जैसे ही आप दिल्ली के कीर्ति नगर टिम्बर मार्केट में घुसते हैं, इमारती लकड़ियों की खुशबू आपके नथुनों में भर जाती है। घर को सुन्दर बनाने की चाहत रखने वाले ग्राहकों के लिए यहां शाहबलूत (ओक), सागौन, शीशम, मरांडी और देवदार तक के विकल्प मौजूद हैं। न्यू टिम्बर ट्रेड मार्केटिंग एसोसिएशन के सचिव विक्रम वर्मा ने बताया, “हमारे पास मलेशिया और इंडोनेशिया की मरांडी, न्यूजीलैंड के पाइन, कनाडा के मेपल, दक्षिण अमेरिकी और अफ्रीकी देशों के सागौन और अन्य लकड़ी जैसे ओक, ऐश, स्प्रूस है।”
इमारती लकड़ी की मांग के साथ भारत का आयात हर बीते साल के मुकाबले बढ़ता ही जा रहा है। इंग्लैंड के फॉरेस्ट सेक्टर के अंतरराष्ट्रीय एक्सपर्ट ह्यूग स्पीचली के मुताबिक, “2020 में भारत लकड़ी उत्पादों का 20वां सबसे बड़ा आयातक था। 2020 में शीर्ष 10 (मूल्य के हिसाब से) आयातक मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन, न्यूजीलैंड, उरुग्वे, जर्मनी, ब्राजील, इक्वाडोर, म्यांमार व घाना थे।” प्रमोद कांत और रमन नौटियाल द्वारा संकलित रिपोर्ट “इंडिया टिम्बर सप्लाई एंड डिमांड 2010-2030” के अनुसार, 2020 में कुल राउंडवुड मांग लगभग 57 मिलियन क्यूबिक मीटर होने का अनुमान था।” रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि लकड़ी के फर्नीचर और आंतरिक सज्जा का प्रचलन तेजी से हो रहा है।
फर्नीचर उद्योग के 2024 तक 13 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ने की उम्मीद है। कांत एक सेवानिवृत्त आईएफएस हैं। वह चेन्नै स्थित एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन में प्रोफेसर और इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रीन इकोनॉमी के निदेशक भी हैं। उनका कहना है, “भारत में लकड़ी की वार्षिक मांग लगभग 57 मिलियन क्यूबिक मीटर राउंडवुड है। उत्पादन लगभग 47 मिलियन क्यूबिक मीटर ही है। लगभग 10 मिलियन क्यूबिक मीटर लकड़ी की मांग को आयात से पूरा किया जाता है।”
संरक्षण के लिए आयात?
भारत सरकार ने 1996 में देश में लकड़ी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए आयात को आसान बनाना शुरू किया था। इसके लिए ओपन जनरल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत लकड़ी को वर्गीकृत किया था। यह काम देश में प्राकृतिक वनों से प्राप्त लकड़ी के इस्तेमाल को कम करने के लिए किया गया था। कांत कहते हैं, “भारत का वन क्षेत्र लगातार बढ़ रहा है। राज्य के स्वामित्व वाले जंगलों से लकड़ी का उत्पादन पिछले दो दशकों में लगभग 2 मिलियन क्यूबिक मीटर राउंडवुड पर अटका हुआ है, क्योंकि सरकारी नीतियों और अदालती आदेशों से कटाई पर प्रतिबंध हैं।”
सेवानिवृत्त आईएफएस आरके सपरा लिखते हैं कि हालांकि भारत के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है, लेकिन घरेलू स्रोतों से लकड़ी की आपूर्ति कम हो गई है। सपरा लिखते हैं, “द पजल ऑफ फॉरेस्ट प्रॉडक्टिविटी (2017) रिपोर्ट के अनुसार, जंगलों से लकड़ी की वार्षिक आमद 1970 के दशक के 10 मिलियन क्यूबिक मीटर से घटकर 1990 तक 4 मिलियन क्यूबिक मीटर हो गई। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले (गोदावर्मन केस, 1996) के कारण, जंगलों से लकड़ी के उत्पादन में और गिरावट आई जो वर्तमान में लगभग 3 मिलियन क्यूबिक मीटर है। वह लिखते हैं, “लकड़ी व लकड़ी के उत्पादों के भारतीय निर्यात और आयात में वृद्धि हुई (देखें, बड़े खिलाड़ी,)। ”
लकड़ी का अवैध आयात
