क्या वाकई भारत में बढ़ रहा है जंगलों का दायरा?

अब तक वन क्षेत्र में जितना इजाफा हुआ है, वो राष्ट्रीय और वैश्विक लक्ष्य से कम है
क्या वाकई भारत में बढ़ रहा है जंगलों का दायरा?
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भारत में अब कुल वन क्षेत्र का फैलाव 8,09,537 वर्ग किलोमीटर में हो गया है, जो भारत के कुल भूभाग का 24.62 प्रतिशत है।  भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की ओर से 13 जनवरी को प्रकाशित "इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021" रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया। रिपोर्ट जारी करते हुए केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंदर यादव ने दावा किया कि सरकार ने न केवल वन क्षेत्र बढ़ाया है बल्कि वन में गुणवत्ता की समृद्धि भी हुई है।

हालांकि रिपोर्ट को गहनता से देखने पर पता चलता है कि इसमें जश्न मनाने जैसा बहुत कुछ नहीं है।

पहली बात तो यह कि वन क्षेत्र में जितना इजाफा हुआ है, वो राष्ट्रीय और वैश्विक लक्ष्य से कम है। राष्ट्रीय वन नीति 1988 के मुताबिक, देश के भौगोलिक क्षेत्र के 33 प्रतिशत हिस्से में वन और पेड़ होने चाहिए।

यूएन के सतत विकास लक्ष्य 14 (जमीन पर जीवन) के साथ-साथ केंद्र सरकार की नीति आयोग की तरफ से साल 2018 के दिसंबर में जारी "75 साल में नए भारत की रणनीति" जिसे साल 2030 तक पूरा करना है, में भी यही संकेतक के तौर पर दर्ज किया गया है।

सच तो यह है कि वन और पेड़ आच्छादन को लेकर साल 1987 (इस साल पहली बार भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी हुई थी) से साल 2021 तक के ट्रेंड बताते हैं कि पिछले 34 सालों में भौगोलिक क्षेत्रफल में वन का आच्छादन 2 प्रतिशत ही बढ़ा है।

साल 2011-2012 में वन क्षेत्र की वृद्धि अफसोसजनक तौर पर धीमी महज 0.81 प्रतिशत रही है। साल 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, केवल 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ही भौगोलिक क्षेत्र के 33 प्रतिशत हिस्से में वन का फैलाव है और इनमें से पांच जिलों में भौगोलिक क्षेत्रफल के 75 प्रतिशत हिस्से में वन है।

चंडीगढ़ वन और वन्यजीव विभाग में डिप्टी कंजर्वेटर (वन) अब्दुल कयूम कहते हैं, "देश की आजादी के वक्त आबादी तीस लाख थी और भौगोलिक क्षेत्र के सिर्फ 19 प्रतिशत हिस्से में पेड़ और वन थे। साल 2021 तक आबादी में 100 करोड़ का इजाफा हुआ लेकिन वन क्षेत्र महज 24 प्रतिशत हिस्से में फैला है। 33 प्रतिशत के लक्ष्य को पूरा करने में काफी समय लगेगा"।

दूसरी बात यह कि रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुत सारे राज्यों में कृषि वानिकी और वृक्षारोपण के चलते वन क्षेत्र में बढ़ोतरी हो रही है और ये कृषि, मानवीय और विकास संबंधी गतिविधियों के चलते वन को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए किया जा रहा है।

कयूम उदाहरण के साथ बताते हैं कि पूर्वोत्तर में हाइवे और अरुणाचल प्रदेश के इटानगर में एयरपोर्ट बनाने के लिए वनों की कटाई की गई। इस नुकसान की भरपाई के लिए अन्यत्र वृक्षारोपण किया जा रहा है।

चूंकि वृक्षारोपण के तहत लगाए गए पौधे अभी काफी छोटे हैं इसलिए मूल्यांकन रिपोर्ट में इसे शामिल नहीं किया गया। हालांकि, दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की शोधकर्ता कांची कोहली कहती हैं, "विकास के बदले में जो वृक्षारोपण हो रहा है वो अधिकांशत: कमाई के नजरिये से हो रहा है इसलिए इसे वन का प्रतिस्थापन नहीं माना जाना चाहिए।"

वह कहती हैं, “वन केवल पेड़ नहीं होते हैं। ये उससे आगे की चीज है। वन एक पारिस्थितिकी तंत्र होता है जो पानी, खाद्य सुरक्षा और वन्य जीव-जंतुओं को ठिकाना मुहैया कराता है। कृषि वानिकी, पेड़ की खेती और वनों के बीच की खाई को कम कर सकते हैं खासकर पारिस्थितिकी को बरकरार रख सकते हैं। लेकिन, इससे मौजूदा वनों को बदलने और उसे नुकसान पहुंचाने को वैधता नहीं दी जा सकती है"।"

विशेषज्ञों ने रिपोर्ट के आंकड़ों की सत्यता पर भी चिंता जाहिर की है और कहा है कि एफएसआई की वन की परिभाषा भ्रामक है। साल 2001 से एफएसआई उन सभी भूखंडों को वन क्षेत्र मानता है, जिनका क्षेत्रफल एक हेक्टेयर में फैला हो और उसके 10 प्रतिशत हिस्से में पेड़ों का आच्छादन हो, भले ही भूमि के इस्तेमाल की प्रकृति, जमीन का मालिकाना और पेड़ों की प्रजातियां कुछ भी हों।

नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (बेंगलुरु) के कंजर्वेशन साइंटिस्ट एमडी मधुसूदन कहते हैं, "इस परिभाषा के कारण एफएसआई असम, बंगाल और तमिलनाडु के निजी चाय बागानों, लक्षद्वीप के नारियल बागानों और गुजरात में लगाये गये विलायती बबूल तक को वन मानता है।"

