उत्तराखंड के जंगलों की आग रोकने के लिए कितनी गंभीर है सरकार

2016 में लगी भीषण आग के बाद उत्तराखंड वन विभाग ने विश्व बैंक से 600 करोड़ रुपए की मांग की थी
हल्की बारिश के बाद भी उत्तराखंड के जंगलों में आग नहीं बुझी है। फोटो: त्रिलोचन भट्ट
हल्की बारिश के बाद भी उत्तराखंड के जंगलों में आग नहीं बुझी है। फोटो: त्रिलोचन भट्ट
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उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में बुधवार (7 अप्रैल 2021) को हुई हल्की-फुल्की बारिश के बावजूद जंगलों में आग लगने का सिलसिला थमा नहीं है। पिछले 48 घंटे के दौरान जंगलों में आग लगने की 288 नयी घटनाएं हुई हैं। यानी हर घंटे औसतन 6 जगहों पर आग लग रही है। इस दौरान 342 हेक्टेअर जंगल जल गए हैं।

इस बीच उत्तराखंड हाई कोर्ट ने जंगलों में आग की घटनाओं पर स्वतः संज्ञान लेकर राज्य के वन प्रमुख राजीव भर्तृहरि को स्वयं कोर्ट में हाजिर होने का आदेश दिया था। बुधवार को हाई कोर्ट ने वन प्रमुख से अब तक आग बुझाने के लिए किये गये प्रयासों की जानकारी मांगी और दो हफ्ते के भीतर हर हाल में आग बुझाने के लिए कहा। साथ ही, कृत्रिम बारिश की संभावनाएं तलाशने को कहा। 

सवाल यह उठता है कि क्या वन विभाग के लिए हाई कोर्ट के आदेश का पालन करना संभव होगा? वह भी तब जबकि आग बुझाने के लिए विभाग के पास बजट की कोई व्यवस्था नहीं है और कर्मचारियों की संख्या स्वीकृत पदों की तुलना में सिर्फ 40 प्रतिशत ही है। राज्य में 1 फाॅरेस्ट गार्ड के पास 80 हेक्टेअर जंगल बचाने की जिम्मेदारी है। हाई कोर्ट ने वन विभाग को खाली पद भरने और एनजीटी द्वारा वर्ष 2017 में जारी की गई गाइडलाइंस को तुरंत लागू करने का भी आदेश दिया, जो कि आज तक लागू नहीं हो पाई हैं।

एनजीटी ने अपने एक आदेश में यह भी स्पष्ट किया था कि जंगलों में आग बुझाने की जिम्मेदारी पूरी तरह से राज्य सरकारों की है। लेकिन, 72 प्रतिशत वन संपदा वाले उत्तराखंड राज्य में हालात ये हैं कि वन विभाग ने इस बार 110 करोड़ रुपए का फायर प्लान राज्य सरकार को भेजा था, लेकिन करीब 31 करोड़ रुपए ही स्वीकृत हुए हैं। अब तक मिला कुछ भी नहीं है।

जंगलों की आग बुझाने के लिए राज्य सरकार ने 20 करोड़ रुपए देने की मंजूरी की है और कैंपा की ओर से 10 करोड़ रुपए देने की मंजूरी दी गई है। केंद्र सरकार की ओर से 1 करोड़ रुपए मिलने की उम्मीद जताई गई है। वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार पिछले कई सालों से विभाग 100 करोड़ रुपए से ज्यादा का फायर प्लान तैयार करता है, लेकिन विभिन्न मदों में उसे 30 करोड़ रुपए के आसपास ही मिल पाते हैं। पिछले वर्ष में राज्य सरकार ने 19 करोड़ रुपए और केंद्र सरकार ने 2 करोड़ रुपए दिये थे। 10 करोड़ रुपए कैंपा से मिले थे।

पद्श्री पुरस्कार से सम्मानित पर्यावरणविद् कल्याण सिंह रावत ‘मैती’ कहते हैं कि जंगलों को आग से बचाने के लिए ग्रामीणों और वन विभाग का वैमनस्य खत्म करना होगा। इस वैमनस्य का कारण जंगलों में लोगों के हक खत्म करना है। लोगों पर वन विभाग ने 1980 में घास-लकड़ी तक का प्रतिबंध लगा दिया था। ये प्रतिबंध 10 साल के लिए था, अब भी चल रहा है। लोगों को लकड़ी नहीं मिल रही तो सुदूर गांवों में भी सीमेंट के मकान बन रहे हैं। ये भूकम्प की दृष्टि से भी खतरनाक हैं। पहले आग पतरोल होते थे, अब वे नहीं हैं। फाॅरेस्ट गार्ड हैं तो उनके भी 1000 से ज्यादा पद खाली हैं। आग बुझाने और अपनी सुरक्षा के लिए उनके पास कोई उपकरण नहीं हैं। अमेरिका की तर्ज पर वाॅचिंग टावर बनाने और हेलीकाॅप्टर से आग बुझाने का प्रयास करना सिर्फ दिखावा है।

वर्ष 2016 में जंगलों में लगी अब तक की सबसे बड़ी आग के बाद वन विभाग ने विश्व बैंक से 600 करोड़ रुपए ऋण लेने का एक प्रस्ताव तैयार किया था। यह प्रस्ताव विश्व बैंक को भेजा भी गया था, लेकिन बाद में इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि यह प्रस्ताव तैयार करने वाले तत्कालीन वन प्रमुख राजेन्द्र महाजन अब मानते हैं कि जंगलों की आग बुझाने के लिए पैसे की नहीं, प्लानिंग की जरूरत है।

वे मानते हैं कि आग की असली कारण पिरुल (चीड़ की पत्तियां) हैं। जब तक पिरुल के निस्तारण की पुख्ता व्यवस्था नहीं की जाती, जब तक जंगलों की आग को कंट्रोल करना संभव नहीं होगा। महाजन का कहना है कि ज्यादातर मामलों में आग जान-बूझ कर लगाई जाती है और ऐसा करना स्थानीय पशुपालकों की मजबूरी है। चीड़ के जंगलों की पिरुल की परत बिछ जाने से वहां बरसात के दिनों में घास नहीं उग पाती, ऐसे में लोग पिरुल जलाने के लिए आग लगाते हैं। 

वे कहते हैं कि इस समस्या से निपटने का एक ही उपाय है कि स्थानीय लोगों की मदद से हर वर्ष पिरुल इकट्ठा करने का अभियान चलाया जाए। इसके लिए लोगों को सीजनल अथवा दैनिक आधार पर रोजगार दिया जाए। ऐसा करने से लोगों को अपने आसपास के चीड़ के जंगलों में आग लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी और उन्हें कुछ आर्थिक लाभ भी मिल पाएगा। वे कहते हैं आग बुझाने पर जो रकम हर वर्ष खर्च की जा रही है, उससे कम में यह व्यवस्था की जा सकती है।

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