घरेलू लकड़ी बढ़ती मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं है। नतीजतन, भारत कई देशों से लकड़ी का आयात करके इस अंतर को पूरा करता है। हालांकि, इनमें से कई देश जो भारत को लकड़ी की आपूर्ति करते हैं, अवैध रूप से लकड़ी की कटाई, ट्रांसपोर्ट और बिक्री करते हैं। 2016 में द इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन के अनुमानों के अनुसार, अवैध रूप से लकड़ी आयात में भारत, चीन और वियतनाम से ठीक पीछे था। स्पीचली कहते हैं, “जिन देशों में अवैध रूप से लकड़ी उत्पादन होने का खतरा है, उनमें मलेशिया, ब्राजील, इक्वाडोर और म्यांमार शामिल हैं। इंडोनेशिया और घाना ने लकड़ी के अवैध व्यापार को रोकने के लिए कई प्रणालियां विकसित की हैं। अवैध तरीके से भारत में लकड़ी भेजने वाले देशों में पपुआ न्यू गिनी, गैबॉन, सूरीनाम, यूक्रेन, सोलोमन द्वीप और रूस शामिल हैं (देखें, अनुचित तरीका)।”
मैरीगोल्ड नॉर्मन और केर्स्टिन कैनबी की रिपोर्ट “इंडियाज वुडन फर्नीचर एंड वुडन हैंडीक्राफ्ट्स: रिस्क ऑफ ट्रेड इन इलीगली हार्वेस्टेड वुड” में कहा गया है कि 2019 में भारत में आयातित लकड़ी का लगभग 42 प्रतिशत अवैध तरीके से लाई गई है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है,“भारत ने 2016 और 2019 के बीच लॉग्स, सॉनवुड और विनियर की 250 से अधिक प्रजातियों का आयात किया। इनमें से 171 प्रजातियों को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने अपने रेड लिस्ट में (खतरे में, लुप्तप्राय या गंभीर रूप से लुप्तप्राय) शामिल किया है।
भारत कई देशों से लकड़ी का आयात करता है। जबकि तैयार माल ज्यादातर यूके और यूएसए जैसे देशों को निर्यात किया जाता है, जिन्होंने अपने बाजारों से अवैध लकड़ी के खात्मे के लिए आयात नियंत्रण को लागू किया है। स्पीचली ने आगे कहा, “लकड़ी आयात करने वाले कुछ देशों ने ऐसे नियम पारित किए हैं जो अवैध लकड़ी के व्यापार का अपराधीकरण करते हैं। अवैध लकड़ी के व्यापार से बचने के लिए आयातकों को उचित परिश्रम प्रणाली लागू करने की आवश्यकता होती है। इनमें ईयू, यूके, यूएसए, ऑस्ट्रेलिया, कोरिया और जापान शामिल हैं। अवैध रूप से लकड़ी आयात में आगे रहे कई देश अब लकड़ी की अवैध कटाई को समाप्त करने के लिए नियम विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं।
देश में अवैध रूप से लकड़ी का व्यापार क्यों बढ़ रहा है, इस सवाल का जवाब देते हुए सपरा कहते हैं, “अवैध लकड़ी न केवल सर्टिफाइड लकड़ी से सस्ती है, बल्कि फार्म वुड से भी प्रतिस्पर्धा करती है। इसलिए इसके आयात को प्राथमिकता के आधार पर नियंत्रित किया जा सकता है।” देश में अवैध रूप से आयातित लकड़ी के गंभीर नतीजों के बारे में सपरा का कहना है कि यह वर्तमान में बढ़ती मांग को पूरा कर सकता है, लेकिन यह यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों को तैयार माल निर्यात करने के समय समस्या पैदा कर सकता है, क्योंकि ये देश भारत से तैयार लकड़ी उत्पाद के सबसे बड़े आयातकों में से है। स्पीचली कहते हैं, “इसमें कोई शक नहीं है कि लकड़ी उत्पादों की मांग अवैध कटाई में संलग्न होने के लिए ऑपरेटरों पर दबाव डालती है। जब तक भारतीय आयातक वैधता प्रमाण की मांग नहीं करते हैं, तब तक यह जोखिम रहेगा और आयात की जाने वाली लकड़ी की कुछ मात्रा अवैध बनी रहेगी।”
एनवायरमेंटल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी ऑफ लन्दन के फॉरेस्ट कैंपेन लीडर फेथ डोहर्टी कहती हैं, “भारत से मांग होती है, इसलिए आपूर्ति बढ़ रही है।” लकड़ी के एंट्री पॉइंट के बारे में डोहर्टी कहती हैं, “भारत में लकड़ी पहुंचने के दो तरीके हैं। म्यांमार-भारत सीमा के जरिए तस्करी और दूसरा यांगून बंदरगाह के माध्यम से जो एकमात्र कानूनी तरीका है। उनके मुताबिक, अवैध कटाई और आयात के मुद्दे को हल करने के लिए भारत जो पहली चीज कर सकता है, वह है भारत में