डाउन टू अर्थ के साथ बातचीत में मधुसूदन सवाल उठाते हैं, "क्या इनके साथ वनों जैसा व्यवहार भी हो रहा है? क्या इन पर वन कानून लागू होता है?,"।

साल 2001 से भारतीय वन सर्वेक्षण अपने विश्लेषण के लिए सैटेलाइट आंकड़े की व्याख्या में बेहतर तकनीक (विजुअल की जगह डिजिटल) और उच्च स्तर (1:25,000 की जगह 1:50,000) का इस्तेमाल कर रहा है। साल 2001 की रिपोर्ट में कई 'नये' वन आच्छादित भूखंडों (और वन क्षेत्रों में कई खाली जगह) की शिनाख्त की गई थी।

साल 2001 की रिपोर्ट में कहा गया, "लेकिन सैटेलाइट आंकड़े ये नहीं बताते कि जमीन का मालिक कौन है और पेड़ की हरियाली के नीचे की खाली जमीन का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का सत्यापन बेहद कठिन काम है, जिससे पूरा होने में सालों लग सकते हैं।" 

घने वन कम

साल 2011 से 2021 के बीच आई एफएसआई की रपटों के विश्लेषण से पता चलता है कि वन आच्छादन में सिर्फ 3.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। देश के 22 राज्यों में वन क्षेत्र बढ़ा है लेकिन 12 राज्यों में वन क्षेत्र में कमी आई है, जिनमें पूर्वोत्तर के सात राज्य शामिल हैं। नागालैंड के केवल 29 प्रतिशत हिस्से में वन क्षेत्र है और यहां वन क्षेत्र में 8 प्रतिशत की गिरावट आई है।

रिपोर्ट बताती है कि भारत में वन क्षेत्र में जो इजाफा हुआ है, वो खुले वन में बढ़ोतरी के चलते हुआ है। गौरतलब हो कि एफएसआई ने वनों को तीन श्रेणियों में बांटा है- खुला वन (पेड़ों का आच्छादन 10-40%), मध्यम घना वन (40-70 प्रतिशत) और बेहद घना वन ( 70 प्रतिशत से अधिक)।

हाल के दशकों में खुले वन में 6.7 प्रतिशत का इजाफा हुआ है, मगर दूसरी ओर मध्यम घने वन में 4.3 प्रतिशत की गिरावट भी आई है।

रिपोर्ट जारी करते हुए यादव ने बताया, "साल 2021 में खुले वन और इसके बाद घने वन के क्षेत्र में बढ़ोतरी देखी गई है। शीर्ष तीन राज्य जहां सबसे ज्यादा वन क्षेत्र में बढ़ोतरी हुई है, वे आंध्रप्रदेश (647 वर्ग किमी), तेलंगाना (632 वर्ग किमी) और ओडिशा (537 वर्ग किमी) हैं," । साल 2011-2021 के बीच मध्यम घने वन क्षेत्र में 13,846 वर्ग किमी की कमी आई है।

देश के 10 राज्यों के मध्यम घने वन क्षेत्र में इजाफा हुआ है, जबकि 24 राज्यों में इसमें गिरावट आई है। कोहली कहते हैं, "वनों के पारिस्थितिक, सामाजिक और आर्थिक महत्व को समझने का पैमाना केवल घनापन नहीं है।

खुले वन में पेड़ों का आच्छादन भले ही कम हो, लेकिन वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। अतः हमें एक तरह के वन के मुकाबले दूसरे तरह के वन क्षेत्र में कमी के हिसाब से होने वाले फायदे और नुकसान का खाका तैयार करने की जरूरत है।"   

जलवायु हॉटस्पॉट

साल 2021 की रिपोर्ट में पहली बार ऐसे वनों का मूल्यांकन किया गया है, जो 'जलवायु हॉटस्पॉट' के रूप में उभर सकते हैं या वे जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो सकते हैं। रिपोर्ट की प्रस्तावना में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के महानिदेशक चंद्रप्रकाश गोयल लिखते हैं, "ये राज्य सरकारों को जमीन और विकास नीतियों में जलवायु परिवर्तन को शामिल के लिए आधार मुहैया कराता है।"

रिपोर्ट में लगाया गया भविष्य का अनुमान एफएसआई और बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस (बीआरटीएस), पिलानी के गोवा कैम्पस के संयुक्त अध्ययन पर आधारित है। रिपोर्ट कहती है कि साल 2030 तक करीब 3,15,667 वर्ग किमी या कुल वन व पेड़ आच्छादित क्षेत्र का 45 प्रतिशत हिस्सा जलवायु हॉटस्पॉट के रूप में उभर सकता है।

साल 2050 तक 4,48,367 वर्ग किलोमीटर या 64 प्रतिशत वन क्षेत्र जलवायु परिवर्तन का गहरा प्रभाव (तापमान में 1.5- 2.1 डिग्री सेल्सियस का इजाफा) झेल सकता है। इन हॉटस्पॉट में बारिश के पैटर्न में भी बदलाव दिखेगा।

छत्तीसगढ़ के वन क्षेत्र का 84 प्रतिशत हिस्सा जलवायु हॉटस्पॉट बन सकता है, वहीं मध्यप्रदेश का 65 प्रतिशत वन क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की चपेट में आ सकता है। लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में तापमान में अधिकतम बढ़ोतरी और बारिश में संभवतः गिरावट आ सकती है। पूर्वोत्तर में बारिश में इजाफा हो सकती है।  

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