मूल निवासियों के भविष्य को खतरे में डाल रही हैं औद्योगिक परियोजनाएं: रिपोर्ट

रिपोर्ट में मूल निवासियों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के कन्वेंशन सी169 और मूल निवासियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की घोषणा की अनदेखी का आरोप लगाया गया है
फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स
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एक बड़े वैज्ञानिक अध्ययन में कहा गया है कि प्राकृतिक संसाधनों को बेतरतीब तरीके से निकालने और औद्योगिक विकास परियोजनाएं उस क्षेत्र के मूल निवासियों के मौलिक अधिकारों को खतरे में डालती हैं। इनकी वजह से इन समुदायों के जीवन, अधिकारों और भूमि पर बुरा असर देखा जा रहा है।

यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ ऑटोनोमा डी बार्सिलोना (आईसीटीए-यूएबी) के पर्यावरण विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान की अगुवाई में दुनिया भर के नौ अन्य विश्वविद्यालयों के सहयोग से किया गया है।  

वैश्विक स्तर पर आज तक किए गए सबसे बड़े विश्लेषण के द्वारा यह मूल निवासियों के अधिकारों के उल्लंघन को उजागर किया गया है। यह अध्ययन पिछले एक दशक में पर्यावरण न्याय एटलस (ईजेएटलस) द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित है। जिसने दुनिया भर में कुल 3,081 सामाजिक-पर्यावरणीय संघर्षों की पहचान और मानचित्रण किया है।

दुनिया की आबादी में केवल 6.2 फीसदी लोग मूल निवासी हैं और ये दुनिया की लगभग एक चौथाई भूमि का प्रबंधन करते हैं। वे प्राकृतिक संसाधनों के निकाले जाने और औद्योगिक विकास परियोजनाओं पर दर्ज सभी पर्यावरणीय संघर्षों के कम से कम 34 फीसदी सीधे प्रभावित होते हैं।

अध्ययन में ऐसी गतिविधियों से प्रभावित 740 से अधिक विभिन्न स्वदेशी समूहों को शामिल किया गया है, जो दुनिया भर में लगभग 5,000 समूहों में से कम से कम 15 फीसदी  हैं।

क्वेशुआ, मापुचे, गोंड, आयमारा, नहुआ, इजाव, मुंडा, किछवा, गुआरानी और करेन समुदाय दस मूल निवासियों के समूह हैं जो ईजेएटलस डेटासेट में सबसे अधिक बार दिखाई देते हैं।

हालांकि, शोधकर्ताओं का मानना है कि प्रभावित मूल निवासियों के समूहों की वास्तविक संख्या बहुत अधिक होने के आसार हैं, क्योंकि अभी भी आंकड़ों में भारी कमी  हैं। विशेष रूप से मध्य एशिया, रूस और प्रशांत क्षेत्र में, जहां आंकड़े अधिक सीमित है। 

10 में से आठ पर्यावरणीय संघर्ष केवल चार क्षेत्रों से जुड़े हैं, जिसमें खनन क्षेत्र सबसे अधिक बार मूल निवासियों को 24.7 फीसदी तक प्रभावित करता है। जीवाश्म ईंधन क्षेत्र 20.8 फीसदी, कृषि, वानिकी, मछली पकड़ने और पशुधन क्षेत्र 17.5 फीसदी और हाइड्रोलिक बांधों का निर्माण और दोहन 15.2 फीसदी तक मूल निवासियों को प्रभावित करता है।

एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, जमीन संबंधी नुकसान के 56 फीसदी मामले, आजीविका के नुकसान के 52 फीसदी और भूमि बेदखली के 50 फीसदी मामले विश्व स्तर पर सबसे अधिक संघर्षपूर्ण विकास परियोजनाओं में होने की जानकारी है।

यह गौर करने वाली बात है कि कृषि, वानिकी, मत्स्य पालन और पशुधन क्षेत्र को पसंद आने वाली परियोजनाओं पर विवाद विशेष रूप से दर्ज किए गए प्रभावों की सबसे अधिक दर है। अन्य क्षेत्रों और वैश्विक औसत की तुलना में, वनों की कटाई के 74 फीसदी मामले, भूमि बेदखली के 74 फीसदी, आजीविका के नुकसान के 69 फीसदी और जैव विविधता के नुकसान के 69 फीसदी की तुलना में इस क्षेत्र में इन घटनाओं के बार-बार सामने आने की जानकारी है।

आईसीटीए-यूएबी वैज्ञानिक और सह-अध्ययनकर्ता अल्वारो फर्नांडीज-लालामाजारेस कहते हैं, कृषि व्यवसाय और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को निकाले जाने वाले क्षेत्रों द्वारा भूमि हड़पना मूल निवासियों के लिए एक बड़ा खतरा बना हुआ है। वे कहते हैं कि, यही कारण है कि दुनिया भर में मूल समुदाय दशकों से अपने अधिकारों को मान्यता देने और उनका सम्मान करने के लिए लामबंद हो रहे हैं।

शोध दल ने अपने निष्कर्ष में कहा कि औद्योगिकरण के चलते मूल निवासियों के अधिकारों का भारी हनन हुआ है। ये मूल निवासियों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के कन्वेंशन सी169 और मूल निवासियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की घोषणा की अनदेखी करते हैं।

सरकारों द्वारा उन उपायों को लागू करने पर जोर देते हैं जो स्वदेशी अधिकारों को और बढ़ावा देते हैं और मौजूदा सम्मेलनों के वास्तविक अनुपालन और उनके भूमि अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करके पर्यावरणीय न्याय का समर्थन करते हैं।

सरकारों को स्वदेशी अधिकारों के उल्लंघन के प्रति एक शून्य-सहिष्णु नीति लागू करनी चाहिए और शामिल कंपनियों द्वारा संयुक्त राष्ट्र घोषणा की जिम्मेदारियों के अनुपालन पर सशर्त व्यापार समझौते की तलाश करनी चाहिए। यह अध्ययन साइंस एडवांसेज पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

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