लॉग आयात प्रतिबंध शुरू करके म्यांमार के लॉग निर्यात प्रतिबंध को बदलना। वह आगे सुझाव देती हैं कि एक प्रमुख आयातक के रूप में भारत कानूनी तौर पर स्थायी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उत्पादक देशों के साथ चर्चा कर सकता है। डोहर्टी ने कहा, “भारत के लिए यह समझदारी भरा कदम होगा। इससे उन सुधारों में मदद मिलेगी जो उत्पादक देश और भारत दोनों के लिए आवश्यक हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका ने लेसी एक्ट बनाया, यूरोपीय संघ ने यूरोपीयन टिम्बर ट्रेड रेगुलेशन एक्ट, ऑस्ट्रेलिया ने इलीगल लॉगिंग प्रोहिबिशन एक्ट बनाया। जापान ने भी ऐसा कानून बनाया है। ये सभी कानून पारदर्शिता और तीसरा पक्ष सत्यापन सुनिश्चित करने के लिए हैं, ताकि वन क्षेत्र पर कम प्रभाव के साथ आपूर्ति सुनिश्चित की जाए।”
वैज्ञानिक प्रबंधन की जरूरत
भारत में पेड़ों की स्थायी कटाई की अनुमति है, लेकिन कानून जंगल की पूरी क्षमता का दोहन करने की अनुमति नहीं देता। नवीनतम वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, देश में 2021 ग्रोइंग स्टॉक 6,167.50 मिलियन क्यूबिक मीटर है, जिसमें से 4,388.15 मिलियन क्यूबिक मीटर सरकारी जंगलों में है और केवल 1,779.35 मिलियन क्यूबिक मीटर टीओएफ (जंगल के बाहर पेड़) हैं (देखें, दिख रहा है बदलाव,)। टीओएफ 45 मिलियन क्यूबिक मीटर लकड़ी उपलब्ध कराते हैं जबकि सरकारी जंगलों से बमुश्किल 2 मिलियन क्यूबिक मीटर लकड़ी मिलता है। कांत कहते हैं, “प्रतिबंधित वनों (राष्ट्रीय उद्यानों और वन्य जीवन अभयारण्यों) को छोड़कर जंगल में स्थायी कटाई की अनुमति है। कुल ग्रोइंग स्टॉक का कम से कम एक प्रतिशत (42 मिलियन क्यूबिक मीटर) स्थायी रूप से कटाई के लिए उपलब्ध होना चाहिए।
भले हम मान लें कि इस बढ़ते स्टॉक का आधा पारिस्थितिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील जंगलों में स्थित है, तब भी 21 मिलियन क्यूबिक मीटर इस काम के लिए उपलब्ध होना चाहिए। लेकिन इन जंगलों से सालाना केवल 2 मिलियन क्यूबिक मीटर लकड़ी ही काटी जाती है।” उन्हें लगता है कि अगर भारत हर साल पुराने, मरने वाले पेड़ों को हटाना शुरू कर दे तो घरेलू कटाई में वृद्धि होगी, जिससे लकड़ी के आयात में कमी आएगी। सिल्वीकल्चरल ऑपरेशन (प्लान्टेशन, देखभाल आदि के काम) के लिए आवश्यक तय दूरी मानकों के हिसाब से वृक्षारोपण भी नहीं किया जा रहा है। यदि यह सब काम वैज्ञानिक रूप से किया जाए तो हमारे जंगल पहले की तुलना में अधिक स्वस्थ होंगे और उनके आग की चपेट में आने की संभावना भी कम होगी।” सपरा ने डाउन टू अर्थ को बताया, “देश का वन क्षेत्र मुख्य रूप से टीओएफ में वृद्धि के कारण बढ़ रहा है। टीओएफ से लकड़ी का उत्पादन मुख्य रूप से शोर्ट रोटेशन प्रजातियों (10 वर्ष से कम) का होता है। इसलिए यह मध्यम (20 वर्ष) और लॉन्ग रोटेशन (40 वर्ष) लकड़ी की मांग को पूरा नहीं कर सकता है। इसलिए, लकड़ी का आयात किया जाता है।”
कांत का कहना है कि वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन भी लकड़ी में आत्मनिर्भरता हासिल करने का एक तरीका साबित हो सकता है। साथ ही देश भर के स्थानीय ग्रामीणों को रोजगार भी प्रदान कर सकता है। वह बताते हैं, “अगर वानिकी का वैज्ञानिक तरीके से अभ्यास किया जाता है, तो अधिक रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे और हमें कम आयात की आवश्यकता होगी। जब लकड़ी का आयात किया जाता है तो केवल कुछ बंदरगाहों के करीब रहने वाले लोगों को ही इसका लाभ होता है। लेकिन जब जंगलों की कटाई वैज्ञानिक रूप से की जाती है तो हर जगह गरीब लोगों को उनके पड़ोस में रोजगार और व्यापार के अवसर मिलते हैं।”