति का फैसला किस तरह से कॉर्पोरेट के हाथों में चला गया है। इस एक तथ्य से हम यह भी जान पाएंगे कि किसी राज्य की विधानसभा, केंद्र का एक बड़ा मंत्रालय उद्योगपतियों की एक संस्था के सामने कैसे बौने साबित होते हैं।
तो सन 2005 में हाथियों के लिए एक ‘हाथी- अभ्यारण्य’बनाने का प्रस्ताव छत्तीसगढ़ विधानसभा में फरवरी-मार्च, 2005 के दौरान विधानसभा सत्र में सर्वसम्मति से पारित होता है।
इसे मंजूरी और आर्थिक अनुदान के लिए वन एवम पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार को भेजा जाता है। सन 2007 में भारत सरकार का वन एवं पर्यावरण मंत्रालय इस लेमरू हाथी-अभयारण्य बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी देता है।
सन 2008 में, सीआईआई (कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री) छत्तीसगढ़ के वन विभाग को एक पत्र लिखकर इस लेमरू हाथी अभयारण्य को निरस्त करने की सलाह देता है क्योंकि अगर यह हाथी अभ्यारण्य बन गया तो 7 कोल ब्लॉक (कोयला भंडार) प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होंगे यानी कोयले का खनन नहीं किया जा सकेगा। (तीन पत्र संलग्न हैं जो ग्रीन पीस की ‘द एलिफ़ेंट इन द रूम’ से साभार लिए गए हैं)
सीआईआई के पत्र और छत्तीसगढ़ सरकार के आदेश की प्रति
इस पत्र के बाद तत्कालीन छतीसगढ़ सरकार ‘लेमरू हाथी अभ्यारण्य’ बनाने की योजना को खारिज कर देता है। और इस प्रकार सीआईआई, राज्य की विधानसभा की सर्वसम्मति और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के ऊपर अपनी हैसियत साबित कर देता है।
राहत की खबर है कि अब पुन: यह परियोजना शुरू हुई है। हालांकि उन कोल ब्लॉक को इससे बाहर कर दिया गया है जिससे हाथियों को संरक्षण देने की दिशा में शायद इसका वो लाभ न मिले जो सोचा गया था।
हमें लगता है इतिहास में हुईं इन घटनाओं को ध्यान में रखते हुए और देश के मौजूदा वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर को अब से वन्य जीवों के प्रति ‘भारतीय संस्कृति’ के मुताबिक नीतियां बनाने की ज़रूरत है। उन्हें तत्काल प्रभाव से पर्यावरण प्रभाव आंकलन की प्रक्रियाओं को बेअसर किए जाने के प्रयासों को रोकना चाहिए और आर्थिक सुधार -2.0 के लिए ‘भारतीय संस्कृति’ को ही आधार बनाकर जीवों के प्रति अतिरिक्त दया भाव दिखाते हुए जंगलों को स्थानीय समुदायों को सौंप देना चाहिए जिसके लिए वन अधिकार कानून 2006 मौजूद है। उन्हें तो पता ही है कि भारतवर्ष में ‘अरण्य जीवन जिसे वानप्रस्थ कहा जाता है, चार पुरुषार्थों में से एक है।
(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य हैं)